देवनागरी लिपि को रोमन लिपि से मिलती चुनौतियाँ

जिस तरह साहित्य ‘समाज का दर्पण’ है। उसी तरह लिपि ‘वाणी का दर्पण’ है। लिपि से ही वाणी का प्रतिबिंब, लेखन के रूप में दिखाई देता है। हमारी हिंदी भाषा और लिपि देवनागरी, सिर्फ एक भाषा और लिपि नहीं है, ये भारतवासियों की सभ्यता और संस्कृति की अमूल्य धरोहर भी है।

आज एक बार देवनागरी वनाम रोमन लिपि चर्चा का विषय बना हुआ है। इसका मुख्य कारण है, युवाओं में रोमन लिपि का बढ़ता हुआ चलन। कॉलेज के विद्यार्थियों तथा  कॉर्पोरेट सेक्टर में नौकरी करने वालों युवाओं में रोमन लेखन की प्रवृत्ति ज्यादा दिखाई पड़ रही है। यह भविष्य के लिए अच्छी बात नहीं है। कुछ युवा तो यह कहने में गर्व महसूस करते हैं कि ‘मुझे हिंदी नहीं आती है’। इस मानिसकता से बाहर आकर उन्हें सिर्फ अन्य भाषाओँ का प्रयोग रोजगार के लिए करना होगा। यदि लिपि रूपी नींव खिसक गई तो भाषा की इमारत को ढहते देर नहीं लगेगी। देवनागरी के सामने उत्पन्न चुनौतियाँ गंभीर है और जटिल भी। सच तो यह है कि ‘भाषा’ और ‘लिपि’ नकारात्मक परिवर्तन के कारण जीवित नहीं बच सकती है।

हमारी भाषा और लिपि तो उस दिन ही खतरे में पड़ गई थी जिस दिन संविधान में उसे उचित स्थान नहीं मिला। दृढ़ इक्षाशक्ति और आत्म विश्वास में कमी के कारण राजनितिक उलझनों में फंसकर राजभाषा और राष्ट्रभाषा आज भी छटपटा रही है।  

संविधान में राजभाषा से संबंधित अनुसूचियाँ एवं अनुच्छेद:

अनुच्छेद 120 (भाग – V)

इसमें संसद में बोली जाने वाली भाषा के लिए प्रमुख तीन प्रावधान है-

(i). संसद का प्रत्येक सदस्य संसद की बैठकों के दौरान हिंदी में अपनी विचार प्रस्तुत करेगा।

(ii). आगामी पंद्रह वर्षों तक (1965 ई.) अंग्रेजी बोलने की छूट रहेगी।

(iii). अगर लोक सभा अध्यक्ष या राज्य सभा का सभापति चाहे तो किसी सदस्य को मातृभाषा में विचार करने की अनुमति दे सकता है।   

अनुच्छेद 210 (भाग – VI)

यह राज्य विधान मंडलों में बोली जाने वाली भाषा से संबंधित है।

(i). विधान मंडल का प्रत्येक सदस्य हिंदी में अपनी विचार प्रस्तुत करेगा।

(ii). आगामी पंद्रह वर्षों तक अंग्रेजी बोलने की छूट रहेगी।

(iii). विधान सभा का अध्यक्ष या विधान परिषद् का सभापति चाहे तो मातृभाषा में बोलने की छूट या अनुमति दे सकता है।

दोनों अनुच्छेद के दूसरे नंबर में, संसद में बोली जाने वाली भाषा के प्रावधान में लिखा है-

“आगामी 15 वर्षों तक 1965 ई. तक अंग्रेजी बोलने की छूट रहेगी।”

