भूमिका-
परिवर्तन, विकास, क्रांति ये प्रकृति के शाश्वत नियम हैं। हर युग में क्रांतियाँ और आंदोलन हुए हैं, आज भी हो रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे। जिसके फलस्वरूप व्यवस्था में परिवर्तन हुआ है और निरंतर विकास का मार्ग प्रसस्त होता रहा है। पृथ्वी पर जब से जीवन की उत्पत्ति हुई है, तब से निरंतर अनेकों परिवर्तन होते रहे हैं। जीवन की उत्पत्ति के साथ पेड़-पौधे, जीव-जंतुओं और मानव का भी जन्म हुआ। मानव इस पृथ्वी का सबसे बुद्धिमान प्राणी है। इसलिए इसका वैज्ञानिक नाम ‘होमो सेपियन’ पड़ा। इसे लिंग के आधार पर नर और नारी दो भागों में विभाजित किया गया। यह विभाजन और वर्गीकरण की प्रक्रिया भी निरंतर चलती रहती है, जो आवश्यक भी है। माना जाता है कि जब से पृथ्वी पर नारी की उत्पत्ति हुई है, तब से नरों के द्वारा उनका शोषण होता आ रहा है। यह कहाँ तक सत्य है, कहा नहीं जा सकता है। यहाँ तक कि स्त्रियों ने भी स्त्रियों का शोषण किया है।
बीसवीं सदी में स्त्री-विमर्श की अवधारण का प्रवर्तन हुआ जिसके तहत जागरुक और दूरदर्शी स्त्रियों और पुरुषों ने नारी-शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई। अनेक नारीवादी आन्दोलन हुए, क्रांतियाँ हुई जिसके फलस्वरूप स्त्रियों ने सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक समानता के अधिकारों को प्राप्त किया। नारीवादी विचारधारा आने से समाज में स्त्रियों की दशा में सुधार हुआ। नारी-विमर्श होने से साहित्य में नारी-विमर्श परम्परा की होड़ सी लग गई, जिससे नारी-विमर्श चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। आज नारी विमर्श की अति हो जाने के कारण स्त्रियों ने समानता के नाम पर पुरुषों के तरह कई नकारात्मक आदतों को भी अपना लिया है। स्त्रियों का धूम्रपान और मदिरापान आदि करना जो स्वास्थ्य और संस्कृति के लिए अत्यंत हानिकारक तो है ही नारी अस्मिता पर भी प्रश्न चिन्ह लगा देती है। स्त्रियों के स्वास्थ्य का प्रभाव उनकी होनेवाली संतानों पर भी पड़ता है। नारी अधिकार के साथ उठे समानता के नाम पर व्यवहार और विचार में अतिरेक के ये कुछ उदाहरण हैं।
वर्तमान समय में जितनी जोरों से नारी-विमर्श की चर्चा चल रही है। उतनी ही जोरों से अब 21वीं सदी में पुरुष-विमर्श की भी चर्चा करने की आवश्यकता है। पुरुषों के सामाजिक, राजनैतिक शोषण से मुक्ति और सभी पुरुषों को हर क्षेत्र में समानता का अधिकार प्राप्त करना आवश्यक है। नारी-विमर्श से उत्पन्न विचार धारा के अधिकता के आगे बहुत बड़ा एक पुरुष वर्ग चिन्ता, कुंठा, हीन भावना, तनाव की स्थितिओं का शिकार होने लगा है। सभ्य समाज के शिष्ट पुरुष, नारी अतिक्रमण से क्षुब्द होकर आत्म हत्या तक कर लेते हैं। उनके व्यक्तित्व में छुपा पुरुष उन्हें समाज के सामने आकर अपनी दुखड़ा सुनाने से रोक देता है और अपनी व्यथा को झेल पाने में असमर्थ वह पुरुष टूट कर बिखर जाता है। यही वो कारण है जो पुरुष-विमर्श की उपयोगिता और सार्थकता को निमंत्रित करता है।
