त्रासदी का अर्थ: ‘त्रासदी’ अंग्रेजी के ‘ट्रेजडी’ शब्द का हिंदी रूपांतरण है। इसका आशय है- दुखांतक या दुःखपूर्ण रचना अथार्त जिस रचना का अंत दुःखपूर्ण हो। अरस्तू ने ‘पेरिपोइतिकेस’ (पायटिक्स) के 6 से 19 वें तक के अध्यायों में त्रासदी की विस्तार से विवेचन किया है। (विशेषतः 11वें अध्याय में है।)
त्रासदी की परिभाषाएँ:
अरस्तू के अनुसार- “त्रासदी गंभीर स्वतःपूर्ण रचना है, जिसका एक निश्चित आयाम होता है। यह दुःखपूर्ण कार्य व्यापार है जिसका मूल लक्ष्य दूषित विचारों का शमन है।”
एटकिन्स के अनुसार- “वह दुखांतक रचना जिसमे उद्वेगपूर्ण घटनाओं से विचारों का परिमार्जन किया जाता हा वह त्रासदी कहलाती ।”
अरस्तु के अनुसार: त्रासदी के निम्नलिखित तीन उद्देश्य हैं –
(i) भाव्यंतर चित्रण (घटना और नायक दोनों भव्य होना चाहिए)
(ii) विचारों का शुद्धिकरण (सकारात्मक विचारों का शुद्धिकरण)
(iii) दूषित विचारों का उत्तेजना के माध्यम से शांत करना।
त्रासदी के तत्व या अंग- अरस्तू ने त्रासदी के प्रमुख छः अंग बतायें हैं-
कथानक, चरित्र-चित्रण, पद रचना, विचार तत्व, संगीत और दृश्य विधान
1. कथानक या कथावस्तु (Plot)
अरस्तू ने कथानक या घटनाओं को ‘सर्वोपरि’ और ट्रेजडी को ‘आत्मा’ कहा है।
अरस्तू ने कथानक का भेद दो आधार पर किया है-
(i) विषय के आधार पर (ii) रचना के आधार पर
प्रथम – विषय के आधार पर कथानक के तीन आधार माने हैं।
दंतकथा मूलक – जो सुनी सुनायी बात पर आधारित हो उसे दंतकथा मूलक कहा जाता है।
कल्पना मूलक – कवि, रचनाकार की कल्पना पर आधारित हो तो उसे कल्पना मूलक कहा जाता है।
इतिहास मूलक – इतिहास की सत्य घटना पर आधारित हो।
दूसरा – रचना के आधार पर कथानक के दो आधार माने गए हैं –
सरल (एक ही घटना), अरस्तू ने सरल नाटक को महत्व दिया है।
जटिल (एक से अधिक घटनाएँ) जटिल कथानक के 3 अंग माने गए हैं –
(i) महान त्रुटि (ii) स्थिति विपर्यन (iii) अभिज्ञान
महान त्रुटि – नायक द्वारा परिस्थिति या अज्ञानता वश कोई भूल हो जाए तो इसे महान त्रुटि कहते हैं। अरस्तू ने इसे ‘हेमरतिया’ कहा है। महान त्रुटि में नायक का चारित्रिक पतन नहीं होता है।
स्थिति विपर्यन – स्थिति विपर्यन के अंतर्गत नायक के इच्छा के विरुद्ध अचानक ही स्थिति में परिवर्तन हो जाता है। अथार्त नायक के इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य हो जाना। इसलिए कौतुहल की दृष्टि से यह अंग महतवपूर्ण है।
अभिज्ञान – नायक को सत्य का बोध हो जाना।
त्रासदी के मुख्य कथानक के अंश या संगठन
अरस्तू ने कथानक के मुख्य चार अंश या संगठन माने हैं – प्रस्तावना, उपाख्यान, उपसंहार और वृंदगान।