15 वर्षों तक अंग्रेजी बोलने की यह छूट ही हमारी हिन्दी के गले की हड्डी बन गई जिसकी पीड़ा से ‘हिन्दी’ आज भी कराह रही है। तब से ही हमारी हिन्दी भाषा और देवनागरी लिपि पर रोमन लिपि का ग्रहण लगना शुरू हो गया था। धीरे-धीरे लोग रोमन लिपि में लिखने के अभ्यस्त होते जा रहे हैं। मोबाइल के द्वारा संदेश भेजना हो या सोसल मीडिया पर कुछ भी लिखना हो तो भाषा चयन को उलझन समझकर फटाफट रोमन में ही लिखकर भेज देते हैं। भले ही दूसरा समझे या नहीं समझे। कुछ लोगों का तो यह भी कहना है कि हिंदी को रोमन लिपि में लिखने से परहेज नहीं करना चाहिए, बल्कि हमें उसका स्वागत करना चाहिए। उनका तर्क था कि मोबाइल, कंप्यूटर, इंटरनेट आदि के सहारे हिन्दी लिखने में आसान होती है। इसलिए हमें समय और जरुरत के अनुसार किसी पर जोर नहीं करना चाहिए। एक दिन मैंने ‘व्हाट्सऐप’ पर मैसेज डालकर अपने परिचित एक आदमी से पूछा कि  ‘आपने मेरा काम कर दिया’? तो उनका जबाब आया ‘My ankal dide we let of sory’ इसका अर्थ मैं आज तक समझ नहीं पाया और यह मात्र एक उदाहरण है। इसतरह की घटनाएं बहुत मिलेंगी।

हिंदी को रोमन लिपि में लिखने की प्रवृति में चेतन भगत जैसे कुछ भारतीय, अंग्रेजी लेखक रोमन लिपि को ही मानक मानने की सलाह देने लगे हैं। रोमन लिपि न तो उच्चारण की दृष्टि से मानक है और न ही एकरूपता के लिहाज से, जबकि देवनागरी लिपि जैसे बोली जाती है वैसे ही लिखी जाती है। एक समय ऐसा भी था जब महात्मा गांधी, बालगंगाधर तिलक, विनोबा भावे जैसे महान नेताओं और स्वतंत्रता सेनानियों ने राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी और देवनागरी लिपि को स्थापित करने के लिए प्रयास किया। शहीदे आजम भगत सिंह ने भी अपनी मातृभाषा पंजाबी के लिए गुरुमुखी के बजाए वैज्ञानिकता के चलते देवनागरी लिपि को अपनाने की बात कही थी। उनका प्रयास था कि देश के जिन हिस्सों में देवनागरी लिपि प्रचलित नहीं हुई है वहाँ भी उसे पहुँचाई जाए। इसके लिए अनेक साहित्यिक संस्थाएँ कार्यरत हैं। आज स्थिति ऐसी हो गई है कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भी देवनागरी की जगह रोमन लिपि लेते जा रही है। पहले जहाँ हर क्षेत्रों में देवनागरी लिपि को पहुँचाने का कार्य किया जा रहा था अब वहाँ देवनागरी लिपि को रोमन लिपि से बचाने की जरूरत आ गई है। हम यह कह सकते हैं कि इस समय देवनागरी लिपि के अस्तित्व को रोमन लिपि से खतरा बढ़ती ही जा रही है। हालात दिन पर दिन ऐसे बनते जा रहे हैं कि हिन्दी भाषा क्षेत्र के बच्चे भी देवनागरी लिपि को लिखने-पढ़ने में कठिनाई महसूस करने लगे हैं। उनके लिए देवनागरी में लिखना मुश्किल होता जा रहा है। आजादी के पहले भी कुछ लोग रोमन लिपि की वकालत कर रहे थे लेकिन उस समय राष्ट्रवाद का ज्वार तेज था जिसके फलस्वरूप ये अलग-थलग पड़ गए। अब रोमन की सोंच से बाहर निकलकर देवनागरी को आगे बढ़ाने का कार्य करना होगा।

देवनागरी लिपि इस देश की सबसे उपयुक्त और वैज्ञानिक लिपि है। रोमन लिपि अंग्रेजी भाषा को ही ठीक से व्यक्त नहीं कर पाती है। वह एक अत्यंत अराजक लिपि है। अंग्रेजी के महान लेखक जार्ज बर्नार्ड शा इस लिपि को किसी लायक नहीं समझते थे। उन्होंने अपनी वसीयत में एक अच्छी खासी रकम इस लिपि की जगह किसी नई लिपि के विकास के लिए रखी थी। रोमन लिपि न तो उच्चारण की दृष्टि से मानक है और न ही एकरूपता के लिहाज से। but और put की उच्चारण में जो विषमताएं हैं वह हिन्दी और देवनागरी में कहीं नहीं मिलेगी। इस गुण को समझते हुए नई पीढ़ी में इसके प्रति सम्मान और विश्वास जगाना होगा।

लिपि की परिभाषा-  

“लिखित भाषा में ध्वनियों को जिन चिह्नों द्वारा लिखा जाता है वे वर्ण कहलाते हैं, वर्णों की बनावट को ही लिपि कहते हैं।” – कामताप्रसाद गुरु

