1. कृपाराम- (16 वीं शताब्दी) हिन्दी काव्यशास्त्र के प्रथम काव्यशास्त्री थे।
रचना: हित-तरंगिणी (हित-तरंगिणी को रीतिकाल का भी प्रथम रचना माना जाता है।)
रचनाकाल: (1541 ई०), इस रचना में 5 तरंग (अध्याय को तरंग कहा गया है)
- इसमें 400 सौ छंद है।
- यह नायिका भेद से संबंधित रचना है।
2. केशवदास- (रीतिबद्ध कवि)
मूलनाम: वेदांती मिश्र है।
जन्म: (1555 ई०) ओरछा बुंदेलखंड में हुआ था।
निधन: 1617 ई० में हुआ।
- केशवदास ‘ओरछा’ नरेश राव इन्द्रजीत के गुरु और आश्रित कवि थे।
- केशवदास हिन्दी के प्रथम काव्यशास्त्री आचार्य माने जाते हैं।
- इन्हें रीतिकाल का प्रवर्तक माना जाता है।
- डॉ नगेन्द्र, गणपतिचं गुप्त, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने माना है। (सर्वमान्य मत है।)
- इन्हें हिन्दी का प्रथम ‘सर्वांगनिरुपंग’ आचार्य भी माना जाता है।
केशवदास के महत्वपूर्ण रचनाएँ:
रचनाकार: केशवदास
रचना: रसिकप्रिया (1591 ई० प्रथम रचना) है।
- इस रचना में 16 अध्याय हैं, जिन्हें ‘प्रकाश’ कहा गया है।
- इसमें मुख्यतः ‘रस’ एवं ‘नायिका’ भेद का चित्रण है।
- श्रृंगार रस का ‘रस राजत्व’ इस रचना में सिद्ध किया गया है ।
रचनाकार: केशवदास
रचना: कविप्रिया (1601 ई०),
- यह हिन्दी की प्रथम ‘काव्यशास्त्रीय’ रचना है।
- इसकी रचना केशवदास ने राव इन्द्रजीत की राजनर्तकी ‘रायप्रवीण’ को काव्य की शिक्षा देने के के लिए किया था।
- इसमें 16 अध्याय है, जिन्हें ‘प्रभाव’ कहा गया है।
- इसमें मुख्यतः अलंकारों की विवेचना की गई है।
- इसमें अलंकारों को मुख्यतः दो भागों में बाँटा गया है-
‘सामान्य अलंकार’ और ‘विशिष्ट अलंकार’।
- इसमें कूल 37 अलंकारों की विवेचना है।
- ‘उपमा’ अलंकार के 22 भेदों की विवेचना है।
- इसमें 22 काव्य दोषों की भी विवेचना है।
- इसकी रचना मुख्यतः दण्डी के ‘काव्यादर्श’ व केशवमिश्र के ‘अलंकार शेखर’ के आधार पर हुई है।
कविप्रिया की प्रसिद्ध पंक्तियाँ:
“जदपि सुजाति सुलच्छनी, सरस सुवर्ण सुवृत।
भूषण बिनु न बिराजई, कविता वनिता मित्त।।”
“छंद वियोगी पंगु सुन, नगन जो भूषण हीन।
मृतक कहावै अर्थ बिनु, केशव सुनहु प्रवीण।।”
“ताते रूचि सों सोचि कै, कीजै सरस कवित्त।”
“मातु! कहाँ नृपतात’? ‘गए सुरलोकहिं क्यों ?
सुत शोक लिए।”
रचनाकार: केशवदास
रचना: ‘नखशिख’ (रचनाकाल अज्ञात)
- इसमें परम्परागत उपमानों की सहायता से राधा का नखशिख वर्णन है।
रचना: ‘छंदमाला’ (रचनाकाल अज्ञात)
इस रचना के दो भाग है।
- प्रथम भाग- इसमें 77 वार्णिक छंदों की विवेचना है।
- दूसरा भाग- इसमें 26 मात्रिक छंदों की विवेचना है।
रचना: ‘रामचन्द्रिका’ (1601 ई०)
- यह रचना राम के जीवन पर आधारित ‘प्रबंधात्मक’ महाकाव्य है।
- इसमें 39 सर्ग है, जिन्हें ‘प्रकाश’ गया है। इसकी भाषा ब्रज है।
- तुलसीदास के द्वारा ‘प्राकृत कवि’ कहें जाने पर एक रात में इसकी रचना की गई (यह किवदंती है)
- इसी ‘रामचंद्रिका’ के आधार पर ‘गुमान कवि’ ने ‘कृष्ण चन्द्रिका’ की रचना की (यह भी किवदंती है)
- इस रचना में 58 तरह के छंदों का प्रयोग है।
- इसी कारण रामस्वरूप चतुर्वेदी ने इसे छंदों का अजायबघर कहा है।
- इसमें नाटकीय या संवाद योजना अद्वितीय है।
रचनाकार: केशवदास, भाषा: डिंगल है।
रचना: वीरसिंह देव चरित (1607 ई०)
- यह वीररस से संबंधित रचना है।
- इसमें 53 छंद है।
- इसमें राव इन्द्रजीत सिंह के बड़े भाई वीर सिंह की वीरता का चित्रण है।
- यह रचना छप्पय छंद में रचित है
रचनाकार: केशवदास
रचना: जहाँगीर जस चन्द्रिका (1612 ई०)
- इसमें जहाँगीर के प्रशस्ति का चित्रण है।
रचनाकार: केशवदास
रचना: विज्ञान गीता (1610 ई०)
- यह संस्कृत के कृष्णकवि द्वारा रचित ‘प्रबोध चन्द्रोदय’ पर आधारित अध्यात्मक प्रधान रचना है।
केशवदास के विषय में विशेष तथ्य:
डॉ गंपतिचंद्र गुप्त के शब्दों में- “केशवदास हिन्दी के प्रथम सर्वांगनिरूपण आचार्य है हिन्दी में काव्यशास्त्रीय वें रीतिग्रंथों की अखंड परंपरा इन्हीं से आरम्भ होती है।”
