काव्य प्रयोजन – (काव्य प्रयोजन का उद्देश्य)
काव्य प्रयोजन का तात्पर्य – ‘काव्य रचना के उद्देश्य से है।
1. संस्कृत के आचार्यो के अनुसार काव्य प्रयोजन
2. हिंदी के आचार्यो के अनुसार काव्य प्रयोजन
3. पाश्चात्य आचार्यो के अनुसार काव्य प्रयोजन
संस्कृत के आचार्यो के अनुसार काव्य के प्रयोजन:
1. भरतमुनि के अनुसार- (समय- 2/3 शताब्दी)
रचना – नाट्यशास्त्र,
इन्होंने सबसे पहले काव्य-प्रयोजन का उल्लेख करते हुए कहा है-
(क) “दुःखार्त्तानां श्रमार्त्तानां शोकार्तानां तपस्विनाम्।
विश्रामजननं लोके नाट्यमेतद् भविष्यति॥”
‘नाटक’ संसार में दुःख, परिश्रम, शोक तथा साधना से दुःखी मनुष्य को अनंद देने वाला होता है।
(ख) “धर्म्यं यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिविवर्धनम्।
लोकोपदेशजननं नाट्यमेतद् भविष्यति॥”
धर्म, यश, आयु, हित, बुद्धि का विकास लौकिक ज्ञान काव्य या नाटक के छः उद्देश्य हैं। आनंद प्राप्ति काव्य का मुख्य उद्देश्य है। भरतमुनि ने उसकी अवहेलना किया है। ये भारतमुनि के दोष हैं। (भारतमुनि के दृष्टि में नाटक और काव्य में कोई अंतर नहीं है)
2. भामह – (समय- 7वीं शताब्दी)
रचना – (काव्यालंकार)
भामह ने काव्य के चार प्रयोजन माने है-
“धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च।
करोति कीर्त्ति प्रीतिं च साधुकाव्य-निबंधनम्॥”
भामह ने धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष (पुरुषार्थचतुष्टय) की सिद्धि को काव्य-प्रयोजन माना है, साथ ही कला की विलक्षणता कीर्ति एवं प्रीति का प्रसार करना काव्य का उद्देश्य माना है।
3. वामन – (समय- 8वीं शताब्दी का मध्य भाग)
रचना- (काव्यालंकार सूत्रवृत्ति)
इन्होंने काव्य के मुख्यत: दो प्रयोजन माने हैं –
‘दृष्ट’ एवं ‘अदृष्ट’।
दृष्ट प्रयोजन का संबंध प्रीति से है।
अदृष्ट का संबंध कीर्ति से है।
प्रीति के द्वारा ‘लौकिक फल’ की और कीर्ति द्वारा ‘अलौकिक फल’ की प्राप्ति होती है।
“काव्यं सत् दृष्टादृष्टार्थ प्रीतिकीर्त्तिहेतुत्वात्।
काव्यं सत् चारु, दृष्टप्रयोजनं प्रीतिहेतुत्वात्।
अदृष्ट प्रयोजनं कीर्त्तिहेतुत्वात्।”
अतः इन्होंने ‘आनंद’ और ‘यश’ को काव्य का प्रयोजन माना है।
4. आनंदवर्धन – (समय 9वीं शताब्दी)
रचना – ‘ध्वन्यालोक’
आनंदवर्धन ने काव्य प्रयोजनों का अलग से उल्लेख नहीं करके ध्वनि स्थापन की सिद्धांत स्थापन करते हुए लिखा है कि-
“तेन बुमः सहृदय मनः प्रीतये तत्स्वरुपम्”
इससे स्पष्ट होता है किआनंदवर्धन ने काव्य का प्रयोजन सिर्फ ‘आनंद’ को माना है।
5. कुंतक- (समय 10वीं शताब्दी)
रचना – ‘वक्रोक्तिजीवितम्’
“कायामृतरसेनांतश्चमत्कारो वितन्यते॥
अमृत रूपी काव्य की अपेक्षा अंतश्चमत्कार के लिए होता है।
इन्होंने ‘अंतश्चमत्कार’ को काव्य का प्रयोजन माना है।
6. मम्मट – (समय- 11 वीं शताब्दी का उतरार्द्ध)
रचना- ‘काव्यप्रकाश’ (कश्मीर के निवासी थे)
काव्य प्रयोजन के संबंध में अपने पूर्ववर्ती मतों का समाहार करते हुए मम्मट कहते हैं कि –“काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये।
सद्यः परिनिर्वृत्तये कांतसम्मिततयोपदेशयुजे॥”
यश, अर्थ, लोक व्यवहार की शिक्षा अमंगल का नाश, शीघ्र अनंद/शांति, कांता सम्मिलित उपदेश दिया है।
7. हेमचंद – (समय- 12 वीं शताब्दी)
रचना – ‘कव्यानुशासन’
‘काव्यम् आनंदाय’ काव्य अनंद के लिए होता है।
इन्होंने अनंद को काव्य का प्रयोजन माना है।
8. विश्वनाथ – (समय – 14वीं शताब्दी)
रचना – ‘साहित्यदर्पण’