प्रस्तावना – यह त्रासदी का आरंभिक भाग है। गायकों के पुर्वगान के पहले प्रस्तुत किये जाने वाले उस संपूर्ण अंश को अरस्तू ने प्रस्तावना कहा है। यह वास्तव में त्रासदी के प्रस्तुतीकरण की भूमिका मात्र है।
उपाख्यान – वृन्दगानों के बीच के अंश को अरस्तू ने उपाख्यान कहा है। यह कथानक का पूर्ण भाग होता है। यह प्रस्तावना के बाद और वृन्दगान से पहले होता है।
वृन्दगान – वृन्दगान अनेक गायकों के द्वारा नृत्य के साथ सामूहिक रूप से गाया जाता है। इसके द्वारा त्रासदी की घटनाओं की भावात्मक समीक्षा प्रस्तुत की जाती है।
वृन्दगान के दो भाग है-
पूर्वगान- यह विचारों को उत्तेजित करने के लिए होता है।
उत्तरगान- यह दूषित विचारों का शमन करने के लिए होता है।
उपसंहार – इसमें सत्य का उद्घाटन हो जाता है।
कथानक के गुण-
1. अरस्तू ने कथानक के 6 गुण बताएँ हैं – एकान्वितता (कार्यं में एकता हो), संभव्यता (घटना), कुतूहलपूर्ण (रोचक), अकस्मिकता (अचानक), पूर्णता (कहानी की पूर्णता), और साधारणीकरण (प्रेक्षक का साधारणीकरण होना)
2. चरित्र-चित्रण (Character)
त्रासदी में चरित्र चित्रण का वही महत्तव है, जो भारतीय काव्य शास्त्र में नाटकों की पात्र योजना का है।
अरस्तू ने चरित्र-चित्रण में निम्नलिखित बातों पर बल दिया है-
पात्र का चरित्र उसकी जाति या वर्गगत विशेषताओं के अनुरूप होना चाहिए।
उसका चरित्र-चित्रण जीवन के अनुरूप होना चाहिए।
उसकी चरित्र में एकरूपता होनी चाहिए।
नायक के चरित्र के विषय में अरस्तू ने निम्नलिखित बातें बताई है-
नायक में अच्छे गुण और बुरे गुण दोनों का समावेश होना चाहिए।
नायक को हमारे जैसा होना चाहिए (अथार्त वह इसी लोक का लगना चाहिए आलौकिक नहीं लगना चाहिए।
नायक यशस्वी और कुलीन होना चाहिए।
3. विचार तत्व (Thought)
अरस्तू ने त्रासदी के विवेचन में तीसरा महत्वपूर्ण स्थान विचार तत्त्व को दिया है। त्रासदी में भय एवं करुणा का भाव होना चाहिए।
4. संगीत (Melody)
अरस्तू ने संगीत को त्रासदी का महत्वपूर्ण अंग माना है। त्रासदी में प्रयुक्त संगीत उन्माद और शांत दोनों हो सकता है। संगीत कैसा भी हो लेकिन सभ्य होना चाहिए। अभिप्राय यह है कि त्रासदी की भाषा भी उसकी गरिमा के अनुकूल ही होनी चाहिए।
5. पदावली या पदरचना योजना (Diction)
त्रासदी में भाषा सरल और अलंकृत भाषा का प्रयोग होना चाहिए। भाषा में लय का सामंजस्य और संगीत का समावेश हो। पात्र के अनुसार भाषा का प्रयोग होना चाहिए। इस संबंध में अरस्तू का आग्रह रहा है कि भाषा चमत्कारपूर्ण तो हो किन्तु क्षुद्र नहीं हो।
6. दृश्य विधान (Spectacle) दृश्य विधान से आशय रंग मंचीय साज-सज्जा से है। अरस्तू ने इसका संबंध कलाकार की अपेक्षा में शिल्पकार से माना है। अरस्तू ने रंगमंचीय साधनों को अनिवार्य नहीं माना है।