आचार्य हजारीप्रसाद दीवेदी के शब्दों में- “केशवदास हिन्दी के प्रथम अलंकारवादी आचार्य है।”
डॉ बच्चन के शब्दों में- “केशवदास संस्कृत के क्लासिक पंडित थे।”
डॉ विजयपाल सिंह के शब्दों में- “केशवदास कोर्ट कर कवि है”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में- ‘दैन न चाहे कविता को विदाई, पूछे कविता की कविताई।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में- “केशवदास केवल उक्ति-वैचित्रिय और शब्द क्रीडा के कवि थे। जीवन के गंभीर और मार्मिक पक्षों पर उनकी दृष्टि नहीं थी।………..वे हृदयहीन कवि थे।”
केशवदास की प्रसिद्ध पंक्तियाँ:
“भाषा बोली न जानहिं, जिनके किल के दास।
तिन भाषा कविता करी जड़मति केशवदास।।”
“केशव कसनी असि करी, बैरिहु जस न कराहिं।
चन्द्र वदनी मृग लोचनी, बाबा कहिके जाहि।।”
“चरण धरत चिंता करत, नींद न भावत सौर।
सुबरन को सोधत फिरत, कवि कामी अरु चौर।।”
- इन्होने ‘विवाद’ और ‘अधि’ नामक नए संचारी भावों की कल्पना की है।
- डॉ नगेन्द्र, विश्वनाथ प्रताप मिश्र एवं गणपतिचंद्र गुप्त ने इन्हें रीतिकाल का प्रवर्तक माना है। (यहा सर्वमान्य है)
3. चिंतामणि त्रिपाठी (रीतिबद्ध कवि)
मूलनाम: मणिपाल
जन्म: (1600 ई लगभग माना जाता है) तिकवापुर गाँव, कानपुर (उ.प्र)
निधन: (1680 ई०) माना जाता है।
पिता: रत्नाकर त्रिपाठी
रचना: रसविलास
- यह रस से संबंधित ग्रंथ है।
- इसकी रचना भानु दत्त की ‘रसमंजरी’ धनंजय के ‘दशरूपक’ और विश्वनाथ के ‘साहित्य दर्पण’ आधार पर हुई है।
रचनाकार: चिंतामणि
रचना: ‘श्रृंगार मंजरी’ (अनुदित रचना है)
- यह नायिका भेद से संबंधित रचना है।
- आंध्रप्रदेश के अकबर संत द्वारा संस्कृत में रचित श्रृंगार मंजरी का ब्रजभाषा पद्य में अनुवाद किया है।
रचनाकार: चिंतामणि
रचना: ‘छंद विचार पिंगल’
- यह रचना नागपुर के मकरंद शाह भोसला के आश्रय में रचित है।
- इस रचना में ‘प्राकृत पैंगलम्’ तथा भट्ट केदार के वृत्त रत्नाकर के आधार पर कृष्ण चरित्र है। इसमें छंदों की विवेचना मिलती है।
रचनाकार: चिंतामणि
रचना: ‘कविकुल कल्पतरु’(1650 ई०)
- यह रचना मम्मट के ‘काव्य प्रकाश’ विद्दानाथ के ‘प्रताप रूद्र’ ‘यशोभूषण’, अकबर शाह की श्रृंगार मंजरी, भानुदत्त के रस तरंगिणी और रस मंजरी पर आधारित रचना है।
- इसमें काव्य के सभी दस अंगों की विवेचना है।
रचनाकार: चिंतामणि
रचना: ‘काव्यप्रकाश’
- इसमें अलंकार की विवेचना है।
रचनाकार: चिंतामण
रचना: ‘कवित विचार’
- इसमें काव्य लक्षण हेतु एवं प्रयोजन की विवेचना है।
चिंतामणि के विषय में विशेष तथ्य:
चिंतामणि ने काव्य के सभी अंगों पर ग्रंथ लिखें हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में- “इनकी भाषा ललित और सानुप्रास होती थी।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में- “चिंतामणि में रीतिग्रंथों की परंपरा चिंतामणि त्रिपाठी सही चली। अतः रीतिकाल का आरम्भ उन्हीं से मानना चाहिए।”
आचार्य हजारीप्रसाद दिवेदी के शब्दों में- “चिंतामणि का उदाहरणों में सच्चे कवि हृदय की झलक है। कभी-कभी तो सरसता में वे अपने छोटे भाई मतिराम से होड़ करते हैं।”
चिंतामणि के महत्वपूर्ण काव्य शास्त्रीय कथन:
“सगुण अलंकारण सहित दोष रहित जो होई।
शब्द अर्थ वारौ कवित्त बिबुध कहत सब कोई।।”
“बत कहाऊ रस में जु है कवित्त कहावै साईं”
जो संयोग श्रृंगार में सुखद दवावै चित्त
सो माधुर्य बखानिये यही तत्व कवित्त”
4. भिखारीदास: (रीतिबद्ध कवि)
> जन्म और निधन (अज्ञात)
समय: (1725 से 1760 ई०) माना जाता है।
जन्म: प्रतापगढ़ (उ०प्र०)
- मिश्रबंधुओं ने इन्हें ‘उत्तरालंकृत’ काल का सबसे बड़ा कवि माना है।
भिखारीदास के महत्वपूर्ण रचनाएँ:
रचनाकार: भिखारीदास
रचना: ‘रस सारांश’ (1742 ई०) रस से संबंधित रचना है।
- इसमें रसों की विवेचना है।
रचनाकार: भिखारीदास
रचना: ‘काव्य निर्णय’ (1746 ई०)
- यह प्रतापगढ़ के राजा पृथ्वीराज के भाई हिन्दुपति सिंह के आश्रय में रचित है।
- इसमें चार अध्याय हैं, जिन्हें ‘उल्लास’ कहा गया है।
- काव्य लक्षण हेतु, प्रयोजन की विवेचना है।
रचनाकार: भिखारीदास
