अस्तित्ववाद का उद्भव :
अस्तित्ववाद का उद्भव प्राचीनकाल में ही हो चूका था। अरस्तु, एक्वीनास तथा नीत्से में इस चिंतन को देखा जा सकता है। आधुनिक काल में इसकी शुरुआत 1813 ई. में डेनमार्क निवासी ‘सोरेन कीर्के गार्द’ द्वारा किया गया इसलिए कीर्के गार्द को अस्तित्ववाद का जनक माना जाता है।
अस्तित्ववाद- ‘अस्तित्ववाद’ अंग्रेजी शब्द ‘एग्जिस्टेंस’ शब्द का हिंदी रूपांतरण है। यह मनुष्य केन्द्रित दृष्टिकोण है। यह संपूर्ण जगत में मानव को सर्वाधिक महत्व देता है और व्यक्ति को साध्य मानता है। प्रकृति की अन्य वस्तुओं को मानव के लिए साधन मानता है।
अस्तित्ववाद की परिभाषाएँ –
द डिक्सनरी ऑफ फिलॉस्फी के शब्दों में – “अस्तित्ववाद का अर्थ है जीवित रहने की वह स्थिति जो अन्य वस्तुओं के साथ होने वाले समायोजन में निहित है।”
ऐलेन के शब्दों में- “अस्तित्ववाद परंपरागत दर्शक की दृष्टि से न होकर अभिनेता की दृष्टि से है। “
मोनियार के शब्दों में- “अस्तित्ववाद विचार तथा पदार्थ के दर्शनों के विरुद्ध मानवदर्शन की प्रतिक्रिया है।”
जुलियन बेन्द्रा के शब्दों में- “अस्तित्ववाद भाव तथा विचारों के प्रति जीवन का विद्रोह हैं।”
गणपतिचंद्र गुप्त के शब्दों में- “अस्तित्ववाद दृष्टिकोण है वस्तुतः उन परंपरागत तर्क संगत दार्शनिक मतवादों के विरुद्ध एक ऐसा विद्रोह जो विचारों अथवा पदार्थ जगत की तर्क संगत व्याख्या करते हैं तथा मानवीय सत्ता की समस्या की उपेक्षा करते हैं।”
अस्तित्ववादी विचार की अपेक्षा व्यक्ति के अस्तित्व को अधिक महत्त्व देते हैं। इनके अनुसार सारे विचार या सिद्धांत व्यक्ति की चिंतन के ही परिणाम हैं। पहले चिंतन करने वाला मानव या व्यक्ति अस्तित्व में आया। अतः व्यक्ति का अस्तित्व ही प्रमुख है, जबकि विचार या सिद्धांत गौण। उनके विचार से हर व्यक्ति को अपना सिद्धांत स्वयं खोजना या बनाना चाहिए, दूसरों के द्वारा प्रतिपादित या निर्मित सिद्धांतों को स्वीकार करना उसके लिए आवश्यक नहीं है। इसी दृष्टिकोण के कारण इनके लिए सभी परंपरागत, सामाजिक, नैतिक, शास्त्रीय एवं वैज्ञानिक सिद्धांत अमान्य या अव्यवहारिक सिद्ध हो जाते हैं। उनका मानना है कि यदि हम दुःख एवं मृत्यु की अनिवार्यता को स्वीकार कर लें तो भय ख़त्म हो जाता है। परिस्थितियों को स्वीकार करना या नहीं करना व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर है। इनके अनुसार व्यक्ति को अपनी स्थिति का बोध दु:ख या त्रास की स्थिति में ही होता है, अतः उस स्थिति का स्वागत करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
दास्ताएवस्की ने कहा था – ‘‘यदि ईश्वर के अस्तित्व को मिटा दें तो फिर सब कुछ (करना) संभव है।’’
अस्तित्ववाद ‘अतित्व’ में ‘अस्ति’ होने का बोध कराता है। पेड़-पौधे, पशु-पंछी आदि सभी जीवों का अस्तित्व होता है किंतु अस्तित्ववादी के अर्थ में मनुष्य के ही अस्तित्व को स्वीकारा गया है। व्यक्ति की ‘वैयक्तिकता’ या ‘यूनिकनेस’ अस्तित्ववाद का केंद्रीय विवेच्य है।
