दक्षिण भारत के स्वतंत्रता सेनानियों से संबंधित परिचयात्मक लेख

स्वतंत्रता सेनानियों का हर एक-एक कतरा वरदान है।

आजादी के हर साँस पर उनके कुर्बानियों के नाम है।

गाथाएँ उन सेनानायकों की जब-जब दोहराई जायेगी।

तब-तब अमर वीर शहीदों की कहानियाँ याद आएगी।

स्वतंत्रता सेनानी भारत माता के वे बहादुर और साहसी सपूत थे जिन्होंने 200 वर्षो के अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी से देश को आजाद करवाया। 15 अगस्त 1947 ई० को हमारा देश आजाद हुआ। हम कृतज्ञ हैं, उन स्वतंत्रता सेनानियों के जिन्होंने अपना सबकुछ न्योछावर करके ये आजादी दिलवाई है। आजादी के जंग में शामिल भारतियों को अनेक यातनाएँ सहनी पड़ी और अनेकों कुर्बानियाँ देनी पड़ी थी। जिस समय उत्तर भारत में स्वतंत्रता आंदोलन अपनी चरम सीमा पर थी उसके समान्तर ही दक्षिण भारत के स्वतंत्रता सेनानी भी जगह-जगह पर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध लोहा लेने के लिए अपने-अपने घरों से निकल पड़े थे।

दक्षिण भारत के स्वतंत्रता सेनानी:

वी. ओ. चिदंबरम पिल्लई

पूरा नाम- विल्लियप्पन उलगनाथन चिदंबरम पिल्लई (5 सितंबर 1872 – 18 नवंबर 1936)

वी. ओ. चिदंबरम पिल्लई का पूरा नाम विल्लियप्पन उलगनाथन चिदंबरम पिल्लईथा। चिदंबरम पिल्लई का जन्म 5 सितंबर1872 ई० को तमिलनाडु के तिरुनेलवेली जिले के ओट्टापिडारम नामक स्थान पर हुआ था। चिदंबरम पिल्लई के पिता का नाम उलग्नाथ था। वे उस समय के सफल वकील थे। सन् 1895 ई० में चिदंबरम पिल्लई ने वकालत पास करके त्रिची में अपनी वकालत आरम्भ किया। जन समुदाय के संपर्क में आने के बाद उन्हें जनता के दुःख-सुख का परिचय मिला। उन्होंने गरीब जनता से बिना फ़ीस लिए काम करना आरम्भ कर दिया। इस कार्य से उनके कीर्ति में चार चाँद लग गए।

20 वीं सदी के आरम्भ से ही राष्ट्रीयता आन्दोलन शुरू हो गई थी। सन् 1905 ई० में भारत में राष्ट्रीय आंदोलन का संचार हो गया। भारतीय जागरण को दबाने के लिए लार्ड कर्जन ने सन् 1905 ई० में बंगाल के दो टुकड़े कर दिया। जिससे बंगाल में विद्रोह शुरू हो गया। इस आंदोलन का प्रभाव संपूर्ण भारत पर पड़ा। उस समय देश का नेतृत्व लाला लाजपत राय, बालगंगाधर तिलक तथा विपिनचंद्र पाल के हाथ में था। चिदंबरम पिल्लई उग्र विचार के थे। उन्होंने संपूर्ण भारत विशेषकर तमिलनाडु में आन्दोलन की आग को भड़का दिया था। उस समय से ही चिदंबरम पिल्लई अंग्रेजों के आँखों के किरकिरी बन गए थे। 1907 ई० में उन्होंने सूरत कॉग्रेस में भाग लिया। उन्होंने तिलक का साथ दिया। जनता ने उन्हें “दक्षिण के तिलक” का उपाधि दिया। चिदंबरम पिल्लई दक्षिण भारत के ‘स्वदेशी आंदोलन’ के जनक थे। उन्होंने जनता से विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करवाया और एकता की भावना को जागृत किया। यह चिदंबरम पिल्लई का सबसे महत्वपूर्ण कार्य था। स्वदेशी ‘जहाजरानी कंपनी’ की स्थापना हुई। उन दिनों मद्रास के बंदरगाहों पर अंग्रेजी जहाजरानी कंपनियों का आधिपत्य था। वे कंपनियां मनमाने ढंग से भारत को लूटती थी और भारतियों को नाममात्र की मजदूरी देती थी। सम्पूर्ण व्यापार अंग्रेजों के हाथ में था। चिदंबरम पिल्लई ने इस बात को अनुभव किया और अंग्रेजी कंपनी की जड़-मूल से उखाड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आरम्भ में उन्हें रोकने के लिए अंगेजों ने उन्हें कई तरह के लालच दिए लेकिन जब वे नहीं माने तब अंग्रेजों ने उनपर देशद्रोह का आरोप लगाकर कैद कर के कन्नूर जेल भेज दिया। जेल के दौरान पिल्लई को कठोर यातनाएँ दी जाती थी। इतिहासकार और तमिल विद्वान आर. ए. पद्दनाभन ने लिखा है- ‘कारावास के दौरान पिल्लई को कोल्हू में बैल की जगह जोता जाता था। उन्हें कड़ी धूप में कोल्हू खींचकर तेल निकालना पड़ता था।