रचना: ‘छान्दोर्णव पिंगल’ (1742 ई०)
- यह रचना छंद शास्त्र से संबंधित है।
- इनकी अन्य रचनाएँ- शब्द्नाम प्रकाश, विष्णुपुराण भाषा, शतरंज शतिका है।
रचनाकार: भिखारीदास
रचना: ‘श्रृंगार निर्णय’ (1750 ई०)
- यह रचना भी हिन्दुपति सिंह के आश्रय में रचित है।
- इसमें रसों की विवेचना है। श्रृंगार रस को रसराज सिद्ध किया गया है।
- इसमें नायिका भेद का भी चित्रण है।
भिखारीदास के काव्यशास्त्रीय कथन:
“सूर सूर तुलसी ससि, उडुगुल केसव दास। (का० निर्णय)
अबके कवि खद्दोत सम, जहँ-तहँ करत प्रकाश।।”
“तुलसी गंग दुई भई सुकवियन के सरदार। (का० निर्णय)
इनके काव्यां में मिली, भाषा विविध प्रकार।।”
“आगे के कवि रीझि हैं, तो कविताई
न तो राधा कन्हाई, सुमुरण को बहानौ है।।”
“मान घटै तो कहा घटि, जैहे जु पै प्रान को देखन पैये”
“एक लहै तप पुंजनि के फल।
ज्यों तुलसी अरु सूर गोसाई।।”
“एक लहै बहु संपति केसव।
ज्यों भूषण बर वीर बड़ाई।।”
“एकनि को जस हीजो प्रयोजन।
रसखानी रहीम की नाई।।”
“दास कवितन की चरचा।
बुद्धि वंतन को सुख दे सबठाई।।”
भाषा वर्णन में प्रथम तुक विसेषि
उत्तम माध्यम अधम से तिनी भाँति को लेखि”
5. मतिराम: (रीतिबद्ध कवि)
जन्म: (1604 ई० लगभग) कानपुर जिला, तिकँवापुर (उ० प्र)
मूलनाम: भूपाल
निधन: (अज्ञात है)
रचनाएँ: फूल मंजरी, ललितललाम, मतिराम सतसई, साहित्य सार, लक्षण श्रृंगार, अलंकार पंचाशिका, वृत कौमुदी, रसराज
रचनाकार: मतिराम
रचना: ‘फूलमंजरी’ (1679 ई०)
- यह दोहा छंद में रचित काव्य है।
- इसके प्रत्येक दोहे में एक फूल का नाम है।
- फूल के माध्यम से नायिका का चित्रण है।
रचनाकार: मतिराम
रचना: ‘रसराज’(1633 – 1643 ई० के बीच माना जाता है)
- इसमें नायिका भेद और संयोग श्रृंगार का चित्रण है।
- मिश्रबंधुओं ने इसे बिहारी सतसई के सामान रससिद्ध रचना माना है।
- यह मुख्यतः दोहा छंद में रचित है। इसमें कूल 319 छंद है।
रचनाकार: मतिराम
रचना: ‘ललित ललाम’ (1663 ई०)
- यह ग्रंथ बूँदी नरेश भावसिंह के आश्रय में रचित है।
- इसमें काव्य के सभी (10) अंगों की विवेचना है।
रचनाकार: मतिराम
रचना: मतिराम सतसई (1681 ई०)
- यह काव्य भोगनाथ के आश्रय में रचित ग्रंथ है।
- यह भक्तिनीति और श्रृंगार के संबंधित है।
- इसमें सबसे अधिक पद संयोग श्रृंगार से संबंधित है।
रचनाकार: मतिराम
रचना: वृत कौमुदी (1701 ई०)
- यह ग्रंथ स्वरुप सिंह के आश्रय में रचित है।
- इसमें छंदों की विवेचना है, विशेषकर इसमें वार्णिक छंदों की है।
- मतिराम ‘सर्वांग निरूपक’ आचार्य थे।
- ‘ललित ललाम’ में लगभग 100 अलंकारों की विवेचना है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- “मतिराम सतसई के दोहे सरसता में बिहारी के सतसई के दोहों के सामान है।”
6. कविवर देव: (रीतिबद्ध कवि)
समय: (1673 – 1778 ई०)
मूलनाम: देवदत्त द्विवेदी था।
समय: (1673 ई०) कुसमरा, इटावा माना जाता है।
- इनके ग्रंथ ‘भावविलास’ की एक पंक्ति से स्पष्ट होता है-
“द्दौसरिया कवि देव का नगर इतावो वास।”
- हिन्दी में नायिका भेद की प्रौढ़तम रचना करने वाले आचार्य कवियों में देव सर्वोपरि है।
- इन्होंने संचारी भावों की संख्या 34 मानी है।
- इन्होंने ‘तत्पर्या वृति’ के साथ कुछ नये छंदों का भी आविष्कार किया।
महत्वपूर्ण ग्रंथ:
देव की रचनाओं की संख्या 52 से 72 मानी जाती है, किन्तु सभी रचनाएँ उपलब्ध नहीं है। निर्विवाद रूप से कविवर देव 18 ग्रंथों को स्वीकार किया गया है।
महत्वपूर्ण रचनाएँ-
रचनाकार- कविवर देव
रचना: भावविलास (1989 ई०)
‘भावविलास’ देव की सर्वश्रेष्ठ रचना है। इसमें भाव, नायिका भेद और अलंकारों का वर्णन है।
रचनाकार- कविवर देव
रचना: ‘शब्द रसायन’ (काव्य रसायन) इस काव्य में ध्वनि के साथ रस, गुण, अलंकार और छंद-विवेचन है।
इस काव्य में ‘त्रिविध शब्द-शक्तियों’ के साथ ‘तात्पर्या वृति’ का भी वर्णन है।
रचना- ‘जातिविलास’ इस रचना में अनेक प्रान्तों की स्त्रियों का सौंदर्य का वर्णन है।
रचना- ‘राग रत्नाकर’ यह संगीत विषयक लक्षण ग्रंथ है।