सात्र के अनुसार, गुण के पहले अस्तित्व होता है। वे कहते हैं – “मनुष्य पहले अस्तित्व में आता है, आत्मसंघर्ष करता है, दुनिया से टकराता है और अपने को परिभाषित करता है।”
अस्तित्ववादी दर्शन में अनेक विषयों का विवेचन किया गया है, जैसे- स्वतंत्रता, चुनाव, संवेदना, समाज आदि। पर इन सभी की केंद्रीय मुद्दा व्यक्ति ही है।
सार्त्र का कहना है कि मनुष्य स्वतंत्र होने के लिए अभिशप्त है। अतः स्वतंत्र ‘होने’ की बुनियादी शर्त है। स्वतंत्र होकर ही प्रमाणिक जीवन जीया जा सकता है।
कामू ‘विद्रोह’ को स्वतंत्रता का पर्याय कहता है – “मैं विद्रोह करता हूं इसलिए अस्तित्ववान हूँ।”
अस्तित्ववाद एक ऐसी विचारधारा है जो 19 वीं और 20 वीं शताब्दी के दौरान सामने आई। इसके मूल में आधुनिकता की यह दृष्टि निहित थी कि एक मनुष्य सोचता, विचारता, अनुभव करता, जीवन जीना वैयक्तिक (Individual) है।
ज्याँ पाल सार्त्र के अनुसार मूलत: यह मानववाद है। उनका कथन है – ‘‘हमारे लिए ‘अस्तित्ववाद’ शब्द का अर्थ एक ऐसा सिद्धांत है जो मानव जीवन को संभव बनाता है और जो यह मानता है कि प्रत्येक सत्य और कर्म का संबंध परिवेश तथा उसकी आत्म परकता में निहित होता है।’’
आत्मपरकता को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि आत्मपरकता का संबंध व्यक्ति स्वातंत्र्य से है अर्थात मनुष्य इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है जैसा खुद को बनाता है या कि वह स्वयं का निर्माण करता है।
अस्तित्ववाद की मुख्य मान्यताएँ :
ईश्वर संबंधी दृष्टिकोण – अस्तित्ववादी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करते हैं। उनकी मान्यता है कि विश्व के निर्माण के पीछे न तो कोई कारण है और न ही कोई उद्देश्य है। ईश्वर कुछ नहीं है हमने उसे मार दिया है।
मृत्यु संबंधी दृष्टिकोण- अस्तित्ववादी मृत्यु को मानव जीवन के लिए अभिशाप मानते है। उनका कहना है कि मनुष्य मृत्यु के सामने निरुपाय है। अतः उसे मृत्य से नहीं डरना चाहिए। तथा स्वेच्छापूर्वक स्वतंत्र जीवन यापन करना चाहिए।
जगत संबंधी दृष्टिकोण- प्रत्येक व्यक्ति की अपनी रूचि और उद्देश्य अलग-अलग होता है। संसार व्यक्ति के लिए वैसा ही रूप धारण कर लेता है जैसा व्यक्ति स्वयं है। मानव संसार के लिए है, संसार मानव के लिए नहीं है।
निराशा एवं एकाकीपन- अस्तित्ववादी मानते है कि व्यक्ति जो चाहता है वह हमेशा पूरा होना संभव नहीं है। व्यक्ति को निराश भी होना पड़ सकता है। व्यक्ति को विशेष परिस्थिति में एकांकी भी रहना पड़ता है।
मानव संबंधी विचार- मानव शरीर का महत्व है। सब कुछ मानव के लिए है। मानव किसी के लिए नहीं है। मनुष्य अपना निर्माता स्वयं है।
स्वतंत्रता संबंधी दृष्टिकोण- अस्तित्ववादी मनुष्य को पूर्ण स्वतंत्र मानते है और व्यक्ति को चयन की स्वतंत्रता का अधिकार देता है।