सजा पूरी होने के बाद चिदंबरम पिल्लई जब कारावास से बाहर निकले तब जनता ने उनका तहे दिल से स्वागत किया। वे अब अस्वस्थ्य रहने लगे थे। आर्थिक स्थिति भी अत्यंत ख़राब हो चुकी थी। जहाजरानी के टूट जाने से कई हिस्सेदार अपना धन वापस मांगने लगे थे। इन कठिन परिस्थितियों में भी वे अटल रहे। उन्होंने सभी हिस्सेदारों को धन देने का वचन देकर फिर से वकालत शुरू कर दिया। चिदंबरम पिल्लई तमिल भाषा के विद्वान थे। उन्होंने स्वदेसी आंदोलन के आरम्भ से ही जनता को जानकारी देने के लिए “विवेक भानु” नाम की मासिक पत्रिका निकाली थी। जेल में रहते हुए उन्होंने तीन ग्रंथ लिखे- मानप्पोल वलव, अगमे पुरम् और वलिमैक्कुमार्गम्।

चिदंबरम पिल्लई ‘तिरुवल्लुरवर’ के परम भक्त थे। इसलिए उन्होंने अपनी सभी रचनाओं में तिरुवल्लुरवर के जीवन के सिद्धांतों की व्याख्या किया है। उनकी रचनाओं का विषय ‘देश-प्रेम’ और ‘दर्शन’ है। वे श्री अरविंदो के मित्र थे। साहित्य और जीवन सिद्धांत के मूल में दोनों का दृष्टिकोण सामान था। उनकी रचनाएँ आज भी पाठशालाओं और विश्वविधालयों में पढ़ाई जाती है। चिदंबरम पिल्लई को गरीबों से सहानुभूति थी। कहा जाता है कि वे गरीबों को अपने कपड़े तक उतार कर दे दिया करते थे। इसलिए उनके जीवन में हमेशा आर्थिक तंगी बनी रहती थी। 18 नवंबर, 1936 ई० भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तूतीकोरीन कार्यालय में उनका निधन हो गया। आज भी तमिलनाडु वासी उन्हें ‘कप्पालोतिय थमिझान’ अथार्त ‘खेवनहार’ कहते हैं। 05 सितंबर, 2021 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने स्वतंत्रता सेनानी वी. ओ. चिदंबरम पिल्लई को उनकी 150वीं जयंती पर श्रद्धांजलि दिया था।

अल्लूरी सीताराम राजू (4 जुलाई 1897 – 7 जुलाई 1924 ई०)