रचना- ‘प्रेमचन्द्रिका’ इसमें विषय वासना के तिरस्कार, प्रेम महात्म्य और उसके विभिन्न रूपों का वर्णन है।
रचना- ‘देव शतक’ यह आध्यात्मिक ग्रंथ है इसमें जीवन और जगत् की असारता, ब्रह्मतत्व तथा प्रेम के महात्म्य का वर्णन है।
रचना- ‘देवचरित’ यह कृष्ण के जीवन से संबंधित प्रबंधकाव्य है।
रचना – ‘देवमाया प्रपंच’ संस्कृत के ‘प्रबंधचंद्रोदय’ नाटक का पद्दबंद्ध अनुवाद है।
अलंकार निरूपण में कवि देव ने केशव को आदर्श माना है।
अष्टयाम, भवानीविलास, कुशलविलास, रसविलास, प्रेमचन्द्रिका, सुजानविनोद, जातिविलास (इनके यात्राओं का वर्णन है), देवचरित, काव्यरसायन को (शब्द रसायन) भी कहते है।
वृक्षविलास, पावसविलास, प्रेमदर्शन, प्रेमतरंग, प्रेमदीपिका, सुखसागर तरंग
इन्होंने चार पचीसी लिखी है-
- तत्वदर्शन पचीसी, प्रेम पचीसी, जगद्दर्शन पचीसी, आत्मदर्शन पचीसी, इन चारों पचिसियों का नाम ‘देव शतक’ है।
- अलंकारित और श्रृंगारिकता इनके काव्य की प्रमुख विशेषता थी।
- कवि देव अनेक आश्रयदाताओं के पास रहकर अपनी रचनाएँ लिखी:
- औरंगजेब के पुत्र आजमशाह के दरबार में रहकर ‘अष्टयाम’
- चरखीदादरी के राजा भवानीदत्त वैश्य के दरबार में रहकर ‘भवानीविलास’ लिखा।
- तीसरे आश्रयदाता कुशल सिंह के यहाँ रहकर ‘कुशलविलास’ लिखा
- इनके वास्तविक आश्रयदाता भोगीलाल थे, जिनके लिए कवि देव ने ‘रस विलास’ लिखा
- राजा उद्दोत सिंह के लिए ‘सुजान विनोद’ की रचना किया।
- पिहानी के राजा अलीअकबर खां के आश्रय में ‘सुखसागर तरंग’
- देव और बिहारी में कौन श्रेष्ठ है इस विषय पर विवाद चला इस संबंध में ‘देव और बिहारी’ नामक एक ग्रंथ कृष्ण बिहारी मिश्र ने लिखा
- लाला भगवानदीन ने ‘बिहारी और देव’ नामक ग्रंथ लिखा।
- मिश्र बन्धुओं के अनुसार हिन्दी साहित्य में कविवर देव का स्थान तुलसी के बाद आता है।
कविवर देव की महत्वपूर्ण पंक्तियाँ:
“अविद्दा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणालीन।
अधम व्यंजन रस विरस, उल्टी कहत प्रवीण।।”
“बड़े-बड़े नैनन सों आँसू भरि-भरि ढरि,
गोरो-गोरो मुख आज ओरो सो विलानो जात।”
डार द्रुम पलना बिछौना नवपल्लव के,
सुमन झंगूला सोहैं तन छवि भारी दे।”
नवरस सब संसार में, नवरस में संसार।
नवरस सार सिंगार रस, युगल सार सिंगार।।”
7. कवि भूषण (रीतिबद्ध कवि)
समय: (1613 – 1705 ई०)
मूलनाम: घनश्याम था
जन्म: तिकवापुर, कानपुर
- समूचे रीतिकाल में भूषण का व्यक्तित्व सबसे अलग और विशिष्ट था।
- भूषण रीतिकाल के तीन प्रमुख हिन्दी कवियों में से एक हैं। अन्य दो कवि बिहारी तथा केशव थे।
महत्वपूर्ण रचनाएँ:
विद्वानों ने इनके छह ग्रंथ माने हैं।
इनमे तीन ही उपलब्ध है- ‘शिवराज भूषण’, ‘शिवाबावानी’ और ‘छत्रशल दशक’
इसके अतिरिक्त 3 अन्य ग्रंथ है- ‘भूषणउल्लास’, ‘दूषणउल्लास’ और ‘भूषणहजारा’
भूषण के प्रमाणिक ग्रंथ: ‘शिवराज भूषण’
रचना- “शिवराज भूषण’
रचना काल- (1773 ई०) हैं
- यह अलंकार निरूपक ग्रंथ है।
- इसमें 105 अलंकारों के लक्षण और उदाहरण मिलते है।
- शिवराज भूषण की भूमिका के प्रारम्भ में गणेश, शक्ति और सूर्य की वंदना है।
- भवानी की स्तुति में शिवाजी के लिए विजय का वरदान माँगा गया है।
- शिवराज भूषण में में पहले दोहे में अलंकारों के लक्षण फिर कविता, सवैया, छप्पय, अथवा दोहे में उदाहरण प्रस्तुत किए गए हैं। ये उदाहरण शिवाजी के जीवन की घटनाओं से संबंधित हैं।
शिवाबावानी – शिवाबावानी में 52 कवियों में छत्रपति शिवाजी महाराज के शौर्य, पराक्रम आदि का ओजपूर्ण वर्णन है।
छत्रशालदशक – इसमें केवल 10 कवियों के
प्रमुख्य तथ्य:
- भूषण रीतिकालीन राष्ट्रीय कवि थे।
- चित्रकूट के सोलंकी राजा रूद्र ने इन्हें ‘कविभूषण’ की उपाधि दी थी।
- कई राजाओं के यहाँ रहे। अंत में इनके वीरकाव्य के नायक महाराज छत्रपति शिवाजी मिले।
- कहते हैं कि महाराज छत्रसाल ने इनकी पालकी में कंधा लगाया था जिस पर शिवाजी ने कहा था- ‘सिवा को बखानौं कि बखानौं छत्रसाल को।’
- विद्वानों ने अनेक प्रमाणों द्वारा सिद्ध कर दिया कि चिंतामणि, मतिराम, भूषण और जटाशंकर चार भाई थे और चारों कवि।
