‘कल्पना’ ‘Imagination’ शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘इमाजीनाटीओ’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ होता है ‘कल्पना’।
> ‘संभाव्य (जिसकी होने की संभावना हो) के विषय में सोचना’ ‘कल्पना’ होता है।
पाश्चात्य काव्य शास्त्र में ‘कल्पना’ का वही स्थान है, जो भारतीय काव्य शास्त्र में ‘प्रतिभा’ का स्थान है।
> प्लेटो ने कल्पना के लिए ‘फैंटेशिया’ शब्द का प्रयोग किया और उसे ‘यथार्थ’ का आभास बताया।
> काव्यरचना के क्षेत्र में कल्पना के स्वरुप और महत्व पर सबसे पहले ‘एडिसन’ ने विचार किया था।
> एडिसन के अनुसार ‘कल्पना’ मूर्ति-विधान करने वाली शक्ति है।
परिभाषा –
रामचंद्र शुक्ल के अनुसार – “जो वस्तु हमसे अलग है, हमसे दूर प्रतीत होती है, उसकी मूर्ति मन में लेकर उसके सामीप्य का अनुभव करना कल्पना है। साहित्य वाले इसे भावना कहते हैं जबकि सामान्य लोग इसे कल्पना कहते हैं।”
हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में – “पूर्व अनुभवों के आधार पर नवीन उद्भावनाएँ, आविष्कार और पुनर्निर्माण कल्पना है।”
मुक्तिबोध के शब्दों में – “असंभव को मानसिक रूप से संभव कर दिखाना या प्राचीन में मौलिकता लाना कल्पना है।”
शेक्सपियर के शब्दों में – “जो प्राप्त नहीं है उसे मन से प्राप्त कर लेना कल्पना है- उन्मत्त (पागल) प्रेमी और कवि इन तीनों का कल्पना से अविरल संबंध है।”
कॉलरिज ने कल्पना के दो भेद किए हैं-
1. प्राथमिक कल्पना (primary)
2. द्वितीयक कल्पना (secondary)
प्राथमिक कल्पना (primary)- प्राथमिक कल्पना ईश्वर की सर्जना शक्ति का मनुष्य के मन में प्रतिबिंब है। प्राथमिक कल्पना की अवधारण रहस्यवादी चिंतन का परिणाम है। रहस्यवादियों के अनुसार असीम सत्ता, ससीम (सीमित) सत्ता में प्रतिबिंबित होती है।
द्वितीयक कल्पना (secondary)- प्राथमिक कल्पना की प्रतिध्वनि होती है। द्वितीयक कल्पना मानसिक शक्ति है जो नवीन बिंबों की रचना करके पुनः सृजन करती है। अथार्त काव्य-रचना में सक्रिय होती है। यह संपूर्ण ब्रहमांड उसी की कल्पना या सृजनशक्ति का परिणाम है।
हिंदी समीक्षकों में में ‘कल्पना’ पर सर्वाधिक व्यवस्थित विचार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने दिया है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- “मानसिक रूप-विधान को कल्पना कहते हैं।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कल्पना के दो भेदों का उल्लेख किया है- विधायानी कल्पना और ग्राहिणी कल्पना
विधायानी कल्पना- विधायिनी कल्पना द्वारा कवि अपनी अनुभूतियों को संप्रेषित करता है।
ग्राहिणी कल्पना – ग्राहिणी कल्पना के द्वारा पाठक/श्रोता उन अनुभूतियों को ग्रहण करता है।
आचार्य शुक्ल ने कल्पना के महत्व को प्रतिपादित कर उसे भारतीय ‘रस’ और ‘अलंकार’ से उनका संबंध स्थापित किया।
कल्पना की विशेषताएँ:
> कल्पना पूर्व अनुभूतियों पर आधारित होती है।
> कल्पना इच्छा से उत्पन्न होती है।
> कल्पना बुद्धिके नियंत्रण से युक्त होती है।
> कल्पना का आलंबन अप्रत्यक्ष होता है।
> कल्पना की सामग्री बिंबों के रूप में मन में संचित होती है।
> कल्पना का कार्य पूर्व उपलब्ध सामग्री को नये रूप में प्रस्तुत करना है।