अल्लूरी सीताराम राजू का जन्म 4 जुलाई 1897 ई० को विशाखापत्तनम के पांडुरंगा गाँव में हुआ था। बचपन से ही उनके पिता ने उन्हें क्रांतिकारी संस्कार दिए थे। उन्होंने सीताराम को अंग्रेजों के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए प्रेरित किया था। उनके पिता ने उन्हें बताया था कि- “अंग्रेजों ने हमें गुलाम बनाया है और वे हमारे देश को लूट रहे हैं।” अल्लूरी सीताराम राजू ने अपने  पिता के द्वारा कही गई इस बात को दिल से लगा लिया।

अल्लूरी सीताराम राजू ने बचपन से ही कोया आदिवासियों को अंग्रेजों के द्वारा दिया जाने वाला शोषण को देखा था। वे सब अंग्रेजों को अपने देश से भगाना चाहते थे। उन्होंने अपने आदिवासी समाज को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के लिए संगठित करना शुरू कर दिया। उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध गोरिल्ला युद्ध छेड़ दिया। गोदावरी नदी के पास पहाड़ियों में राजू और उनके साथी युद्ध अभ्यास करते और आक्रमण की रणनीति बनाते थे। विद्रोह की ऐसी आग भड़की की अंग्रेजों के होश उड़ गए। इन भोले-भाले आदिवासियों के मन में अपमान, दुःख और क्रोध फूट पड़ा। इन्होंने अंग्रेजी सरकार के ऐसे छक्के छुडाए कि उन्हें आस-पास के राज्यों से सेना बुलानी पड़ी। अंग्रेजों के सेना में बहुत से भारतीय सिपाही भी थे। राजू ने आदिवासियों से कह दिया था कि अंग्रेजों से लड़ो किन्तु एक भी भारतीय सैनिक का बाल-बाँका नहीं होने पाए। राजू के लोगों का समस्त गाँवों का सहारा था। लाख कोशिश करने के बाद भी अंग्रेज उनकी खबर नहीं लगा पाते थे। यह सब देखकर अंग्रेज दाँतों तले उँगली दबा लेते थे। अंग्रेजों को लगा कि अब वे आदिवासियों को हरा नहीं सकेंगे तब उन्हें भूखे रखकर मारने की योजना बनाई गई। अंग्रेजों ने गाँव में राशन लाने के सभी रास्ते बंद कर दिए। अंग्रेज सिपाही गाँव में घुसकर लोगों को मारने-पीटने लगे और फसलों को भी बर्बाद करने लगे।

आदिवासियों की हिम्मत जबाब देने लगी थी। राजू के कुछ साथी को पुलिस ने पकड़ लिया था। लोगों को परेशान देखकर उन्होंने सोचा कि यदि मैं अंग्रेजों के सामने आत्मसमर्पण कर दूँगा तो इन लोगों को अंग्रेज सताना बंद कर देंगे। यह सोचकर राजू ने अपने-आपको उन्हें सौप दिया। गिरफ्तारी की खबर सुनकर गाँव के लोग इक्कठा होने लगे। मेजर गुडॉल मन ही मन बहुत खुश था कि उसका शिकार खुद जाल में फँस गया। राजू ने उसे कानून के अनुसार कचहरी में पेश करने का माँग किया। गुडॉल कोट कचहरी के चक्कर में राजू को जान बचाने का मौक़ा नहीं देना चाहता था। अंत में उसके इशारे पर एक सिपाही ने राजू को गोली मार दी। दो वर्षों तक ब्रिटिस सत्ता की नींद हराम करने वाला यह योद्धा वीर गति को प्राप्त हो गया। आंध्रप्रदेश-वासी इस वीर योद्धा को ‘जंगल का होरो’ कहते हैं।

तिरुपुर कुमारन (Kodi Kaththa Kumaaran) (4 औक्तुबर 1904–11 जनवरी 1932 ई०)

