हिंदी : उद्भव एवं विकास

हिंदी की उत्पत्ति:

      हिंदी भाषा के उद्भव और विकास की जब भी बात की जाती है तब हमें आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र की वे पंक्तियाँ याद आने लगती हैं –

            “निज भाषा उन्नति अहै,  सब उन्नति के मूल ।

            बिन निज भाषा-ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।”

      भारतेंदु हरिश्चंद्र के दोहे से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्हें अपनी हिंदी भाषा से कितना लगाव था। यदि हिंदी भाषा के विकास की बात किया जाए तो यह कहना गलत नहीं होगा कि पिछले सौ वर्षों में हिंदी का बहुत विकास हुआ है और दिन पर दिन हिंदी का और भी अधिक विकास हो रहा है। हिंदी भाषा का इतिहास लगभग एक हजार वर्ष पुराना माना गया है। संस्कृत भाषा भारत की सबसे प्राचीन भाषा है जिसे आर्य भाषा या देव भाषा भी कहा जाता है। हिंदी इसी आर्य भाषा संस्कृत की उत्तराधिकारिणी मानी जाती है। यह भी कहा जाता है कि हिंदी का जन्म संस्कृत की कोख से हुआ है।

      हिंदी शब्द की व्युत्पत्ति भारत के उत्तर-पश्चिम में प्रवाहमान सिंधु नदी से संबंधित है। इससे यह विदित है कि अधिकांश विदेशी यात्री और आक्रान्ता उत्तर-पश्चिम के सिंहद्वार से ही भारत आए थे। भारत में आने वाले इन विदेशियों को जिस देश का दर्शन हुआ वह सिंधु देश था। ईरान (फारस) के साथ भारत के प्राचीन काल से ही संबंध थे। ईरानी ‘सिंधु’ को ‘हिंदू’ कहते थे अतः ‘हिंदू’ से ‘हिंद’ और ‘हिंद’ में संबंध कारक प्रत्यय ‘ई’ लगने से ‘हिंदी’ बन गया। इस तरह ‘हिंदी’ का अर्थ ‘हिंद का’ हो गया। इस प्रकार हिंदी शब्द की उत्पत्ति हिंद देश के निवासियों के अर्थ में हुई और आगे चलकर यही शब्द हिंदी भाषा में प्रयुक्त होने लगी।1 भाषा के अर्थ में ‘हिंदी’ शब्द का प्रयोग सरफुद्दीन यज्दी के ‘जफ़रनामा’ (1424 ई.) में मिलता है।  

      भारत एक विराट् और महान देश है। यहाँ विभिन्न समुदायों के लोग निवास करते हैं। जिनकी अपनी-अपनी भाषाएँ हैं। मुख्य रूप से भारत में दो भाषा-परिवारों की भाषाएँ बोली जाती हैं-

      1. आर्य परिवार या भारोपीय परिवार और 2. द्रविड़ परिवार

      ‘हिंदी भाषा’ आर्य या भारोपीय परिवार की भाषा है। ‘भारोपीय’ शब्द भारत व यूरोप के योग से बना है। जिसे ‘इंडो-जर्मनिक’, ‘इंडो-केल्टिक’ या ‘आर्य’ नाम से भी जाना जाता है। इस परिवार के मूल स्थान व प्रसार के बारे में विद्वानों में मतभेद है। कुछ विद्वान इसका मूल स्थान भारत मानते हैं तो कुछ मध्यएशिया। वहीं कुछ विद्वान् इसका मूल स्थान यूरोप या यूरोप और एशिया की सीमा को मानते हैं। भाषा वैज्ञानिक ‘ब्रान्देश्ताइन’ यूराल पर्वत के दक्षिण-पूर्व में किरगीज के मैदानी भाग को भारोपीय लोगों का मूल निवास मानते हैं। जहाँ से कई शाखाओं में विभक्त होकर यहाँ के भाषा-भाषी यूरोप व एशिया के विभिन्न देशों से होते हुए पूरे यूरोप, एशिया, कनाड़ा, अमरीका, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया आदि में अंग्रेजी, फ्रांसीसी, रुसी, स्पैनिश, फ़ारसी, संस्कृत, हिंदी, मराठी, बांगला, गुजराती, कश्मीरी आदि भाषाओँ के बोलने वाले फैले हुए हैं।