8. कवि बोधा (रीतिमुक्त कवि)
जन्म: (1746 ई०) राजापुर जिला बाँदा में हुआ। यह सरयू पारी ब्राहमण थे।
निधन: (1806 ई०)
इनका मूलनाम: ‘बुद्धिसेन’ था।
- पन्ना नरेश इन्हें ‘बोधा’ नाम से पुकारते थे। बाद में यही नाम प्रचलित हो गया।
- शिवसरोज के अनुसार- (1747 ई०) में हुआ।
- इनका काव्यकाल (1773 – 1803 ई०)
- पन्ना दरबार में सुभान नामक वेश्या से प्रेम करते थे।
- राजा खेत सिंह इनसे नाराज होकर इन्हें छह महीना के लिए देश से निकाल दे दिया था।
- उस समय उन्होंने ‘विरहवारीश’ की रचना की थी।
प्रमुख कथन:
आचार्य रामचंद शुक्ल के शब्दों में- “प्रेम की पीर की व्यंजना भी इन्होने बड़ी मर्म स्पर्शी युक्ति से कही है।”
आचार्य रामचंद शुक्ल के शब्दों में- “व्याकरण दोष होने पर भी इनकी भाषा चलती और मुहावरेदार है।”
डॉ० नगेन्द्र के शब्दों में- “बोधा बेधड़क होकर निःसंकोच बात करते हैं।”
आचार्य रामचंद शुक्ल के शब्दों में- “ये भाउक और रसज्ञ के कवि थे इसमें कोई संदेह नहीं”
बोधा के द्वारा महत्वपूर्ण दो ग्रंथों की रचना की गई
1. विरहवारीश ( इसमें वियोग श्रृंगार रस की कविताएँ है।)
> सुभान के वियोग में इन्होंने ‘विरहवारीश’ की रचना की।
> आलम के माधवानल कामकंदला पर आधारित रचना है।
> यह प्रबंधकाव्य है।
2. इश्कनामा (इसमें श्रृंगारपरक कविताएँ है।)
यह ‘विरह सुभान दम्पति विलास’ इश्कनाम रचना है।
महत्वपूर्ण पंक्तियाँ:
“यह प्रेम को पंथ कराल महा, तरवारी की धार पै धावनो है।”
“होय मजाज़ी में जहाँ, इश्क हक़ीकी खूब।
सो साँचो ब्रजराज है, जो मेरा महबूब।।”
“जो वैसी जोड़ी मिले, प्रीति करौ सब कोय।
कामकंदला सी त्रिया, नर माधो सो होय।।”
“सहते न बनै कहते न बनै, मन ही मन पीर पिरैबो करे।”
“जान मिलै तो जहान मिलै, नहिं जान मिलै तो जहान कहाँ को।”
9. आलम (रीतिमुक्त कवि) का जीवन परिचय और रचनाएँ:
आचर्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- आलम का समय (1683 – 1703 ई०) माना है।
इनका मूलनाम नाम: लालमणि था।
- मुस्लिम महिला शेख नामक रंगरेजिन से विवाह के लिए इन्होंने अपना धर्म परिवर्तन कर लिया और अपना नाम आलम रखा।
- उनकी पत्नी का नाम शेख और पुत्र का नाम जहान था।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार-
- यह औरंगजेब के दूसरे बेटे मुअज्जम के आश्रय में रहते थे।
- आलम ने एक बार अपनी पगड़ी रंगने के लिए दिए, जिसमे एक कागज़ बंधा हुआ चला गया। उस कागज़ में दोहे की आधी पंक्ति लिखी हुई थी-
“कनक छड़ी की कामिनी काहे को कटि छिन।”
- इस दोहे की आधी पंक्ति को शेख ने पूरा करते हुए लिखा-
“कटी को कंचन कटि बिधि कुचन मध्य धरि दीन।।”
प्रसिद्ध रचनाएँ-
माधवनल कामकंदला, श्याम-स्नेही, सुदामा चरित, आलमकेलि
रचना – माधवानल कामकंदला- (प्रेमाख्यान काव्य)
- यह दोहा चौपाई शैली में रचित रचना है।
- पाँच अर्धाली के बाद एक दोहा या सोरठा आता है।
- अकबर से टोडरमल का उल्लेख इसमें मिलता है।
रचना – श्याम-स्नेही- (प्रबंधकाव्य)
- आलम के द्वारा रचित यह द्वितीय प्रबंधकाव्य है।
- यह कृष्ण रुक्मिणी के विवाह पर आधारित है।
- प्रारम्भ में शिव पार्वती के गणेश वंदना है।
- इसमें ग्यारह अर्धाली के बाद एक दोहा है।
- “आलम जीवहु जो पलक इहि चंचल संसारु।
- दे आहार पासहु मनहि प्रेम भगति अधारु।।”
रचना – सुदामा चरित (कृष्ण भक्तिपरक काव्य)
- यह रचना इक्यावन रेख्ताबंदो की अल्प काव्य कृति अवधी और ब्रज में रचित है।
- यह अरबी और फ़ारसी शब्दों से युक्त रचना है।
- इसमें कृष्ण और सुदामा के मिलन का वर्णन है।
- इसी रचना पर नरोत्तम दास ने ‘सुदामा चरित’ नामक काव्य की रचना की।
- यह कवित्त सवैया में रचित रचना है।
रचना – आलमकेलि (श्रृंगार और भक्ति)
- सन् 1922 ई० में लाला भगवानदीन ने आलामकेलि का प्रकाशन करवाया था।
- इसमें आलम के द्वारा रचित फुटकर कविताओं का संग्रह है।
- यह आलम के द्वारा रचित सर्वाधिक चर्चित रचना है।
महत्वपूर्ण तथ्य:
- एक बार शहजादा मुअज्जम ने शेख से पूछा, “क्या आलम की औरत आप ही हैं?”