तिरुपुर कुमारन का जन्म तमिलनाडु के चेन्निमलाई में सन् 1904 ई० में हुआ था। जन्म के बाद उनका नाम ‘ओकेएसआर कुमारस्वामी मुदलियार’ (OKSR Kumaraswamy Mudaliar) रखा गया। छोटी उम्र में ही वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। वे क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी थे। स्वतंत्रता के बाद लोग उन्हें प्यार से तिरुपुर कुमारन कहकर बुलाने लगे। इन्होंने ‘देश बंधु युवा संघ’ की स्थापना किया और अंग्रेजों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। 11 जनवरी 1932 ई० को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ उन्होंने एक विरोध मार्च निकाला जिसके दौरान तिरुपुर में नोय्याल नदी के तट पर पुलिस ने लाठी से हमला कर दिया। पुलिस की लाठी खाते हुए नोय्याल नदी के किनारे 27 वर्ष की आयु में भारत माँ का यह सपूत वीर गति को प्राप्त हो गया। मृत्यु के समय कुमारन के हाथ में भारतीय राष्ट्रवादियों का झंडा था। अंतिम समय तक इस वीर क्रांतिकारी ने अपने तिरंगे को झुकने नहीं दिया।

2004 औक्तुबर को उनकी जन्म दिन की 100वीं जयन्ति पर भारतीय डाक के द्वारा एक स्मारक डाक टिकट जारी किया गया।        

सुब्रह्मण्य भारती (महाकवि भारतियार) 11 दिसंबर 1882 – 11 सितंबर 1921

उनका जन्म 11 दिसंबर 1882 को मद्रास प्रेसिडेंसी के ‘एट्टीयपुरम’ गाँव में हुआ था। वे राष्ट्रवाद (1885-1920) के भारतीय लेखक थे। वे संस्कृत हिन्दी, तेलूग, अंग्रेजी और फ्रेंच के अच्छे जानकार थे। उन्हें आधुनिक तमिल शैली का ‘जनक’ माना जाता है। 10-11 वर्ष के आयु के आसपास उन्हें ‘भारती’ की उपाधि से सम्मानित किया गया। कुछ समय के बाद वे वाराणसी अपने बुआ के पास चले गए थे। वाराणसी में आकर उन्हें ‘अध्यात्म’ और ‘राष्ट्रवाद’ से परिचय हुआ था। इसका उनके जीवन पर काफी प्रभाव पड़ा। जिससे उनकी सोच में बदलाव आया। उन्होंने अपने सिक्ख मित्रों से प्रभावित होकर दाढ़ी बढ़ाई और पगड़ी भी बाँधे थे। 

सुब्रह्मण्यम भारती महान कवियों में से एक थे। उन्हें ‘महाकवि भारतियार’ नाम से भी जाना जाता है। भारती एक शिक्षक, देशप्रेमी और महान कवि थे। उनकी देशप्रेम की कविताएँ इतनी श्रेष्ठ हुई कि उन्हें ‘भारती’ नाम से संबोधित किया जाने लगा। सन् 1904 ई० के बाद वे तमिल दैनिक पत्र ‘स्वदेशमित्रन’ से जुड़ गए। उन्होंने अपने क्रांतिकारी विचारों का प्रचार करने के लिए लाल कागज़ पर ‘इंडिया’ नाम का साप्ताहिक समाचार पत्र छापा। यह तमिलनाडु में राजनीतिक कार्टून में प्रकाशित होने वाला पहला पेपर था। उन्होंने ‘विजया’ जैसे कुछ अन्य पत्रिकाओं का भी संपादन किया।

सन् 1905 ई० में उन्होंने बनारस में आयोजित अखिल भारतीय कांग्रेस में भाग लिया। उन्होंने दादाभाई नरौजी के तहत कलकता में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के सत्र में भाग लिया। जिसमे स्वराज और ब्रिटिश सामानों के बहिष्कार की माँग की गई थी। अप्रैल 1906 तक उन्होंने एमपीटी आचार्य के साथ मिलकर ‘तमिल साप्ताहिक भारत’ और अंग्रेजी अखबार ‘बाला भारतम’ का संपादन शुरू कर दिया।