भारोपीय परिवार की भाषाओँ को दो भागों में बाँटा गया है- केंटुम और शतम्

      केंटुम- वर्ग की शाखाएँ केल्टिक, जर्मनिक, लैटिन, ग्रीक और तोखारी है।

      शतम्- वर्ग की इलीरियन, बाल्टिक, स्वाल आर्मीनियन आर्य या भारत-ईरानी हैं।

      विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद तथा पारसियों का धर्मग्रन्थ ‘जेन्द अवेस्ता’ लगभग 7वीं सदी में (दो हजार वर्ष ई.पू.) लिखा गया है। इन दोनों की भाषाओँ में जो सभ्यता दिखाई देती है उससे यह अनुमान लगाया जाता है कि आर्यभाषा के मूलभाषी जब अपने-अपने दल को लेकर आगे बढ़े होंगे तब उनमे से कुछ तो ईरान में रह गए और कुछ भारत में आकर बस गए। आर्य शब्द का विकास भी आर्यणाम > अइरान > ईरान के क्रम में हुआ। भारत-ईरानी या हिंद-ईरानी शाखा को ही आर्य भाषा परिवार कहा जाने लगा। इन्हीं आधारों पर आर्य-भाषा परिवार की तीन प्रमुख शाखाएँ मानी जाती हैं- ईरानी शाखा, दरद शाखा और  भारोपीय शाखा।

      ईरानी शाखा में- प्राचीन फ़ारसी, अवेस्ता, पहलवी, फारसी आदि भाषाएँ आती हैं। अवेस्ता और ऋग्वेद की भाषा में बहुत साम्यता है।

      दरद शाखा- ‘दरद’ शब्द का अर्थ है ‘पर्वत’ इस शाखा में कश्मीरी, शिणा, चित्राली भाषाएँ आदि आती हैं।

      भारोपीय शाखा- इसके अंतर्गत वैदिक संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी आदि भाषाएँ आती हैं, जो विश्व भर में प्रसिद्ध हैं।

      भाषा का अर्थ- भाषा शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में प्रचलित है। भावाभिव्यक्ति के सभी साधनों को भाषा कह दिया जाता है। इस अर्थ में निम्नलिखित माध्यम भी भाषा की कोटि में आ जाते हैं –

      पशु-पक्षियों की बोली – पशु-पक्षियों की बोली के लिए भी भाषा शब्द का प्रयोग किया गया है। जैसे- कुत्तों, बंदरों, बिल्लियों की भाषा। गोस्वामी तुलसीदास जी ने उत्तरकाण्ड में काक भुशुंडी व गरुड़ के वार्तालाप प्रसंग में लिखा हैं- ‘समुझइ खग खग ही कै भाषा’ अथार्त पशु पक्षी भी विभिन्न ध्वनियों से अपने भाव व्यक्त करते हैं।   

      आंगिक या इंगित भाषा- इसके अंतर्गत आँख, हाथ, सर के संचालन द्वारा भावाभिव्यक्त की जाती है। बिहारी के एक दोहे से यह ज्ञात होता है-

      “कहत, नटत, रीझत, खीझत, मिलत, खिलत, लजियात।

      भरे  भौन  में  करत  हैं,  नैनन   ही   सो    बात।।”

      आंगिक भाषा का प्रयोग केवल गूंगों के लिए अनिवार्य है।

      संकेत-चिह्न या सांकेतिक भाषा – संकेत या सांकेतिक भाषा कई प्रकार के होते हैं। गार्ड की लाल या हरी झंडी, लाल, हरी और पीली बत्तियाँ रुकना और जाना को प्रकट करता है। स्वाद, स्पर्श, संकेत और तार तथा वायरलेस की भाषा भी सांकेतिक हैं। कवितावली में तुलसी ने संकेत भाषा का उदाहरण देते हुए कहा है-