शेख ने जवाब दिया, “हां, जहांपनाह! जहान की मां मैं ही हूं।“ - ब्रजभाषा में कव्वाली का आरंभ आलम ने किया था।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में- ‘प्रेम की पीर’ या ‘इश्क का दर्द’ इनके ग्यारह काव्य में भरा पाया जाता है।’
आचार्य शुक्ल- उत्प्रेक्षाएं भी इन्होंने बड़ी अनूठी और बहुत अधिक कही है।
आचार्य शुक्ल- प्रेम की तन्मयता की दृष्टि से आलम की गणना रसखान और घनानंद की कोटी में होनी चाहिए।
आचार्य शुक्ल- आलम प्रेमोन्मत्त कवि है और अपनी तरंग के अनुसार रचना करते हैं।
विश्वनाथ त्रिपाठी- आलम प्रेम की दीवानगी के कवि हैं।
डॉ. नगेंद्र- इनकी प्रेम अनुभूति व्यक्तिगत है, अतः अब वह मार्मिक व सत्य प्रतीत होती है।
डॉ. नगेंद्र- संयोग हो या वियोग,कवि विशाद मग्न रहता है,आलम वियोग मे थके से जीवन का दांव हारे से लगते हैं।
आलम द्वारा रचित प्रमुख काव्य पंक्तियाँ:
“दाने कि न पानी कि मैं आवे सुध खाने की।
जो गली महबूब की अराम खुसखाना है।।”
“दिल को दिलासा दीजै हाल के न ख्याल हूजै।
बेखुद फकीर वह आशिक दीवाना है।।”
“कैंधो मोर सोर तजि गये री अनत भाजि।
कैंधो उत दादुर न बोलत है ए दई।।”
“कनक छुरी सी कामिनी काहे को कटि छीन।(आलम )
कटि को कंचन काटि विधि कुचन मध्य धरि दीन ।।(शेख )”
“जो थल किने बिहार अनेकन ता थल कांकर बैठि चुन्यो करैं।
नैननि में जो सदा रहते तिनकी अब कान कहानी सुन्यो करें।।”
10. कवि वृंद- (रीतिसिद्ध कवि)
समय: (1643 – 1723 ई०)
इनका पूरानाम: वृन्दावनदास था।
जन्म: पं.रामनरेश त्रिपाठी इनका जन्म (1643 ई० उ.प्र.) मानते है।
निधन: (1723 ई०) किशनगढ़
- डॉ० नगेन्द्र मेड़ता गाँव को इनका जन्म स्थान मानते हैं।
- वृंद के आश्रयदाता औरंगजेब तथा किशनगढ़ के महाराज राजसिंह थे।
- हिन्दी साहित्य में वृंद को सुक्तिकार के रूप में प्रतिष्ठा मिली।
- ये वृंदजाति के सेवक अथवा भोजक थे। वृंद के पूर्वज बीकानेर के निवासी थे। वृंद की माता का नाम कौशल्या और पत्नी का नाम नवरंगदे था। दस वर्ष की अवस्था में वृंद काशी आ गए थे।
वृंद की रचनाएँ: इनकी कूल 11 रचनाएँ है।
बारहमासा (1668 ई०) इसमें बारहों महीनों का सुंदर चित्रण है।
भाव पंचाशिका (1686 ई०) इस ग्रंथ में वृंद ने श्रृंगार के विभिन्न भावों का सरस चित्रण किया है।
नयन पच्चीसी (1686 ई०) इसमें नेत्रों के महत्व का चित्रण किया है। इस रचना में दोहा सवैया और घनाक्षरी छंदों का प्रयोग है।
पवन पचीसी (1691 ई०) इसमें षड्ऋतु का छप्पय छंद में वर्णन है।
श्रृंगार शिक्षा (1691 ई०) इस ग्रंथ में नायिका भेद पर आधारित आभूषण और श्रृंगार के साथ नायिकाओं का भी चित्रण है।
यमक सतसई (1706 ई०) इसमें 715 छंदों में यमक अलंकार का वर्णन है।
समेत शिखर छंद, हितोपदेश, संधि वृंद सतसई, वचनिका, भारत कथा
वृंद के इन रचनाओं को ‘वृंद ग्रंथावली’ नाम से ‘डॉ जनार्दन राव चेले’ ने 1971 ई० में संपादित किया।
11. कुलपति मिश्र (रीतिबद्ध कवि)
रचनाकाल: (संवत् 1724 – संवत् 1743 के बीच था)
जन्म स्थान- आगरा
- कुलपति मिश्र हिन्दी के पहले आचार्य थे।
- बिहारी के भांजे के रूप में प्रसिद्ध थे।
- ये हिन्दी के पहले आचार्य हैं जिन्होंने काव्य प्रयोजन पर विस्तार से चर्चा किया है।
- ये रीतिकाल के कवियों में संस्कृत के विद्वान कवि थे।
- कुलपति मिश्र जयपुर के महाराज जयसिंह (बिहारी के आश्रयदाता) के पुत्र महाराज रामसिंह के दरबार में रहते थे।
- इनका रस रहस्य ‘मम्मट’ के ‘काव्य प्रकाश’ का छायानुवाद है।
रचनाकाल: रस रहस्य 11, संवत् 1727 है।
- अब तक यही ग्रंथ प्रसिद्ध और प्रकाशित है।