1909 की पत्रिका ‘विजया’ का कवर पेज, पहले मद्रास से बाद में पांडिचेरी से प्रकाशित हुआ था। कवर पेज “भारत माता” के विविध संतानों और “वंदेमातरम्” के नारों के साथ था। उसी वर्ष भारत पत्रिका के मालिक को मद्रास में गिरफ़्तार कर लिया गया। भारती गिरफ्तारी की सम्भावना से पांडिचेरी चले गए जो फ्रांसीसी सरकार के अधीन था। पांडिचेरी से उन्होंने साप्ताहिक पत्रिका इंडिया, विजय, एक तमिल दैनिक, बाला भारतम, एक अंग्रेजी मासिक और सूर्योदय का स्थानीय साप्ताहिक पत्रिका संपादन और प्रकाशन किया। अंग्रेजों ने इसपर रोक लगाने का कोशिश किया। सन् 1909 में ही ‘भारत’ और ‘विजया’ दोनों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था। भारती जैसे ही कुड्डालोर के पास पहुँचे उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। उन्हें तीन सप्ताह तक कुड्डालोर के केंद्रीय जेल में रखा गया था। सी पी रामास्वामी अय्यर और एनी बेसेंट के कहने पर उन्हें रिहा कर दिया गया। 12 सितंबर 1921 की सुबह उनका निधन हो गया। उन्होंने कई क्षेत्रों में अनेक कार्य किये, उनकी रचनाओं ने उन्हें अमर बना दिया।

सन् 2018 में प्रधानमंत्री नरेद्र मोदी जी ने ‘भारती’ जी की एक तमिल कविता ‘एलारुम एलिनेलैई एडुमनल एरिएई’…सुनाते हुए उनकी 100वीं पुण्यतिथि पर श्रधांजलि अर्पित किया। प्रधानमंत्री जी ने बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में भारती के नाम पर एक कुर्सी स्थापित करने की घोषणा की।          

किट्टूर चेन्नमा (रानी चेन्नम्मा) (23 औक्तुबर 1778 – 21 जनवरी 1829 ई०)

