खड़ीबोली आन्दोलन

खड़ीबोली आन्दोलन के सन्दर्भ में विशेष तथ्य:

      खड़ीबोली पश्चिमी हिंदी के अंतर्गत आती है

      19 वीं शताब्दी के पहले ही खड़ी बोली की रचनाएँ मिलना शुरू हो जाती है। इसके बाद  फोर्ट विलियम कॉलेज ने इसमें अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

      > 1908 ई. में लल्लूलाल के द्वारा लिखी गई रचना ‘प्रेम सागर’ और सदल मिश्र की रचना ‘चंद्रावली’ या ‘नासिकेतोपाख्यान’ खड़ी बोली की पहली रचना मानी जाती है जो फोर्ट विलियम कॉलेज में लिखी गई थी।    

      > खड़ी बोली के आरंभिक गद्यकार कवि गंग थे। (मूलनाम- गंगाधर भट्ट)

        ये अकबर के राजदरबारी कवि थे।

      > इनका समय – (1538 से 1623 ई.) माना जाता है।

प्रमुख रचनाएँ:

      ‘चंद-छंद बरनन की महिमा’ (नाटक) यह खड़ी बोली गद्य की पहली रचना है।

      कवि गंग की अन्य रचनाएँ: गंग पदावली, गंग पच्चीसी, गंग रत्नावली

      ‘गंग कवित्त दिग्विजय भूषण’ (इस रचना में बीरबल और रहीमदास की दानशीलता          का वर्णन है।

      गंग कवि ने रहीम की दानशीलता के बारे में रहीम दास जी से कहा-

            “सीखे कहा नबाब जू ऐसी देनी दैन।

             ज्यों-ज्यों कर ऊचों कियों त्यों-त्यों निचे नैन।।”

      इसके प्रत्युत्तर में रहीम दास जी ने कहा था-

            “देनहार कोऊ और है देत रहत दिन रैन।

            लोग भरम हम पर करे तासों नीचे नैन।।”

      भिखारीदास ने गंग कवि की प्रशंसा करते हुए लिखा है-

            “तुलसी गंग दुओ भये सुकवि के सरदार

            भाषा इनके काव्य में मिलि विविध प्रकार।।”

खड़ीबोली के सन्दर्भ में आलोचकों के मत:

      आचार्य हजारीप्रसाद दिवेदी के अनुसार – “इस रचना (चंद-छंद बरनन की महिमा) में भाषा में कसावट नहीं होते हुए भी खड़ी बोली गद्य के आरंभिक नमूने अवश्य प्राप्त होते हैं।”

      आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- “चंद-छंद बरनन की महिमा” खड़ी बोली गद्य की प्रथम रचना सिद्ध होती है। इसकी भाषा प्रचलित तत्सम् शब्दावली से युक्त है।”

2. रामप्रसाद निरंजनी-

      > रामप्रसाद निरंजनी खड़ी बोली हिंदी गद्य के प्रारंभिक लेखक माने जाते है।

      > ये पटियाला दरबार के कथावाचक थे।

      > पटियाला रियासत की महारानी देसो (देस कौर) को सुनाने के लिए एक मात्र

            रचना – ‘भाषायोग वाशिष्ठ’ (1941 ई.) रचा। यह परिमार्जित खड़ी बोली गद्य         की प्रथम रचना है।

      हजारीप्रसाद दिवेदी के अनुसार – “इसमें पूर्णतया तत्सम शब्दों का प्रयोग है इनकी (रामप्रसाद निरंजनी) भाषा में उर्दू, फ़ारसी का कदाचित् ही कोई शब्द दिखाई पड़े।”

      रामचंद्र तिवारी के अनुसार – ‘भाषायोग वाशिष्ठ’ का विषय अध्यात्मिक है। इसलिए इसमें पारिभाषिकता भी है किंतु गद्य विधान कही भी शिथिल नहीं है। निःसंदेह यह खड़ी बोली गद्य की प्रथम प्रौढ़ रचना यही है।”

      रामचन्द्र शुक्ल अनुसार- “परिमार्जित खड़ी बोली गद्य की प्रथम रचना ‘भाषायोग वाशिष्ठ’ ही है।”

खड़ी बोली हिंदी को किसने क्या कहा?

      > लल्लूलाल खड़ी बोली के प्रथम प्रयोक्ता थे।

      > चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ – मलेच्छ भाषा

      > राहुल संकृत्यायन और भोलानाथ तिवारी – कौरवी भाषा

      > जॉन गिलक्राइस्ट – टकसाली भाषा

      > ग्रियर्सन और गिलक्राइस्ट – वर्नाक्युलर हिन्दुस्तानी

      > सुनीतिकुमार चटर्जी – जनपदीय भाषा

      > ग्रियर्सन – गवाँरु भाषा

      > विश्वनाथ प्रसाद मिश्र – फेंकी हुई अथार्त पड़ी हुई भाषा

      > दयानंद सरस्वती – आर्य भाषा

      > किशोरीदास वाजपेयी कर्णकटु और नीरस भाषा

      > प्लेटस – वल्गर भाषा

      > भारतेंदु – मर्दानी भाषा

खड़ी बोली के सन्दर्भ में आलोचकों के महत्वपूर्ण कथन:

      शिवदान सिंह चौहान के अनुसार – “हमारी दृष्टि में हिंदी साहित्य के इतिहास में केवल खड़ी बोली में रचित हिंदी साहित्य ही परिणित होनी चाहिए।” (हिंदी साहित्य के अस्सी वर्ष) में कहा।

      आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी के अनुसार – “बोलचाल की भाषा खड़ी बोली की निंदा करना या उसके पुरस्कर्ताओं को लंगूर इत्यादि बनाकर ब्रज भाषा अपना गौरव नहीं बढ़ा सकती।”

      रामस्वरूप चतुर्वेदी के अनुसार – “सरस्वती पत्रिका के माध्यम से खड़ी बोली को कविता और गद्य में समभाव से प्रतिष्ठित करने का ऐतिहासिक श्रेय महावीर प्रसाद दिवेदी को है।”

      डॉ बच्चन सिंह के अनुसार – “खड़ी बोली के लिए खड़ी बोली शब्द का प्रयोग संभवतः सबसे पहले लल्लूलाल ने किया।”

      डॉ बच्चन सिंह के अनुसार – “खड़ी बोली शब्द फोर्ट विलियम की टकसाल से निकला सबसे पहले भाषा मुंशी लल्लूलाल, सदल मिश्र ने इसका उपयोग किया।”

      प्रतापनारायण मिश्र के अनुसार – “ब्रज भाषा उँख है तो खड़ी बोली बाँस।”

      राधाचरण गोस्वामी के अनुसार – “खड़ी बोली रुक्ष और नीरस है।”

      जगन्नाथ दास रत्नाकर के अनुसार – “खड़ी बोली एक कृत्रिम और नीरस शैली है।”

      जगन्नाथ दास रत्नाकर के अनुसार – “खड़ी बोली में कविता भाव का अभाव है लालित्य के सदा लाले पड़े रहते हैं। प्रसाद (प्रसाद काव्य गुण) का पता नहीं, रस क्या, रसाभाव भी नहीं, न अर्थ से अर्थ न मतलब से मतलब।”

खड़ी बोली आन्दोलन:

      > खड़ी बोली आन्दोलन के सूत्रपात 1887 ई. में हुआ।

      > खड़ी बोली आन्दोलन के प्रवर्तक ‘अयोध्या प्रसाद खत्री’ थे।

      > खड़ी बोली आन्दोलन का समय नवंबर 1887 ई. अप्रैल 1888 ई. था।

खड़ी बोली आन्दोलन से संबंधित रचना:

      रचना – ‘खड़ी बोली का पद’ (1887 ई.)

      रचनाकार – अयोध्या प्रसाद खत्री है।

खड़ी बोली आन्दोलन के समर्थक रचनाकार:

      अयोध्या प्रसाद खत्री, श्रीधर पाठक, भारतेंदु हरिश्चंद्र, आचार्य महावीर प्रसाद दिव्वेदी।

खड़ी आन्दोलन के विरोधी रचनाकार:

      बाबू जगन्नाथ ‘रत्नाकर’, राधाचरण गोस्वामी, प्रतापनारायण मिश्र, बनारसीदास चतुर्वेदी।

खड़ी बोली के सन्दर्भ में विशेष तथ्य:

      खड़ी बोली शब्द के प्रथम प्रयोक्ता – लल्लूलाल

      खड़ी बोली शब्द के दूसरे प्रयोक्ता – सदल मिश्र

      खड़ी बोली के प्रथम कवि – अमीर खुसरो

      खड़ी बोली के प्रथम महाकवि – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔंध’

      खड़ी बोली की प्रथम रचना – ‘चंद-छंद वर्णन की महिमा’

      खड़ी बोली की प्रथम गद्यकार – गंग कवि

      परिमार्जित खड़ी बोली की प्रथम रचना- ‘भाषायोग वाशिष्ठ’

      आधुनिक खड़ी बोली के प्रथम कवि – श्रीधर पाठक

      खड़ी बोली के प्रथम स्वच्छंदता वादी कवि – श्रीधर पाठक

      दक्षिणी भारत में खड़ी बोली के रचना करने वाले प्रथम कवि – मुल्लावजही (रचना-          सबरस)

      खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य – ‘प्रियप्रवास’- (‘हरिऔंध’- 1914 ई.)

      उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में खड़ी बोली गद्य के विकास में ईसाई धर्म प्रचारकों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उन्होंने खड़ी बोली में बाइबिल का अनुवाद कर अपने धर्म के प्रचार के साथ हिंदी का भी प्रचार किया आर्य समाज, ब्रह्म समाज और सनातन धर्म के उपदेशकों ने भी धर्म प्रचार के लिए उपनिषद् और वेदों के ज्ञान तथा रामायण, महाभारत आदि के कथाओं के प्रचार के लिए हिंदी गद्य की पुस्तकें लिखी और पत्रिकाएँ निकाली। स्वामी दयानंद सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश की हिंदी में अनुवाद किया इस प्रकार धार्मिक समुदायों के धर्म प्रचार के आंदोलनों ने हिंदी गद्य के विकास में अपूर्व योगदान रहा है।

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