- यह 8 वृतांतों में विभाजित है।
- द्रोण पर्व: (संवत् 1737)
- युक्ति तरंगिणी: (संवत् 1743)
- नख-शिख, संग्राम सार, गुण रसरहस्य (संवत् 1724)
12. तोष कवि (रीतिबद्ध कवि)
जन्म: (1734 ई०)
- ये श्रृंगवेर सिंगरौर, जिला इलाहबाद के रहनेवाले, चतुर्भुज शुक्ल के पुत्र थे।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने ‘तोष’ को ‘तोषनिधि’ लिखा है।
- तोष और तोषनिधि दो अलग-अलग कवि थे।
- तोष ने अपनी रचनाओं में तोष नाम रखा है।
महत्वपूर्ण रचनाएँ:
तोष के लिखे हुए तीन ग्रंथ है।
सुधा निधि- (1734 ई०), में लिखा गया
विनयशतक
नखशिख
- इनकी रचनाएँ सरस और प्रवाहपूर्ण हैं।
13. ग्वाल कवि (रीतिबद्ध कवि)
जन्म: (1791 – 1868 ई०) वृन्दावन
निधन: (1868 ई०)
मूलनाम: रसिकानंद था।
- ग्वाल कवि उत्तर प्रदेश के नाभा रियासत के राजा जसवंत सिंह के दरबारी कवि थे।
- ये रीतिकाल के अंतिम कवि माने जाते है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनके 11 ग्रंथ माने है।
- ‘रसरंग’ (1853 ई०) इनकी सबसे चर्चित रचना है।
- ‘रसरंग’ रीतिकाल की अंतिम रचना मानी जाती है।
महत्वपूर्ण रचनाएँ:
रसरंग, रसिकानंद, यमुना लहरी, कवि हृदय विनोद, नेह हम्मीर हट्ट, अलंकार भ्रमभंजन, विजय विनोद, नेह निवाह, गोप पच्चीसी, नख-शिख
14. महाराज जशवंत सिंह (1626 – 1678 ई०)
जन्म: 26 दिसंबर (1626 ई०)
निधन: 28 दिसंबर (1678 ई०)
- ये मारवाड़ के प्रसिद्ध महाराज थे। ये विद्या, बल और बुद्धि में अत्यंत संपन्न थे।
- महाराज जसवंत सिंह साहित्यमर्मज्ञ और तत्वज्ञान संपन्न थे।
- अपने पराक्रम के कारण वे शाहजहाँ और औरंगजेब के विश्वासपात्र थे।
- इनके समय में राज्य भर में विद्या की बड़ी चर्चा रही कवियों और विद्वानों बराबर समागम होता रहता था।
- ये हिन्दी साहित्य के प्रधान आचार्यों में माने जाते हैं।
- इनका ‘भाषाभूषण’ ग्रंथ अलंकारों पर प्रचलित पाठ्यग्रंथ था। शेष 202 छंदों में 116 अलंकारों का विवेचन है।
- इसमें 212 छंद हैं, प्रारंभ में 10 दोहों में भूमिका है।
- ‘भाषाभूषण’ के नायिका-भेद के लिए उन्होंने भानुदत्त की ‘रसमंजरी’ और ‘रसतरंगिणी’ को आधार बनाया और अलंकारों के लिए ‘कुबलयानंद’ को।
- ‘भाषाभूषण’ के अतिरिक्त अन्य ग्रंथ तत्वज्ञान संबंधी है।
महत्वपूर्ण ग्रंथ-
- अपरोक्षसिद्धांत, अनुभवप्रकाश, आनंदविलास, सिद्धांतबोध, सिधान्तसार, प्रबोधचंदोदय नाटक इनके सभी ग्रंथ पद्य में है।
- ‘भाषाभूषण’ पर तीन टीकाएँ लिखी गई।
- ‘अलंकार रत्नाकर’ टीका जिसे बंशीधर ने संवत् 1792 में लिखा।
- दूसरी टीका प्रताप सिंह और तीसरी टीका गुलाब सिंह की ‘भूषण चन्द्रिका’
15. रसलीन
समय: (1696 – 1750 ई०)
इनका पूरा नाम: सैयद गुलाम नबी ‘रसलीन’ था।
- ये प्रसिद्ध बेलग्राम (जिला हरदोई) के रहनेवाले थे।
इनके महवपूर्ण दो ग्रंथ हैं:
अंगददर्पण- (1737 ई०) इसमें नखशिख वर्णन है।
रसप्रबोध- (1798 ई०) इसमें नायिका भेद का वर्णन है।
- रसलीन के अनुसार इसमें 1154 दोहे हैं।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार इसमें 1155 दोहे हैं।
- नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित ‘रसलीन’ ग्रंथावली के अनुसार 1153 हैं।
- रसलीन द्वारा दी गई संख्या प्रामाणिक है।
- अंगददर्पण, रसप्रबोध दोनों ग्रंथों में दोहा छंद का प्रयोग है।
- ‘अंगददर्पण’ पर थोड़ा बहुत बिहारी का प्रभाव दिखाई पड़ता है।
प्रसिद्ध दोहा है-
“अमिय हलाहल, मदभरे, सेत, स्याम, रतनार।
जियत, मरत, झुकि झुकि परत जेहि चितवत इक बार।।”
16. कवि सेनापति
समय: (1584 से 1588) के आसपास माना जाता है।
पिता: गंगाधर दीक्षित