सर्वप्रथम- चित्रलिपि – प्रतीक लिपि – भाव लिपि – ध्वनि लिपि

ध्वनि लिपि से दो लिपियाँ निकली –

अक्षरात्मक लिपि- भारत की सभी लिपियाँ अक्षरात्मक हैं।   

वर्णात्मक लिपि- इससे रोमन लिपि का विकाश हुआ।

प्राचीन भारत की लिपियाँ –

(i) सिंधु घाटी लिपि (ii) खरोष्ठी लिपि (iii) ब्राह्मी लिपि  

देवनागरी लिपि का विकास भारत की प्राचीन लिपि ब्राह्मी से माना जाता है।

ब्राह्मी लिपि (500 ई. पूर्व.)

ब्राह्मी लिपि की दो शाखाएँ थी।

  1. उत्तरी ब्राह्मी (350 ई.पूर्व) 2. दक्षिणी ब्राह्मी।

उत्तरी ब्राह्मी से

गुप्त लिपि (4/5 शताब्दी) के आसपास

सिद्ध मातृका लिपि (6 शताब्दी) के आसपास

कुटिल लिपि (7 वीं शताब्दी) के आसपास

कुटिल लिपि से, दो लिपियों का विकास हुआ

1. नागरी लिपि (9 वीं शताब्दी)

2. शारदा लिपि (10 वीं शताब्दी)

नागरी लिपि से दो लिपियों का विकास हुआ –

  1. उत्तरी नागरी लिपि
  2. पश्चिमि नागरी लिपि  

पश्चिमि नागरी से (10/11वीं शताब्दी के लगभग) देवनागरी लिपि का विकास माना जाता है। देवनागरी नाम को लेकर भी विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ इसे नागर अपभ्रंश से जोड़ते हैं और कुछ इसको प्राचीन दक्षिणी नाम नंदिनागरी से भी जोड़ते हैं। यह भी संभव है कि नागर जन द्वारा प्रयुक्त होने के कारण इसका नाम नागरी पड़ा और देवभाषा यानी संस्कृत के लिए अपनाई जाने के कारण इसे देवनागरी कहा जाने लगा हो, लेकिन इस विषय में कोई निश्चित प्रमाण नहीं है।

देवनागरी लिपि का नामकरण से संबंधित अनेक मान्यताएँ प्रचलित हैं-  

  • इस लिपि का प्रयोग नगरों (शहरों) में किया जाता था। अतः यह देवनागरी कहलाई।
  • गुजरात में नागर ब्राह्मणों द्वारा प्रयुक्त होने के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा।
  • प्राचीन समय में ‘काशी’ को देवनगर कहा जाता था। वहाँ की लिपि होने के कारण इसका नाम देवनागरी पड़ा।
  • प्राचीन काल में पाटलिपुत्र को ‘नागर’ एवं वहाँ के राजा को ‘देव’ कहा जाता था। वहाँ की लिपि होने के कारण इसका नाम देवनागरी लिपि पड़ा।
  • बौद्ध ग्रंथ (महायानी शाखा) ‘ललित विस्तर’ में ‘देव’ एवं ‘नाग’ दो लिपियों का उल्लेख मिलता है। उसका मिला जुला रूप होने के कारण इसका नाम देवनागरी हुआ।
  • आर श्याम शास्त्री की मान्यता है कि “देवताओं की प्रतिमाओं में बने चिह्नों के सामान वर्णों वाली होने के कारण इसे देवनागरी लिपि कहते हैं।
  • डॉ. धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार- “मध्य युग में स्थापत्य-शैली का नाम ‘नागर’ था, जिसमे चौकोर आकृतियाँ होती थीं। नागरी लिपि के अधिकांश अक्षर चौकोर होते है इसी  आधार यह लिपि-नागरी कहलाई।”
  • डॉ. उदयनारायण तिवारी के अनुसार इस लिपि को देवभाषा-संस्कृत में लिखने के लिए प्रयोग किया गया इसलिए इसका नाम देवनागरी पड़ा।

देवनागरी नागरी लिपि का सर्वप्रथम प्रयोग गुजरात के राजा जयभट्ट ने (700-800) में एक शिलालेख में किया था।

डॉ. त्रिलोकी सिंह के अनुसार आठवीं शताब्दी के राष्ट्रकूट नरेशों के राज्य में इस लिपि का प्रयोग किया जाता था। दक्षिण के विजयनगर व कोंकण में भी इस लिपि का प्रचार रहा।       