रानी चेन्नम्मा का जन्म 23 औक्तुबर 1778 ई० को दक्षिण भारत के कित्तूर (कर्नाटक) के काकतीय राजवंश में हुआ था। उनके माता-पिता ने उनका पालन-पोषण राजकुल के पुत्रों के सामान किया था। उन्हें अनेक भाषओं का ज्ञान था। वे घुड़सवारी के साथ-साथ अस्त्र-शस्त्र और युद्धकला में परांगत थी। स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई के संदर्भ में जो स्थान झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का है, वही स्थान दक्षिण भारत के कर्नाटक में रानी चेन्नम्मा का है। उनहोंने लक्ष्मीबाई से पहले ही अंग्रेजों की सत्ता को सशस्त्र चुनौती दे दिया था। जिससे अंग्रेजों की सेना को उनके सामने दो बार मुँह की खानी पड़ी थी। पंद्रह वर्ष की आयु में ही उन्होंने अपने गाँव वालों की रक्षा के लिए बाघ का शिकार किया था। उनके इस कार्य से प्रभावित होकर कित्तूर राज्य के राजा मल्ल्सर्ज ने चेन्नम्मा से विवाह के लिए उनके पिता के पास प्रस्ताव भेजा और चिन्नम्मा कित्तूर की रानी बन गईं। कुछ समय के बाद रानी चेन्नम्मा ने एक पुत्र को जन्म दिया। उन दिनों ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारतीय राज्यों को हड़पने में लगी हुई थी। इन्हीं षडयंत्रों में से एक षडयंत्र था ‘डाक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ अथार्त जिन राज्यों के राजाओं का अपना पुत्र नहीं होता था उन्हें कंपनी ब्रिटिश साम्राज्य में जबरदस्ती विलय कर लेती थी। कंपनी दत्तक पुत्र को मान्यता नही देती थी। दुर्भाग्य वश सन् 1824 ई० में राजा मल्ल्सर्ज का निधन हो गया। उसके बाद रानी चेन्नम्मा कित्तूर राज्य की बागडोर अपने हाथ में लेकर कुशलपूर्वक राज्य चलाने लगी। अचानक राजकुमार रूद्रसर्ज की तबियत बिगड़ने से निधन हो गया। अंग्रेज ‘डाक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ नीति के अंतर्गत कित्तूर साम्राज्य को हड़पने की योजना बनाने लगे। रानी चेन्नम्मा अंग्रेजों की धूर्ततापूर्ण चाल से परिचित थीं। उन्होंने बड़ी रानी रुद्रम्मा के पुत्र शिवलिंगप्पा को गोद लेकर सिंहासन पर बैठा दिया और खुद साम्राज्य की संरक्षिका के रूप में कार्य करने लगी। लार्ड एलफिंस्टन ने उनके दत्तक पुत्र शिवलिंगप्पा को राजा की मान्यता देने से इनकार कर दिया और रानी चेन्नम्मा को आत्मसमर्पण करके कित्तूर को अंग्रेजी साम्राज्य में विलय करने को कहा। रानी चेन्नम्मा ने लार्ड एलफिंस्टन को संदेश भेजवा दिया कि जबतक हमारे शरीर में रक्त की बूंदे शेष रहेगी तबतक कित्तूर साम्राज्य को अंग्रेजी दासता की बेड़ियों में जकड़ने नहीं दूँगी। राज्य के उत्तराधिकारी का निर्णय राज्य का आतंरिक विषय है। कंपनी हस्तक्षेप नहीं करे तो ही बेहतर है। संदेश भेजवाने के साथ-साथ उन्होंने युद्ध की तैयारियाँ भी शुरू कर दी थी। राज्य के देशभक्त रणबाकुरों के हाथों में उन्होंने सेना की कमान सौंप दिया। 23 जनवरी 1824 ई० को अंग्रेजों की सेनाओं ने कित्तूर के किले के बाहर पड़ाव डाल दिया। अंग्रेजों ने कित्तूर साम्राज्य के दो सेनानायक ‘यल्लप्प शेट्टी’ और ‘वेंकटराव’ को विलय के बाद आधा साम्राज्य देने का लालच देकर अपने साथ मिला लिया। अचानक किले का द्वार खुला और और रानी चेन्नम्मा अंग्रेजी सेना पर टूट पड़ी। रानी का रौद्र रूप देखकर अंग्रेज थर-थर काँपने लगे। बीस हजार से अधिक सिपाहियों और चार सौ से अधिक बंदूकों के बल पर लड़ने आई अंग्रेजी सेना बुरी तरह नष्ट हो गई। इस युद्ध में थैकरे मारा गया और दो अंग्रेज अधिकारी वाल्टर इलियट और स्टीवेंसन को बंधक बना लिया गया। ब्रिटिश आयुक्त चैपलिन और मुंबई के गवर्नर ने भय से रानी चेन्नम्मा से युद्ध विराम का प्रस्ताव रख दिया। कुछ समय के लिए युद्ध शांत हो गया। किन्तु बुरी तरह से हार से अपमानित चैपलिन शांत नहीं बैठा। उसने कंपनी से और सेना बुलाकर पुनः कित्तूर पर हमला कर दिया। बारह दिनों तक लगातार युद्ध चलता रहा। इस बार के युद्ध में रानी के सेनानायक सांगोली रायण्णा और गुरुसिद्दप्पा थे। इस बार फिर रानी के सेना नायको ने अंग्रेजों पर कहर ढाह दिया। सोलापुर में उप कलेक्टर थामस मुनरो और उसके भतीजे को मौत के घाट उतार दिया गया। तब यल्लप्प शेट्टी और वेंकटराव दो देश द्रोहियों ने रानी के साथ छल किया। उन दोनों ने तोपों में इस्तेमाल होनेवाली बारूद के साथ मिट्टी और गोबर मिला दिया। जिससे रानी को हार का सामना करना पड़ा। उन्हें गिरफ्तार कर बेलहोंगल कीले में कैदकर लिया गया। इसके बावजूद भी संगोली रायण्णा कुछ दिनों तक गोरिल्ला युद्ध करते रहे। बाद में अंग्रेजों ने पकड़कर उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया। रानी चेन्नम्मा ने गिरफ्तारी के पाँच वर्ष बाद 21 फरवरी 1829 को बेलहोंगल में अपना प्राण त्याग दिया। रानी चेन्नम्मा की पहली जीत पर 22 से 24 औक्तुबर के बीच कित्तूर उत्सव बड़ी ही धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।