पितामह: परशुराम दीक्षित
गुरु: हीरामणि दीक्षित
समय भक्तिकाल का अंतिम और रीतिकाल प्रारंभिक चरण था।
सेनापति की प्रमुख रचनाएँ:
काव्य कल्पद्रुम (अप्राप्त)
कवित्त रत्नाकर– इसमें 5 तरंगे तथा 394 छंद हैं।
- श्लेष अलंकार सेनापति का सर्वाधिक प्रिय अलंकार है।
- सेनापति ‘ऋतु’ वर्णन के लिए विशेष प्रसिद्ध है।
- ये ‘ब्रजभाषा’ के सिद्धहस्त कवि हैं।
- इनके काव्य में ओज, प्रसाद तथा माधुर्य गुण का अद्भूत संयोग है।
17. ठाकुर- ठाकुर नाम के हिन्दी में तीन प्रसिद्ध कवि हुए हैं-
> ‘ठाकुर’ संख्या में तीन होने के कारण ये ‘ठाकुरत्रयी’ भी कहलाए।
> इनमे से प्रसिद्ध ठाकुर बुंदेलखंडी रहें हैं।
> असनी वाले प्रथम / प्राचीन ठाकुर
> असनी वाले प्राचीन ठाकुर का समय- संवत् 1700 के आसपास माना जाता है।
> इनकी स्वच्छ और चलती भाषा में लिखी फुटकर कविताएँ है।
‘> कालिहजारा’ आदि काव्यसंग्रहों में यत्र-तत्र बिखरी पाई जाती हैं।
असनी वाले दूसरे ठाकुर-
- असनी वाले दूसरे ठाकुर ‘ऋषिनाथ’ कवि के पुत्र थे।
- रामेनरेश त्रिपाठी के अनुसार इनका जन्म- संवत् 1792 में हुआ था।
- ये काशी के नामी रईस और काशीराज के संबंधी बाबू देवकीनंदन ठाकुर कवि के आश्रयदाता थे। जिनके प्रीत्यर्थ कवि ने ‘बिहारी सतसई’ को ‘देवकीनंदन टीका’, ‘सतसई बरनार्थ’ बनाई।
- इस भ्रम की उत्पति लाला भगवानदीन द्वारा संपादित ‘ठाकुर ठसक’ की भूमिका में हुई
- उसी के आधार पर शुक्ल जी ने भी तीन ठाकुर माने।
- किशोरीलाला गुप्त ने ठोस प्रमाण देकर सिद्ध कर दिया है कि असनीवाले दो ठाकुरों की कल्पना निराधार है।
- असनीवाले एक ही ठाकुर थे। वे बुद्धरीतिकार थे।
- बुंदेलखंडी ठाकुर रीतिमुक्त धारा के स्वच्छंद कवि थे।
- तीसरे ‘ठाकुर’ बुंदेलखंडी (रीतिमुक्त कवि)
समय: (1766 – 1823 ई०)
इनका पूरा नाम: ठाकुरदास था।
पिता: गुलाबराय (महाराज ओरछा के मुसाहब)
पितामह: खंगराय (काकोरी, लखनऊ के मनसबदार)
ठाकुर का जन्म: ओरछा में हुआ था।
- वे जैतपुर के राजा पारीक्षित के दरवारी कवि थे।
- ठाकुर को जैतपुर, विजावर और बाँदा नरेशों से धन और सम्मान प्राप्त होता था।
- राजदरबारों में उनका सम्मान होता था तभी तो उन्होंने लिखा है-
‘ठाकुर सो कवि भावत मोहिं जो राजसभा में बड़प्पन पावै।’
ठाकुर की प्रमुख रचनाएँ: ठाकुर शतक और ठाकुर ठसक
रचना- ठाकुर शतक- इसमें तीनों ठाकुरों की कविताएँ संकलित हैं। इसके संग्रह करता डुमराँव निवासी नकछेदी तिवारी ‘अजान’ कवि
नोट: हिन्दी साहित्य कोश के अनुसार इसके संग्रहकर्ता थे। चरखारी निवासी काशी प्रसाद
प्रकाशन – काशी के ‘भारत जीवन प्रेस’ से उसके अध्यक्ष बाबु रामकृष्ण वर्मा वीर के निर्देशन में सन 1904 ई० में हुआ। इसमें 88 छंद हैं।
रचना- ठाकुर ठसक- सन् 1926 ई० में लाला भगवानदीन ने काशी के साहित्य सेवक’ कार्यालय से एक संग्रह ठाकुर ठसक निकाला जिसमे तीसरे ठाकुर की फुटकल कविताएँ थी।
इसमें 104 छंद हैं
ठाकुर की महत्वपूर्ण पंक्तियाँ-
दस बार, बीस बार, बरजि दई है जाहि,
एते पै न मानै जो तौ, जरन बरन देव।
कैसो कहा कीजै, कछू आपनो करो न होय,
जाके जैसे दिन, ताहि तैसेई भरन देव॥
‘ठाकुर कहत, मन आपनो मगन राखौ,
प्रेम निहसंक, रस रंग बिहरन देव।
बिधि के बनाए जीव जेते हैं, जहां के तहां,
खेलत फिरत, तिन्हैं खेलन फिरन देव॥
सेवक सिपाही सदा उन रजपूतन के
दान युद्ध वीरता मेँ नेकु जे न मुरके ।
जस के करैया हैँ मही के महिपालन के
हिय के विशुद्ध हैँ सनेही साँचे उर के ।
ठाकुर कहत हम बैरी बेवकूफन के
जालिम दमाद हैँ अदेनिया ससुर के ।
चोजन के चोजी महा मौजिन के महाराज
हम कविराज हैँ पै चाकर चतुर के ॥