मानव धर्म ग्रंथ मनुस्मृति के अनुसार- ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते, रमन्ते तत्र देवता’ अथार्त जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता वास करते हैं।
मनुस्मृति में ही श्लोक 9.3 में यह लिखा है-
“पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने।
रक्षन्ति स्थाविरे पुत्र: न स्त्री स्वातंत्र्यमर्हती।।”
अथार्त स्त्री को कभी भी स्वतंत्र नहीं रहना चाहिए। उसे हमेशा पुरुष के ही संरक्षण में रहना चाहिए।
पुरुष शब्द की व्युत्पति
‘पुरुष’ अत्यंत व्यापक शब्द है। भाषा में इसे लिंग विशेष के लिए प्रयोग किया जाता है। जिसका तात्पर्य स्त्री के विपरीत लिंग से है। हिन्दी भाषा में पुरुष शब्द का शाब्दिक अर्थ है – “जो पुर अथार्त समाज की सेवा करता है, वही पुरुष है।”
एक अन्य अर्थ के अनुसार- जो ‘पुरुषार्थ’ को प्राप्त करने की क्षमता रखता है, वह पुरुष है।” पुरुष का मूलशब्द ‘पृषन’ है। पृ+वृष = पूरुष (संज्ञा) पुरुष। वेदों में यह शब्द पुरुष, पूरुष दोनों प्रकार से आया है। “वैदिक भाषा में पृ+वृष में इसकी उत्पति की गई है।”1
‘पुरुष’ शब्द का अभिप्राय:
पुरुष शब्द परमात्मा का वाचक है- सृष्टि विधा के विषय में अति प्राचीन आर्य ग्रंथकार सहमत हैं कि वर्तमान दृश्य जगत् से आरम्भ परम पुरुष अविनाशी अक्षर अथवा परब्रह्म से हुआ है। तदनुसार पुरुष शब्द मूलतः परब्रह्म का वाचक है।
पुरुष शब्द हिरण्यगर्भ का वाचक है- पुरुष का प्रयोग कहीं-कहीं हिरण्यगर्भ अथवा प्रजापति के रूप में भी हुआ है। वेदान्त में पुरुष को मनुष्यपरक माना गया है।
मनुष्यपरक – पुरुष शब्द का तीसरा ‘मनुष्य परक’ अर्थ सुप्रसिद्ध है। यह केवल आदमी या जेंट्स का वाची नहीं है। यह मनुष्य मात्र का बोधक है, चाहे वह मनुष्य पुल्लिंग, स्त्रीलिंग नपुंसकलिंग हो।
- मराठी व्युत्पति कोश- कृ. पा. कुलकर्णी पृ. सं. 545
वृष शब्द के विभन्न अर्थ-
वृषराशि, कामधेनु, सांड, शिव का नंदी, कर्ण का नाम, विष्णु का नाम, किसी वर्ग का मुख्य या उत्तम, मजबूत या व्यायामशील व्यक्ति, कामातुर, रति ग्रंथों में वर्णित चार प्रकारों में से एक, एक विशेष औषधि का नाम” आदि।
वृष के इन विभिन्न अर्थों से स्पष्ट है कि पुरुष शब्द के अर्थों के लिए उपर्युक्त मजबूत या व्यायामशील व्यक्ति, कामातुर, रति ग्रंथों में वर्णित चार प्रकारों में से एक, किसी वर्ग का मुखिया या उत्तम और ये चार ही अर्थ अपेक्षित हैं।
नालंदा विशाल शब्द सागर के अनुसार –
‘पुरुष’ एक ‘संज्ञा’ और ‘पुल्लिंग’ शब्द है। इसके निम्नलिखित अर्थ हैं – मनुष्य, आदमी, नर, किसी पीढ़ी का प्रतिनिधि, विष्णु, जीव, सूर्य, सांख्य में एक, अकर्ता तथा असंख्य चेतन पदार्थ जो प्रकृति से भिन्न तथा उसका पूरक अर्थ माना जाता है। परमात्मा, शिव, पारा, पुन्नव, वृक्ष, घोड़े का अगला पैर उठाकर पिछले पैरों के बल खड़े होने की स्थिति, पति, स्वामी, पूर्वज, व्याकरण, सर्वनाम और उसके साथ आनेवाली क्रियाओं के रूपों का वह भेद जिसके द्वारा यह माना जाता है कि सर्वनाम अथवा क्रिया का प्रयोग वक्ता के लिए हुआ है अथवा श्रोता या संबोधन करने वाले के लिए जैसे- मैं – उत्तम पुरुष, तुम – माध्यम पुरुष, और वह – अन्य पुरुष के लिए।