देवनागरी लिपि संसार की सबसे अधिक वैज्ञानिक लिपि मानी जाती है। इसमें संसार की लगभग सभी भाषाओं की ध्वनियों को उच्चारित करने की क्षमता है। अंग्रेजी में देवनागरी लिपि की तरह कोई उपयुक्त ध्वनि नहीं है। इस लिपि की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके ध्वनि तथा वर्ण में सामंजस्य है अथार्त जो बोला जाता है वही लिखा जाता है और जो लिखा जाता है वही बोला जाता है। लिखने और बोलने में समानता के कारण इसे सीखना सरल है। संसार की अबतक अन्य किसी भी लिपि में यह गुण नहीं मिलता है। अंग्रेजी में तो बिल्कुल ही नहीं।

देवनागरी लिपि में प्रत्येक वर्ण की ध्वनि निश्चित होती है। वर्णों की ध्वनियों में वस्तुनिष्ठता है व्यक्तिनिष्ठता नहीं। अंग्रेजी शब्दों के उच्चारण हर व्यक्ति अपने तरीके से करता है। इसमें एक ध्वनि के लिए एक ही संकेत चिह्न का प्रयोग होता है। एक शब्द या वर्ण में दूसरे शब्द अथवा वर्ण का कोई भ्रम नहीं रहता है। एक ध्वनि के लिए एक ही वर्ण का संकेत होता है, जो ध्वनि का वर्ण है वही वर्ण का नाम भी है। इसमें असंदिग्धता नहीं होती है। सभी ध्वनियों का उच्चारण होता है। यह देखने में सुंदर है तथा स्थान कम घेरती है। अंग्रेजी के रोमन लिपि में ये गुण नहीं पाए जाते हैं।

देवनागरी लिपि में प्रत्येक वर्ण का उच्चारण होता है जबकि संसार की कुछ लिपियों में वर्ण का लेखन तो होता है पर उच्चारण नहीं किया जाता है। जैसे- ‘Knife’ में ‘K’ का उच्चारण नहीं होता है। देवनागरी लिपि में एक ध्वनि के लिए एक ही चिह्न का प्रयोग होता है, जबकि रोमन लिपि में ‘क’ ध्वनि के लिए C, K, Q तीनों का प्रयोग होता है।

देवनागरी लिपि में रोमन लिपि की तरह Capital-Small वर्णों के रूप अलग-अलग नहीं होते हैं। इसमें संयुक्त व्यंजन लिखने की सरल पद्धति है। यह लिपि कम स्थान घेरती है, जैसे देवनागरी में ‘कमलेश्वर’ की अपेक्षा रोमन लिपि में ‘Kamleshwarar’ अधिक स्थान घेरता है।

देवनागरी लिपि का प्रयोग क्षेत्र बहुत बड़ा है। यह संस्कृत, मराठी, नेपाली की एक मात्र लिपि है। इस आधार पर इसका प्रयोग क्षेत्र विस्तृत है। देवनागरी लिपि को मजबूत बनाने के लिए कई तरह से लिपि में सुधार किये गए- बालगंगाधर तिलक के द्वारा तिलक फौंट इससे इस लिपि को मजबूती मिली सावरकर भाइयों ने ‘अ’ की बारह खड़ी को इसमें जोड़ा। श्यामसुंदर दास के सुझाव से पंचमाक्षर के बदले अनुस्वार का प्रयोग किया जाना चाहिए। श्रीनिवास का महाप्राण वर्ण के लिए अल्पप्राण के नीचे ऽ चिह्न लगाने का सुझाव भी स्वीकार्य है। इस प्रकार कुछ नये वर्णों को देवनागरी लिपि में जोड़ा गया और कुछ वर्णों को निकाला गया। अर्थात देवनागरी लिपी नई और सकारात्मक परिवर्तन को स्वीकार करने में सक्षम है।    