      “पूछति ग्राम वधू सिय सों, कहौ साँवरे से, सखि रावरे को हैं।

माता सीता उत्तर देते हुए नेत्र-संकेत से कहती हैं –

      “तिरछे करि नैन दे सैन तिन्हें, समुझाई कछू मुसुकाई चली।”  

      मानवीय व्यक्त भाषा – मानव अपने भावों की अभिव्यक्ति के लिए जिस वाणी का उपयोग करता है उसे भाषा कहते हैं। भाषा शब्द संस्कृत की ‘भाष्’ धातु से बना हैं। ‘भाष्’ धातु का अर्थ है ‘व्यक्त वाणी’। अथार्त व्यक्त वाणी के रूप में जिसकी अभिव्यक्ति की जाती है, उसे भाषा कहते हैं। भाषा का इतिहास उतना ही पुराना है जितना मानव का इतिहास। 

      भाषा की परिभाषा – “भाषा यादृच्छिक वाचिक ध्वनि संकेतों की वह पद्धति है जिसके द्वारा मानव परस्पर विचारों का आदान-प्रदान करता है।”2

      आचार्य किशोरीलाल वाजपेयी के शब्दों में- “विभिन्न अर्थों में सांकेतिक शब्दसमूह ही भाषा है, जिसके द्वारा हम अपने विचार या मनोभाव दूसरों के प्रति बहुत ही सरलता से प्रकट करते है।”3

      डा. श्यामसुंदर दास के शब्दों में- “मनुष्य और मनुष्य के बीच वस्तुओं के विषय में अपनी इच्छा और मति का आदान-प्रदान करने के लिए व्यक्त ध्वनि संकेतों का जो व्यवहार होता है उसे भाषा कहते हैं।”4

      डॉ. भोलानाथ तिवारी के शब्दों में– “भाषा उच्चारणावयवों से उच्चारित यादृच्छिक (arbitary) ध्वनि-प्रतीकों की वह संरचनात्मक व्यवस्था है, जिसके द्वारा एक समाज-विशेष के लोग आपस में विचारों का आदान-प्रदान करते हैं।”5

      रविन्द्रनाथ श्रीवास्तव के शब्दों में- “भाषा वागेंद्रिय द्वारा निःस्तृत उन ध्वनि प्रतीकों की संरचना है जो अपनी मूल प्रकृति में यादृच्छिक एवं रूढ़िपरक होते हैं और जिनके द्वारा किसी भाषा-समुदाय के व्यक्ति अपने अनुभवों को व्यक्त करते हैं, अपने विचारों को संप्रेषित करते हैं और अपनी सामाजिक अस्मिता, पद तथा अंतवैयक्तिक संबंधों को सूचित करते हैं।”6

      उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि – “मुख से उच्चरित ऐसे परंपरागत, सार्थक और व्यक्त ध्वनि संकेतों की समिष्टि ही भाषा है जिसकी सहायता से हम आपस में अपने विचारों एवं भावों का आदान-प्रदान करते हैं।”     

हिंदी: उद्भव और विकास

      भारत में सबसे पहले वैदिक संस्कृत चलती थी। भारतीय भाषा का प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद है। ऋग्वेद की भाषा संस्कृत थी, किन्तु समय हमेशा से गतिशील रहा है जिसके कारण परिवर्तन होता रहा है। अतः भाषा भी धीरे-धीरे कई रूपों में परिवर्तित होती रही है। संस्कृत भाषा का समय 1500 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व का रहा है। यह संस्कृत दो प्रकार की थी। पहली वैदिक संस्कृत थी जिसमे वेद, उपनिषद् अरण्यक, ब्राह्मन और दर्शन आदि की रचना हुई, और दूसरी लौकिक संस्कृत थी जिसमे रामायण, महाभारत, नाटक, व्याकरण आदि की रचनाएँ हुई। यही लौकिक संस्कृत बोलचाल की भाषा में विकसित होकर धीरे-धीरे पाली भाषा के रूप में प्रचलित हुई। इसका समय 500 ईसा पूर्व से ईसा की पहली शताब्दी तक माना गया है। पाली भाषा में बौद्ध धर्म के विनयपिटक, सुत्तपिटक, अभिधम्मपिटक एवं जातक आदि कथाओं की रचना हुई। भाषा के हमेशा दो रूप प्रचलित रहें है पहला साहित्यिक और दूसरा बोलचाल की भाषा। जब कोई भाषा रचनाकारों और लेखकों का आश्रय पा लेती है तब वह एक नवीन भाषा में परिवर्तित होकर साहित्यिक भाषा का रूप धारण कर लेती है।