रानी वेलु नचियार (3 जनवरी 1730- 25 दिसंबर 1796 ई०)

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से लोहा लेने वाली तमिलनाडु की वीरांगना रानी वेलु नचियार थी। वह भारत में अंग्रेजी औपनिवेशिक शक्ति के खिलाफ लड़ने वाली पहली वीरांगना थी। उन्हें तमिलनाडु में ‘वीरमंगई’ नाम से भी जाना जाता है। रानी ने ईस्ट इण्डिया कंपनी से अपने राज्य को बाहर निकाला था। रानी की एक बेटी थी जो लड़ाई के दौरान मारी गई थी। माना जाता है कि रानी नचियार ने पहली बार ‘मानव बम’ का प्रयोग किया था, जो अंग्रेजों के खिलाफ था। दस वर्ष तक शासन करने के बाद वह वीर गति को प्राप्त हो गई। प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने रानी वेलु नचियार के जन्म दिन पर उन्हें श्रधांजलि अर्पित किया।

सेनापति कुयिली (दक्षिण भारत की दलित वरांगना)

हमारे इतिहास के योद्धाओं, युद्धवीरों, शासकों की जब भी बात होती है तो पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं के भी वीरता का जिक्र मिलता है। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जंग छेड़नेवाली रानी वेलु नचियार के साथ एक और वीरांगना, उनकी अंगरक्षक, सहेली और सेनापति कुयिली भी थी। कुयिली साहसी, ताकतवर, अस्त्र-शस्त्र और युद्ध कलाओं में पारंगत थी। उसने रानी नचियार की कई बार जान बचाई थी। रानी वेलु नाचियार और कुयिली की करीबी को ब्रिटिश शासक जानते थे। ब्रिटिश शासक चाहते थे कि रानी पर हमला और शिवगंगा की राजधानी पर कब्जा करने में कुयिली उनकी मदद करे। कुयिली टस से मस नहीं हुई। जब अंग्रेजों की सारी कोशिशे नाकाम हो गई तब ब्रिटिश सेनाओं ने शिवगंगा के दलित समुदाय पर हमला कर निहत्ते दलितों को बेरहमी से काटना शुरू कर दिया ताकि उसके समुदाय के लोगों की हालत को देखकर कुयिली अंग्रेजों से हाथ मिला ले। जब रानी को इस बात का पता चला तब उन्होंने कुयिली को महिला पलटन का सेनापति बना दिया, ताकि वह अपने लोगों की रक्षा कर सके। 18वीं सदी में रानी वेलू नचियार ने शिवगंगा के मरुदु पांडियर भाइयों के साथ मिलकर ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध जंग छेड़ दिया। सेना के महिला पलटन की नेतृत्व कुयिली कर रही थी। मकसद था, शिवगंगा के किला को अंग्रेजों से मुक्त कराना। किला हमेशा ब्रिटिश सैनिकों से घिरा रहता था। वर्ष में केवल एक ही दिन बाहरवालों को महल में जाने दिया जाता था। नवरात्रि का आखिरी दिन था। उस दिन महिलाओं को विजयादशमी की पूजा करने के लिए किले के अन्दर देवी राजराजेश्वरी अम्मा के मंदिर में जाने की अनुमति थी। कुयिली ने इस मौके का फायदा उठाने के लिए एक रणनीति बनाई। कुयिली विजयादशमी के दिन अपनी पलटन के साथ शिवगंगा किले के अन्दर फूल लेकर भक्तों के भेष में प्रवेश कर गई। कुयिली अंग्रेजों के उस कमरे में चली गई जहाँ अंग्रेजों के सारे हथियार थे। इसके बाद उसने जो किया उसे आज की भाषा में “सुसाईट बॉम्ब” कहते हैं। कुयिली ने पहले ही अपने शरीर पर तेल और घी डाल लिया था। कमरे में पहुँचते ही उसने हाथ में रखे दीपक से खुद को आग लगा लिया और हथियारों पर कूद पड़ी। हथियारों के साथ वह भी जलकर भष्म हो गई। भारतीय इतिहास में पहली बार किसी ने दुश्मनों से हमले का यह तरीका अपनाया था। इस तरह शिवगंगा किले पर कुयिली के द्वारा जित हुई। 1913 ई० में तमिलनाडु सरकार ने उसकी स्मृति को समर्पित एक स्मारक बनवाया।