चीनियों की लिपि संसार की सबसे प्राचीनतम लिपियों में से एक है। यह चित्र लिपि का ही रूपांतरण है। इस लिपि में अक्षरों के स्थान पर हजारों चीनी भाव चित्रों का प्रयोग किया जाता है। इसमें मानव के मस्तिष्क विकास की कहानी है- मनुष्य ने वस्तुओं को देखकर उनके आधार पर अपने मनोभावों को व्यक्त करने के लिए एक विभिन्न चित्र लिपि ढूंढ निकाली थी। चीनी एकाक्षर प्रधान भाषा मानी जाती है। इसमें एक-एक शब्द या भाव के लिए अलग-अलग सांकेतिक आकृतियाँ बनाई जाती है। इसमें वर्णमाला का अभाव है। इस भाषा के प्रत्येक शब्द या भाव के लिए लिखा जाने वाला वर्ण या अक्षर अपने आप में पूर्ण होता है। यह लिपि सबसे जटिल लिपि है लेकिन चीनियों ने न तो अपनी भाषा बदली और ना ही लिपि बदलने की जरुरत महसूस किया। सिर्फ अपने कारोबार को बढ़ावा देने के लिए चीनी लोग अंग्रेजी सीखते और बोलते हैं। वे अंग्रेजी सीखकर गौरवान्वित नहीं होते।

हम यह नहीं कहते हैं कि किसी भी भाषा या लिपि को नहीं सीखना चाहिए। बल्कि हमें अनेक भाषाओँ और लिपियों का ज्ञान होनी चाहिए। भाषा के द्वारा ही हमें विभिन्न प्रकार के संस्कार और संस्कृतियों का ज्ञान प्राप्त होता है। हमारे देश के पूर्व प्रधानमंत्री पी.वि. नरसिम्भा राव सत्रह भाषाओँ के ज्ञाता थे। इतनी भाषाएँ शायद हमारे देश का कोई भी प्रधान मंत्री नहीं जानता होगा। उन्हें ‘स्पैनिश’ और ‘फ्रांसीसी’ भाषा की भी जानकारी थी। इसके बावजूद भी उन्होंने अपनी मातृभाषा और देश भाषा को नहीं छोड़ा था। भारत के विख्यात वैज्ञानिक जो हिंदी में वैज्ञानिक उपन्यास लिखकर चर्चित हुए डॉक्टर जयंत नार्लिकर से किसी ने पूछा- वैज्ञानिक लेखन करते समय जब आपको मौलिक चिंतन की आवश्यकता पड़ी तब आपने अंग्रेजी भाषा में सोचा? उन्होंने कहा- ‘यह संभव ही नहीं था।’ उस समय मातृभाषा के अतिरिक्त किसी की भाषा ने मेरी मदद नहीं की और न ही कर सकती थी।

फ़्रांस के पूर्व राष्ट्रपति फ्रेंकोई मितरां से जब पूछा गया कि आप अपने देश में फ्रेंच भाषा को अंग्रेजी से अधिक महत्व क्यों देते हैं? राष्ट्रपति फ्रेंकोई मितरां ने तुरंत कहा – क्योंकि हमें अपने सपनों को साकार करना है। जब हम सपने अपनी भाषा में देखते हैं तो उन्हें पूरा करने के लिए हम जो भी काम करेंगे उसके लिए हमें अपनी ही भाषा का प्रयोग करना होगा, पराई भाषा का नहीं।

आधुनिक हिन्दी के पितामह भारतेंदु ने कहा है-

“निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल।।”

“अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीण।

पै निज भाषा-ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन।।”

किसी भी भाषा की सुन्दरता उसके शब्दों के साथ-साथ उसकी लिपि में निहित होती है। इसके विपरीत अगर अंग्रेजी या किसी अन्य भाषा को देवनागरी में लिखा जाए तो कैसा रहेगा? हिंदी तो पहले से ही बहुत समावेशी भाषा रही है। इसमें अन्य कई भाषाओँ के शब्द मिलते हैं। इसमें तत्सम शब्दों के अलावा अरबी, फ़ारसी, उर्दू, देशज, विदेशज आदि अन्य भाषाओँ के शब्द समाहित हैं। हमें हिंदी पढ़ना है तो देवनागरी सीखना ही होगा, देवनागरी में ही पढ़ना-लिखना होगा। अगर हम देवनागरी में पढ़ना लिखना नहीं चाहते हैं तो यह हमारा दुर्भाग्य होगा, हिंदी का नहीं। हिंदी अपने आप में गौरवशाली है और रहेगी।

संदर्भ ग्रंथ:

  1. कामता प्रसाद गुरु Kaamta prasaad guru
  2. http:/matrubhasha.com/?=15571
  3. bhashasankalp.weebly.com
  4. https://hi.m.wikipedia.org
  5. भाषा विज्ञान के सामान्य सिद्धांत एवं हिन्दी भाषा का इतिहास M.A Hindi syllabus.

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