      पाली भाषा में भी ऐसा ही हुआ वह समय के अनुसार प्राकृत का रूप धारण करने लगी। प्राकृत का समय ईसा की पहली शताब्दी से लेकर 500 ई. के बाद तक रहा। इस काल में जैन साहित्य की रचना प्रचुर मात्रा में हुई। प्राकृत के समय में ही जनपदों में भाषा का प्रचार हुआ। यहीं से प्राकृत भाषा अपभ्रंश के रूप में प्रसारित होने लगी थी। विद्वानों ने प्राकृत भाषा के अंतिम चरण में अपभ्रंश का उद्भव माना है। तत्कालीन प्रचलित शब्दों से यह पता चलता है कि प्राकृत के उत्तरार्द्ध में शब्दों में विकृति आना शुरू हो गया था जैसे ‘गाथा’ शब्द ‘गाहा’ और ‘दोहा’ शब्द ‘दूहा’ के रूप में परिवर्तित हो गए थे। अपभ्रंश के समय देशी भाषायुक्त थोड़ी सरलता एवं मधुरता वाली भाषा का भी उदय हुआ उसे अवह्ट्ठ भाषा कहने लगे। मैथिल कोकिल विद्यापति ने इसी भाषा में अपनी दो रचनाएँ ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ लिखी थी। जैसे-

            “देसिल बअना सब जन मिट्ठा। ते तैसन जपहो अवहट्ठा।।”

      अपभ्रंश भाषा के विभिन्न क्षेत्रीय रूपों एवं बोलियों से ही हिंदी भाषा का उद्भव हुआ अपभ्रंश भाषी कवियों, दार्शनिकों, सिद्धाचार्यों, जैनाचार्यों एवं नाथ समुदाय के अनुयायियों से ही अपभ्रंश भाषा का प्रचार-प्रसार हुआ। हर्षवर्धन के शासन काल के पश्चात अपभ्रंश का प्रचार-प्रसार तेजी से बढ़ा। अतः हिंदी का प्रारंभिक काल अपभ्रंश साहित्य में ही दिखाई दिया। इसी काल के चौरासी सिद्धों में हिंदी का रूप और भी निखर कर आया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी को ग्राम्य अपभ्रंश का विकसित रूप माना है। तत्कालीन सिद्धाचार्यों ने लोक भाषा में ही लिखना प्रारंभ किया। जनभाषा या लोकभाषा में रचना लिखने से अधिक ख्याति प्राप्त होती है। हेमचंद्राचार्य ने सबसे पहले अपभ्रंश भाषा का व्याकरण ‘शब्दानुशासन’ लिखा। अपभ्रंश भाषा के इतिहास से यह पता चलता है कि हिंदी अपभ्रंश के आँचल में पली और बढ़ी। यही प्रारंभिक हिंदी की बुनियाद है। उदयनारायण तिवारी के शब्दों में आचार्य हेमचन्द्र के बाद 13 वीं शताब्दी के प्रारंभ में आधुनिक भारतीय भाषाओँ के अभ्युदय के समय 15वीं शताब्दी के पहले तक का समय संक्रांति काल था। जिसमें भारतीय आर्य भाषाएँ धीरे-धीरे अपभ्रंश छोड़कर आधुनिक काल की विशेषताओं से युक्त होती जा रही थी। मिश्रबंधुओं ने अपनी पुस्तक ‘मिश्रबंधु विनोद’ में हिंदी साहित्य के आदिकाल की विवेचना करते हुए अपभ्रंश के साहित्य को प्रथम स्थान दिया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने हिंदी साहित्य के इतिहास में अपभ्रंश और प्राकृत की अंतिम अवधारणा से ही हिंदी साहित्य का अभिर्भाव माना है। डॉ नामवर सिंह के अनुसार देश धीरे-धीरे इतना आगे बढ़ा कि 13 वीं सदी तक आते-आते अपभ्रंश के सहारे से ही पूर्व और पश्चिम के देशों ने अपने बोलियों का स्वतंत्र रूप प्रकट कर लिया। भौगोलिक परिप्रेक्ष्य से देखा जाए तो हिंदी का क्षेत्र दो भागों में बँट गया। पहला पश्चिमी हिंदी और दूसरा पूर्वी हिंदी। यही अपभ्रंश साहित्य हिंदी के जन्म का कारण बना। डॉ नागेन्द्र के अनुसार हिंदी साहित्य की परंपरा को देखा जाए तो अपभ्रंश से ही क्षेत्रीय रूपों में परिवर्तित होने वाली बोलियों से ही हिंदी का रूप विकसित हुआ है। अपभ्रंश शौरसेनी अपभ्रंश, पैशाची, ब्राचड़, महाराष्ट्री, मागधी और अर्धमागधी के रूपों में प्रसारित हो रही थी। इनकी उपभाषाएँ एवं मुख्य बोलियों से ही हिंदी का उद्भव माना गया है।

