प्राचीन भारतीय साहित्य के सन्दर्भ में, साधारणीकरण रस-निष्पत्ति की वह स्थिति है, जिसमें दर्शक या पाठक कोई अभिनय देखकर या काव्य पढ़कर उससे तादात्मय स्थापित करता हुआ उसका पूरा-पूरा रसास्वादन करता है।
यह वह स्थिति होती है जिसमे दर्शक या पाठकों के मन में ‘मैं’ और ‘पर’ का भाव दूर हो जाता है और वह अभिनय या काव्य पात्रों के भावों में विलीन होकर उसके साथ एकात्मता स्थापित करता है।
साधारणीकरण रस के अंतर्गत आता है।
साधारणीकरण का उल्लेख सबसे पहले ‘भट्टनायक’ ने ‘रस निष्पत्ति’ के अंतर्गत किया था।
भट्टनायक ने रस निष्पत्ति के लिए ‘साधारणीकरण’ को परम आवश्यक माना है।
साधारणीकरण भारतीय काव्यशास्त्र की श्रेष्टतम उपलब्धि है।
साधारणीकरण का अर्थ –
साधारणीकरण का आशय है, सामान्यीकरण अथार्त जब-जब विभाव आदि का विशेषत्व पूर्णतया समाप्त होकर सामान्य हो जाए तो इस अवस्था को साधारणीकरण कहते है।
उदाहरण के लिए- कवि का भाव कवि का नहीं लगकर हमें अपना ही लगने लगे। बाल लीला करते हुए कृष्ण यशोदा का पुत्र नहीं लगकर हमें अपना पुत्र लगने लगे और उसके प्रति यानी कृष्ण के प्रति हमारे भाव वैसा ही हो जाए जैसे यशोदा के हैं यही स्थिति साधारणीकरण है।
साधारणीकरण से संबंधित प्रमुख व्याख्याकारों के मत:
भट्टनायक- भट्टनायक ने सबसे पहले साधारणीकरण की अवधारणा प्रस्तुत की थी इसलिए उन्हें साधारणीकरण का प्रवर्तक माना जाता है।
भट्टनायक के अनुसार – विभाव, अनुभव और स्थायी भाव सभी का साधारणीकरण होता है। इन्होंने ‘भावकत्व’ को साधारणीकरण माना है और इसकी परिभाषा देते हुए कहा है-
“भावकत्व साधारणीकरण तेन ही व्यापारेण।
विभावादय: स्थायी च साधारणीकरणी क्रियंते।।”
अथार्त भावकत्व ही साधारणीकरण है। इस व्यापार से विभाव आदि और स्थायी भावों का साधारणीकरण हो जाता है। (भावकत्व का आशय और दर्शक के भाव का एक हो जाना)
अभिनवगुप्त के अनुसार – व्यंजना के विभावन व्यापार के द्वारा साधारणीकरण होता है। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि – “साधारणीकरण द्वारा कवि निर्मित पात्र व्यक्ति विशेष नहीं रहकर सामान्य प्राणी मात्र बन जाता है। वह देशकाल के सीमाबद्ध नहीं रहकर सार्वदेशिक बन जाता है। अभिनवगुप्त गुप्त के अनुसार, साधारणीकरण विभावादि का नहीं होता है, अपितु स्थायीभावों का होता है।
आचर्य विश्वनाथ – (साहित्य दर्पण)
विभाव आदि का अपने पराये की भावना से मुक्त हो जाना ही साधारणीकरण है।
विश्वनाथ ने आलंबन, आश्रय, पाठक सभी का साधारणीकरण माना है तथा आश्रय के साथ प्रभात दर्शक, पाठक, सहृदय के तादाम्य पर विशेष बल दिया है।
जगन्नाथ – इनके अनुसार साधारणीकरण तात्त्विक रूप से संभव नहीं है
इनका मत है कि साधारणीकरण कोई वस्तु नहीं है। यह मत ही भ्रामक है।
इन्होंने साधारणीकरण के स्थान पर ‘दोष दर्शन’ या ‘भावना दोष’ की स्थापन किया है।
यह ऐसा दोष है, जैसा कि ‘सीपी के टुकड़े को देखकर चांदी के टुकड़े का भ्रम होता है।
आधुनिक काल में साधारणीकरण के संदर्भ में सर्वप्रथम चिंतन आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने किया।
आधुनिक चिन्तकों में रामचन्द्र शुक्ल, श्यामसुन्दर दास, नगेन्द्र, नन्ददुलारे वाजपेयी तथा केशव प्रसाद मिश्र आदि ने भी साधारणीकरण की व्याख्या प्रस्तुत की है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल –
इन्होंने आलंबन धर्म का साधारणीकरण माना है।
इन्होंने साधारणीकरण को दो पक्षों में ग्रहण किया है-
1. साधारणीकरण आलंबन धर्म का होता है
2. सहृदय का आश्रय के साथ तादाम्य होता है
आचार्य शुक्ल ने ‘काव्यानंद’ अथवा ‘रस’ को ब्रह्मानंद सहोदर नहीं माना है, अपितु सामाजिक के धरातल पर ‘रस’ की नवीन व्याख्या है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने – आलंबन धर्म को साधारणीकरण माना है।
डॉ नगेंद्र – ‘साधारणीकरण’ न तो आलंबन का होता है और न ही आश्रय का, साधारणीकरण तो कवि की अनुभूति का होता है।
डॉ नगेंद्र ने कवि की अनुभूति का साधारणीकरण माना है।
श्यामसुंदर दास – इन्होंने सहृदय पाठक या स्रोता के चित्त का साधारणीकरण माना है तथा साधारणीकरण के संदर्भ में ‘योग की मधुमति भूमिका’ की कल्पना की है।
श्यामसुंदर दास ने सहृदय की चित्त का साधारणीकरण माना है।
केशवप्रसाद मिश्र – इन्होंने सबसे पहले साधारणीकरण के संदर्भ में मधुमति भूमिका की कल्पना की तथा कहा कि – चित्त का निर्वितर्क हो जाना ही मधुमति भूमिका या साधारणीकरण है।
केशवप्रसाद मिश्र ने – सहृदय की चेतन का साधारणीकरण माना है।
नंददुलारे वाजपेयी – साधारणीकरण का अर्थ दर्शक या पाठक के बीच भावों का तादाम्य है।
नंददुलारे वाजपेयी ने – कवि, कविकल्पित सभी व्यापारों का साधारणीकरण मानते हैं।
गुलाबराय – नाटकीय प्रपंच, नाटककार, प्रेक्षक (दर्शक) सभी का साधारणीकरण होता है।
गुलाबराय ने – नाटकीय प्रपंच, नाटककार, प्रेक्षक (दर्शक) सभी का साधारणीकरण माना है।
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