इस सन्दर्भ में जैसपर्स का कहना है कि- “मनुष्य यदि स्वतंत्र होकर चयन नहीं करता है तो वह अस्तित्ववादी है, चयन में ही मैं हूँ, यदि मैं चयन से विफल हो जाता हूँ तो मैं नहीं हूँ।”
अस्तित्ववादी की अन्य मान्यताएँ:
> व्यक्ति के विकास की महत्ता, क्षण की महत्ता
> समस्त प्रकार की अचार संहिताओं का विरोध
> मनुष्य ही चिंतन का केंद्र है
> मानव अस्तित्व का काल व इतिहास से अनन्य संबंध है
> मनुष्य को अपने निर्माण और चयन की स्वतंत्रता होनी चाहिए
> काल्पनिक साहत्य का विरोध
प्रमुख अस्तित्ववादी विचारक:
कीर्के गार्द (1813 – 1855)
नीत्से (1844 – 1890)
जैसपर्स (1883 – 1924)
काफ्फा (1883 – 1924)
हेडगर (26 सितंबर 1889-1976)
गैब्रील मार्शल (7 दिसंबर 1889 -1973)
ज्यां पाल सात्र (1905 – 1980)
अल्बेयर कामू (1913 – 1960)
अस्तित्ववादियों की प्रमुख रचनाएँ:
कीर्के गार्द- एक डायरी
जैसपर्स – आधुनिक जगत और मनुष्य
हेडगर – एग्जिस्टेंस एण्ड बीइंग
ज्यां पाल सात्र – दि इमोशन, नॉसिया बीइंग एंड नॉथ, वात इज लिट्रेचर, अस्तित्ववाद और मानववाद।
काफ्फा – द ट्रायल, द कैसल, अमरीका
अल्बेयर कामू – द स्ट्रेचर
नीत्से – जरथुस्त्र की वाणी, पाप और पुण्य के आगे, मूल्यों की परंपरा, त्रासदी का जन्म।
अस्तित्ववाद के प्रमुख कथन :
सात्र के शब्दों में – “मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है।”
सात्र के शब्दों में – “मैं आज जो कुछ हूँ उसके प्रति मेरी दृष्टि ही मेरा भविष्य बनाती है। मैं अपने भविष्य का निर्माता स्वयं हूँ।”
नीत्से के शब्दों में – “ईश्वर मर गया है मैने उसे मार दिया है।”
देकार्त के शब्दों में – “मैं सोचता हूँ अतः मैं हूँ।”
अस्तित्ववाद के संदर्भ में प्रमुख तथ्य:
> अस्तित्ववाद का मूल आधार वैयक्तिक स्वतंत्रता है।
> अस्तित्ववाद का जन्म नियतिवाद की प्रतिक्रिया स्वरुप हुआ।
> अस्तित्ववाद में प्रगतिशीलता और आशावाद भी निहित है।
> अस्तित्ववाद के जन्मदाता ‘कीर्के गार्द’ है।
> प्रथम प्रबल समर्थक एवं व्याख्याता ‘नीत्से’ है।
> आधुनिक अस्तित्ववाद के जन्मदाता ‘जैसपर्स’ हैं।
> अस्तित्ववादियों में सर्वाधिक महत्व ‘सार्त्र’ का है।
> अस्तित्ववाद के प्रथम “सुपर मैन’ की कल्पना नीत्से ने किया।
ईश्वर के संदर्भ में अस्तित्ववादियों के तीन मत हैं –
आस्थावादी – कीर्के गार्द, जैसपर्स, मार्शल हैं।
अनास्थावादी – नीत्से, सार्त्र, कामू है।
मध्यमार्गी – हैडेगर है।
अस्तित्ववाद के अंतर्गत अनस्ति या शून्य का उद्भावक मार्टिन हाइडेगर था।
निष्कर्ष- अस्तित्व अर्थ से पहले का आधार है जो कि मानव और मानवजीवन के अस्तित्व को पूर्व निर्धारित न माकर उसे प्रक्रिया गत मानता है। यह विचारधारा एक सक्रिय आन्दोलन का रूप नहीं ले सका हो लेकिन यह वर्तमान में भौतिकवादी सभ्यता के युग में व्यक्ति को उसकी मान्यता, उसकी विशेषता, उसकी प्रतिष्ठा, उसकी गरिमा और उसके सर्वोपरि पहचान की अनुभूति करनेवाली एक महत्वपूर्ण विचारधारा और दर्शन है।