अपभ्रंश की क्षेत्रीय बोलियाँ-भाषाएँ जिनसे हिंदी का उद्भव हुआ-

क्रम संख्याउपभाषाएँबोलियाँ
1.पश्चिमी हिंदीकौरवी (खड़ी बोली), ब्रजभाषा, बुंदेली, हरियाणवी (बांगरू), कन्नौजी
2.पूर्वी हिंदीअवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी
3.राजस्थानीपश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी), पूर्वी राजस्थानी (जयपुरी), उत्तरी राजस्थानी (मेवाती), दक्षिणी राजस्थानी (मालवी)
4.पहाड़ीपूर्वी पहाड़ी, पश्चिमी पहाड़ी, मध्यवर्ती पहाड़ी (कुमायूँनी गढ़वाली)
5.बिहारीमैथिली, मगही, भोजपुरी

इस प्रकार हिंदी में पाँच उपभाषाएँ और अट्ठारह बोलियाँ सम्मिलित हैं।

हिंदी भाषा के विकास को प्रायः तीन कालों में विभाजित किया जा सकता है-

      प्राचीन या आदिकाल की हिंदी  (1000 – 1500 ई. तक)

      मध्यकालीन हिंदी (1500 – 1800 ई. तक)

      आधुनिक हिंदी (1800 ई. से अब तक)

1. प्राचीन या आदिकाल की हिंदी  (1000 – 1500 ई. तक)