विश्वनाथ ने काव्य के प्रयोजन के तहत चतुर्वर्ग की प्राप्ति को महत्व दिया है।
इनके अनुसार शास्त्र का भी यही प्रयोजन है, किन्तु शास्त्र का अनुशीलन कष्टसाध्य है जो सबके लिए सुलभ नहीं है। काव्य के अध्ययन से जनसामान्य को भी चतुर्वर्ग की प्राप्ति संभव है।
“चतुर्वर्गफलप्राप्तिः सुखादल्पधियामपि।”
आचार्य विश्वनाथ ने अपनी पुस्तक ‘साहित्यदर्पण’ मे मम्मट के विचारो का खंडन किया है।
9. जगन्नाथ – (समय- 17वीं शताब्दी)
रचना – ‘रसगंगाधर’
“तत्र कीर्ति परमअह्लाद गुरु राजदेवता प्रसादाद्दनेक प्रयोजनस्य काव्यस्य।”
कीर्ति (यश) परम आनंद, गुरु देवता एवं राजा की प्रसन्नता आदि काव्य के अनेक प्रयोजन है।
हिंदी आचार्यों के अनुसार काव्य प्रयोजन:
हिंदी आचार्यों के अनुसार काव्य प्रयोजन को दो भागों में बाँटा गया है:
(क) भक्तिकालीन एवं रीतिकालीन आचार्यों के अनुसार काव्य प्रयोजन
(ख) आधुनिक काल के हिंदी आचार्यों के अनुसार काव्य प्रयोजन
(क) भक्तिकालीन एवं रीतिकालीन आचार्यों के अनुसार काव्य प्रयोजन-
मलिक मुहम्मद जायसी-
“औ मन जानि कवित्त अस कीन्हा। मकु यह रहे जगत में चिन्हा।।”
जायसी ने ‘यश’ की प्राप्ति को काव्य का मुख्य प्रयोजन माना है।
सूरदास- सूरदास ने ‘सगुण-लीला पदों का गान’ को अपनी काव्य रचना का प्रयोजन माना है।
गोस्वामी तुलसीदास जी-
“कीरति भनिति भूति भली सोई।
सुरसरि सम सबकर हित होई।।” (परहित की भावना-भलाई)
“स्वांतः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा।
भाषा निबंध मति मंजुल मातनोती।।” (आत्मिक आनंद की प्राप्ति)
“जो प्रबंध बुध आदर नाहि आदर हीं।
सो श्रम बादि बाल कवि करहीं।।” (यश की प्राप्ति)
गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘स्वान्तः सुखाया’ के साथ सबका हित करने वाला माना है।
हिंदी के रीतिकालीन आचार्यों ने संस्कृत के आचार्यों का ही अनुकरण किया है:
भिखारीदास-
“एक लहै तप पुंजनी के फल, ज्यों तुलसी अरु सूर गोसाई।
एक लहै बहु संपत्ति केसव, भूषण ज्यों बर वीर बड़ाई।
एक को जसही सो प्रयोजन, है रसखानि रहीम की नाई।
दास कवितन की चरचा, बुद्धि वंतन को सुख दे सब ठाई।
भिखारीदास ने धर्म, मोक्ष, अर्थ, यश और आत्मिक आनंद को काव्य का प्रयोजन माना है।
आचार्य देव –
पूरानाम – देवदत्त द्विवेदी
“ऊँच नीच अरु कर्म बस, चलो जात संसार।
रहत भव्य भगवंत-जस, भव्य काव्य सुख सार।।”
कवि देव ने ‘यश’ और ‘आनंद’ की प्राप्ति को काव्य का प्रयोजन माना है।
कुलपति मिश्र –
“जस संपत्ति अनंद अति, दुखिन डारै खोय।
होत कवित्त ते चतुराई, जगत राम बस होई।।”
कुलपति मिश्र ने यश प्राप्ति, अर्थ की प्राप्ति, आनंद की प्राप्ति, अनिष्ट का निवारण, लोकव्यवहार की शिक्षा और भक्ति के प्रचार को काव्य का प्रयोजन माना है।
(कुलपति मिश्र ने काव्य के छः प्रयोजन माने है।)
आचार्य सोमनाथ –
“कीरति वित्त विनोद अरु, अति मंगल को देति।
करे भलों उपदेश नित, वह कवित्त चित्त चेति।।”
आचार्य सोमनाथ ने कीर्ति, यश की प्राप्ति, आत्मिक सुख, लोक कल्याण और लोक व्यवहार की शिक्षा को काव्य का प्रयोजन माना है। (इन्होंने पाँच काव्य प्रायोजन माने है)
भूषण – भूषण ने काव्य का मुख्यप्रयोजन राष्ट्रीय भावना की जागृति को माना है।
(ख) आधुनिक काल के हिंदी आचार्यों के अनुसार काव्य प्रयोजन-
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ‘अनंद की अनुभूति’ और ‘लोकहित की भावना’ को काव्य-प्रयोजन माना है।
महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ‘ज्ञान का विस्तार’ और ‘आनंद की अनुभूति’ को काव्य-प्रयोजन माना है।
अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔंध’ ने “आनंदानुभूति’ को ही प्रमुख काव्य-प्रयोजन माना है।”
सुमित्रानंदन पंत ने ‘स्वांतः सुखाय’ और ‘लोकहित’ को काव्य-प्रयोजन माना है।
जयशंकर प्रसाद ने ‘मनोरंजन’ और ‘शिक्षा’ को काव्य-प्रयोजन माना है।
महादेवी वर्मा ने ‘मानव ह्रदय में समाज के प्रति विश्वास उत्पन्न करना’ काव्य-प्रयोजन है।
मैथिलीशरण गुप्त ने ‘लोक व्यवहार की शिक्षा’ और ‘आदर्श की स्थापना’ को काव्य का प्रयोजन माना है।
“केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए
उसमे तनिक उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।।”
डॉ नगेंद्र ने ‘अत्माभियक्ति’ को साहित्य का प्रयोजन माना है।
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार- “आत्मानुभूति ही काव्य का प्रयोजन है।”
बाबू गुलाबराय – “रसानंद में ही सबका जीवन रस है और इसी से लोकहित का मान है”
इन्होने काव्य का प्रयोजन ‘आनंद’ को माना है।
मुंशी प्रेमचंद के अनुसार – “साहित्य का उदेश्य हमारा मनोरंजन करना नहीं है यह काम ट भाटों मदारियों, विदूषकों और मसखरों का है साहित्यकार का पद इनसे बहुत ऊँचा है वह हमारे विवेक को जागृत करत है हमारी आत्मा को तेजिदीप्त बनाता है।”
प्रेमचंद ने भी ‘लोकव्यवहार की शिक्षा’ और ‘लोक कल्याण/परहित’ को काव्य का प्रयोजन मानते है।
हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार – “मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ, जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, दीनता, परमुखापेक्षिता से न बचा सके, जो उसे पर दुःख कातर और संवेदनशील न बना सके, उसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है।”
इनके दृष्टि में भी लोकहित / मानव कल्याण को ही काव्य का मुख्य प्रयोजन है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार – “कविता का संबंध ब्रह्म की व्यक्त सत्ता से है, चारों ओर फैले हुए गोचर जगत से है, जगत अव्यक्त की अभिव्यक्ति है और काव्य इस अभिव्यक्ति की अभिव्यक्ति है।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार – “कविता का अंतिम लक्ष्य जगत के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण करके उनके साथ मनुष्य हृदय का सामंजस्य प्रतिस्थापन है।”
इन्होंने भी काव्य का प्रयोजन लोकहित को माना है।
3. पाश्चात्य आचार्यो के अनुसार काव्य प्रयोजन:
सुकरात- “दैवीय प्रेरणा काव्य का मुख्य प्रयोजन है।”
प्लेटो – “लोकमंगल काव्य का एकमात्र लक्ष्य है।”
होरेश – “आत्मिक अनंद एवं लोकमंगल काव्य का मुख्या उदेश्य है।”
अरस्तू- “कला का विशिष्ट उद्देश्य आनंद है और यहाँ आनंद अनैतिक नही हो सकता है।” इन्होंने ‘आनंद’ और ‘लोकहित’ दोनों को काव्य का प्रयोजन माना है।”
मैथ्यू अर्नाल्ड – “जीवन की व्याख्या करना जीवन का एकमात्र प्रयोजन है।”
ड्राइडन – “काव्य ‘स्व’ और ‘पर’ सुख के लिए होता है।”
हडसन – “आत्माभिव्यक्ति, आदर्श की स्थापना एवं सृष्टि के सुन्दर रहस्यों को प्रकट करना काव्य के प्रमुख लक्ष्य है।”
तोलस्ताय – “कला को मानव-एकता का महत्वपूर्ण साधन मानते हैं जो मानव-मानव को सहानुभूति द्वारा परस्पर मिलाती है।”
रस्किन – “वही काव्य ग्राह्य हो सकता है जिसमे अधिकाधिक मनुष्यों का हित निहित हो।”
अतः यह स्पष्ट होता है कि पाश्चात्य आचार्यों ने भी ‘लोकमंगल’ को ही काव्य का प्रयोजन माना है।