रानी अब्बक्का चौटा (1525 – 1570 ई०)

इतिहास के अनुसार इन्होंने 16वीं शदी में पुर्तगालियों के साथ चतुर रणनीति बनाकर उन्हें युद्ध में पराजय किया। पुर्तगालियों ने गोवा पर आक्रमण कर अपना अधिपत्य जमा लिया था। पुर्तगाली हिन्दुओं पर अत्याचार किया करते थे। उसके बाद पुर्तगालियों ने मंगलौर यानी उल्लाल पर कब्जा कर मंगलौर बंदरगाह को नष्ट कर दिया। रानी इसे बर्दास्त नहीं कर सकी और उन्हें युद्ध में हरा दिया। रानी अब्बक्का को उनकी बहादुरी के लिए ‘अभय रानी’ के नाम से जाना जाने लगा। रानी की कहानी को लोक गीतों और तटीय कर्नाटक के एक लोकप्रिय लोक रंगमंच ‘यक्षगान’ के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी दोहराया जाता है।

उपर्युक्त लिखे गए दक्षिण भारत के स्वतंत्रता सेनानियों को अगर गिना जाए तो पन्नों की कमी पड़ जाएगी। ये सभी स्वतंत्रत सेनानी अपने आप में एक-एक ऐतिहासिक उपन्यास के बराबर हैं। जिन स्वतंत्रता सेनानियों के प्रयत्नों, त्याग और बलिदान से हमें स्वतंत्रता मिला उनमें बहुतों को उचित सम्मान नहीं मिला। अनेकों स्वतंत्रता सेनानियों को स्वतंत्रता के बाद उन्हें अपमानजनक और  गुमनामी का जीवन जीना पड़ा।

मार्तंड वर्मा, सुब्रह्मण्य शिव, सांगोली रायण्णा, आदि ऐसे कई स्वतंत्रता सेनानी है, जिन्हें इतिहास के पन्नों में स्थान नहीं मिला। किसी ने सच कहा है –

उनकी समाधि पर नहीं जलते है एक भी दीया,

जिनके खूँ से जलते हैं ये चिरागे वतन।

जगमगा रहे हैं ये समाधियाँ उनकी,

जो बेचा करते थे, शहीदों के कफ़न।।

दुर्भाग्य वश अपने ही देश और इतिहास में कई वीर सपूत गुमनाम रह गये। भारत के इन वीर सपूतों को हमारा शत्-शत् नमन है।

संदर्भ ग्रंथ

https://hi.m.wikipedia.org

https://hindi.thequint.com

https://www.jagran.com

https://indianculture.gov.in

https://www.historicnation.in

कीवर्ड (keywords)

आहुति- बलिदान, हवन 

दत्तक पुत्र- गोद लिया हुआ पुत्र

पारंपरिक- परंपरा से चला आया हो  

अभय – भय रहित, साहसी, निडर

अधिपत्य – किसी पर बलपूर्वक स्वामित्व करना

पलटन – सैनिकों या दल का समूह 

औपनिवेशिक – उससे संबंध रखने वाला   

विलय – किसी वस्तु आदि का दूसरी वस्तु में मिल जाना   

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