      हिंदी के विकास का यह प्रारंभिक चरण है। आदिकालीन हिंदी सभी बातों में अपभ्रंश से बहुत करीब थी। इस काल की हिंदी में कई बोलियों का मिश्रण मिलता है। स्वर और व्यंजन की दृष्टि से आदिकालीन हिंदी अपभ्रंश की ऋणी है। कुछ नई ध्वनियों का विकास भी इस काल में हो गया था जैसे – ‘ऐ’ और ‘औ’ ये दोनों संयुक्त स्वर अपभ्रंश में नहीं थे। आदिकालीन हिंदी में इन दोनों स्वरों का उच्चारण ‘अए’ और ‘अओ’ की तरह होता था। च, छ, ज, झ, संस्कृत से लेकर अपभ्रंश तक स्पर्श व्यंजन था। आदिकाल हिंदी में आकर ये स्पर्श संघर्षी हो गए और अब तक ये इसी रूप में प्रयुक्त हो रहे हैं। ड़, ढ़ व्यंजन अपभ्रंश में नहीं थे किन्तु इस काल के हिंदी में इसका विकास हो गया। अपभ्रंश में न्ह, म्ह, ल्ह संयुक्त व्यंजन थे किन्तु इस काल में आकर ये क्रमशः न, म, ल के महाप्राण के रूप में परिवर्तित हो गए अथार्त मूल व्यंजन हो गए। व्याकरण की दृष्टि से भी आदिकालीन हिंदी अपभ्रंश से बहुत निकट थी। धीरे-धीरे अपभ्रंश के व्याकरणिक रूप कम होते गए और 1500 ई. तक आते-आते हिंदी अपने पैरों पर खड़ी हो गई। अपभ्रंश भाषा काफी हद तक संयोगात्मक थी लेकिन आदिकालीन हिंदी में वियोगात्मक रूप में प्रधान हो गई। सहायक क्रियाओं तथा परसर्गों का प्रयोग काफी होने लगा।7

      अपभ्रंश में नपुंसक लिंग की स्थिति अस्पष्ट थी किन्तु आदिकालीन हिंदी में दो लिंग- पुल्लिंग-स्त्रीलिंग रह गए। आदिकाल की हिंदी में तत्सम शब्दावली को प्रश्रय दिया जाने लगा तद्भव शब्द अपभ्रंश के अनुरूप ही पर्याप्त संख्या में थे। मुसलमानों के संपर्क में आने से हिंदी भाषा में अरबी, फ़ारसी, तुर्की आदि शब्दों की संख्या भी बढ़ने लगी। हिंदी के प्रारंभिक काल में डिंगल, पिंगल ब्रज अवधी मैथिली आदि भाषाओँ में साहित्य लिखा जाने लगा था। इस युग में गोरखनाथ, चंदबरदाई, विद्यापति, कबीर आदि साहित्यकारों ने रचनाएँ रची। इनकी कृतियों से ज्ञात होता है कि किस प्रकार हिंदी कि बोलियाँ अपभ्रंश के प्रभाव से स्वतंत्र रूप निश्चित कर रही थी। विद्यापति की रचनाओं में एक ओर अपभ्रंश की तो दूसरी ओर पुरानी हिंदी कि झलक विद्यमान है। कबीर कि भाषा में हिंदी के अनेक बोलियों का मिश्रण है। इस  प्रकार आदिकालीन हिंदी विभिन्न प्रभावों से शक्ति प्राप्त कर विकसित हो रही थी। संस्कृत के समान यह व्याकरण के कठोर नियमों से जकड़ी हुई नहीं थी जिसके फलस्वरूप वह निरंतर विकास की ओर बढ़ती रही।

मध्यकाल (1500 ई. से 1800 ई. तक)

      हिंदी भाषा के विकास के इस काल को सर्वोत्तम काल कहा जाता है इसे स्वर्ण युग भी कहा गया है। भाषा और साहित्य दोनों की दृष्टि से इस युग का विशेष महत्व है। व्याकरण की दृष्टि से मध्यकालीन हिंदी पूरी तरह अपने पैरों पर खड़ी हो गई। भाषा वियोगात्मक हो गई परसर्गों तथा सहायक क्रियाओं के रूप और बढ़ गए। इस काल में अरबी-फ़ारसी, पश्तो, तुर्क आदि विदेशी भाषाओँ के शब्द प्रयुक्त होने लगे। यूरोप वासियों से संपर्क में आने से अंग्रेजी, पुर्तगाली, स्पेनी, फ्रांसीसी, भाषाओँ के शब्दों से भी हिंदी प्रभावित हुई। मध्यकाल में धर्म की भावना प्रबल होने के कारण तत्सम शब्दों का प्रयोग खूब बढ़ गया क्योंकि साहित्य में गद्य की अपेक्षा पद्य की ओर कवियों का विशेष झुकाव रहा। ब्रज और अवधी इस काल की समृद्ध भाषा बन गई। ब्रज में कृष्ण-साहित्य और अवधी में राम साहित्य रचा गया। जायसी का ‘पद्मावत’ भी अवधी की महत्वपूर्ण कृति है। सूरदास और नंददास ने ब्रजभाषा में उच्चकोटि की रचनाएँ लिखी। रीतिकालीन कवियों में केसवदास, बिहारी, देव, भूषण, घनानंद आदि कवियों ने ब्रजभाषा में महत्वपूर्ण रचनाएँ किया। ब्रज भाषा समस्त हिंदी प्रदेश की साहित्यिक भाषा बन गई। इसके साथ ही खड़ी बोली में भी साहित्य-सृजन हो रहा था। नानक, कबीर, रैदास, धर्मदास, दादू, धन्ना, पीपा आदि भक्त कवियों और संत की रचनाओं में खड़ी बोली का प्रयोग हो रहा था। खड़ी बोली का प्रयोग विशेष रूप से दक्षिण भारत में हो रहा था। संक्षेप में मध्यकालीन हिंदी में ब्रज अवधी आदि बोलियाँ साहित्यिक बनकर आगे बढ़ी और भाषा के रूप में खड़ी बोली प्रतिष्ठित रही।8

आधुनिक काल (1800 ई. से अब तक)

      हिंदी भाषा के इतिहास में इस काल का जन्म संघर्ष तथा क्रांति में हुआ। ब्रज और अवधी का स्थान धीरे-धीरे खड़ी बोली ले रही थी। शासन-सत्ता अपने हाथ में लेते ही अंग्रेजों को भारत की जनता से संपर्क करने के लिए यहाँ की भाषा को सीखना आवश्यक हो गया। 1800ई. में अंग्रेजों ने कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना करके हिंदी के विकास का प्रारंभ किया। कॉलेज के अध्यक्ष डॉ गिलक्राइस्ट ने 1803ई. में लल्लूलाल तथा सदल मिश्र की नियुक्ति हुई। इन्होंने ‘प्रेमसागर’ और ‘नासिकेतोपाख्यान’ की रचना किया। 19वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में भारतेंदु युग से खड़ी बोली में गद्य लिखा जाने लगा था। इस समय कविता की भाषा ब्रज थी। आगे चलकर कविता की भाषा भी खड़ी बोली हो गई। दिवेदी युग से खड़ी बोली के साहित्य में स्वर्णयुग का आगमन हो गया। आधुनिक युग में हरिऔंध, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद, निराला, पंत, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा आदि के साहित्य ने हिंदी को परिनिष्ठित और संपन्न भाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। आज हिंदी वाणिज्य, विज्ञान, विधि, तकनीकी की भी भाषा है। शब्दकोष तथा साहित्य की दृष्टि से हिंदी भाषा की गणना आज विश्व की उन्नत भाषाओँ में होने लगी है। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि आधुनिक हिंदी दिनोंदिन उन्नति के पथ पर आगे बढ़ती जा रही है।          

सन्दर्भ ग्रंथ:

      1. हिंदी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास- डॉ मगनलाल शर्मा एवं अन्य, जयपुर

       2. B. Bloch and G.L.Trager, P. 5

       3. भारतीय भाषाविज्ञान – किशोरीलाल वाजपेयी

       4. भारतीय भाषाविज्ञान – किशोरीलाल वाजपेयी

       5. भाषाविज्ञान – भोलानाथ तिवारी

       6. भाषाविज्ञान: सैद्धांतिक चिंतन

       7. भाषाविज्ञान के सामान्य सिद्धांत एवं हिंदी  भाषा का इतिहास -हिंदी विभाग, ओस्मानिया युनिवर्सिटी

       8. भाषाविज्ञान के सामान्य सिद्धांत एवं हिंदी  भाषा का इतिहास -हिंदी विभाग, ओस्मानिया युनिवर्सिटी

       9. विकिपीडिया

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