उपर्युक्त पंक्ति में पुरुष के चौदह विविध अर्थ स्पष्ट हैं। पुरुष शब्द का प्रयोग मानव प्राचीन काल से ही करता आ रहा है।
“आप्टे संस्कृत कोश” के अनुसार- ‘पुरुष’ शी+पृषो, पुर+कुशन इसकी व्युत्पत्ति बतलाई गई है। नर, मर्द, मनुष्य, जाति, किसी पीढ़ी का प्रतिनिधि, अधिकारी, कार्यकर्ता, अभिकर्ता, अनुचर, मनुष्य की ऊँचाई या माप, आत्मा, परमात्मा, व्याकरण के प्रथम पुरुष, मध्यम पुरुष, उत्तम पुरुष आदि।
उपर्युक्त सभी अर्थों में से कुछ ही आगे चलकर पुरुष के अर्थ में उपयोग में लिए जाते हैं।
बृहद हिन्दी अंग्रेजी कोश के अनुसार- “Man शब्द का अर्थ नर, मानव, मनुष्य, आदमी, पुरुष, मनुष्य जाति, इंसान, असामी, दास, प्रजा, सेवक परिचारक, सैनिक जवान, कारीगर, पति, जलपोत आदि अर्थों में दिया है।”1
विमर्श शब्द: अर्थ एवं स्वरुप
मानक हिन्दी कोश में विमर्श का अर्थ- “विचरण, आलोचना, व्याकुल और उद्वेग है।”2
अंग्रेजी हिन्दी शब्दकोश में ‘विमर्श’ का अर्थ- “विमर्श का अर्थ प्रवचन, प्रबंध दिया गया है।”3
अभय कुमार दुबे के शब्दों में- “इसका निपट अर्थ है दो वक्ताओं के बीच संवाद या बहस या सार्वजनिक चर्चा।”4
ओक्सफोर्ड अंग्रेजी कोश में भी ‘डिस्कोर्स’( Discourse) शब्द का अर्थ- “भाषण या बातचीत ही है।”5
डॉ० भोलानाथ तिवारी के अनुसार विमर्श का अर्थ है- “तबादला-ए-खयाल, परामर्श, मशविरा, राय-बात, विचार-विनिमय, विचार विमर्श, सोच विचार।”6
उपर्युक्त विश्लेष्ण के आधार पर हम कह सकते हैं कि भाषण, परीक्षा, आलोचना, विचरण, विवेचन, गुणदोष की मीमांसा आदि सभी शब्द विमर्श के ही समानार्थी हैं। विमर्श शब्द से जहाँ बातचीत और वार्तालाप इत्यादि अर्थ सामने आते हैं वहीं साहित्यिक रूप में इसका अर्थ है किसी गंभीर विषय का गहन विवेचन-विश्लेषण और अंततः तर्क-संगत निर्णय पर पहुँचने का प्रयत्न।
विमर्श की परिभाषा-
डॉ० अर्जुन चव्हाण विमर्श को परिभाषित करते हुए कहते है कि- “विमर्श शब्द मूलतः गहन सोच-विचार, विचार-विनिमय, विनिमय तथा चिंतन, मनन को द्दोतित करता है अथार्त विमर्श से सीधा तात्पर्य सोच-विचार, विनिमय तथा विवेचन से है।”
- बृहद अंग्रेजी-हिन्दी कोश भाग-1- डॉ हरदेव बाहरी पृ. स. 1106
- मानक हिन्दीकोश पृ. स. 903
- अंग्रेजी हिन्दी शब्दकोश पृ. स. 218
- सं. अभयकुमार दुबे, भारत का भूमंडलीकरण, पृ. स. 444
- आक्सफोर्ड अंग्रेजी कोश, पृ. स. 156
- संपादक भोलानाथ: हिन्दी पर्यायवाची कोश, पृष्ठ-257
पुरुष विमर्श क्या है?
पुरुष के चारित्रिक विशेषताएँ और उनके सामाजिक, आर्थिक परिस्थितियों के विश्लेषण को ‘पुरुष विमर्श’ कह सकते हैं। पुरुष समाज का केन्द्र बिंदु है। वह सदियों से समाज के सभी गतिविधियों में प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से क्रियाशील रहा है। परिवार, सामाजिक व्यवस्था का मूल रूप एवं प्राथमिक संस्था है और पुरुष इस संस्था का प्रमुख आधार स्तंभ है जो परिवार के सभी कार्य विधानों में प्रमुख पात्र का निर्वाह करता है। इस प्रकार वह परिवार का संरक्षक और संचालक है।
मानव सभ्यता के आरंभिक काल में पुरुष शब्द का प्रयोग ‘नर’ के अर्थ में हुआ करता था। जैसे-जैसे उसके पारस्परिक सम्बन्ध बढ़ते गए, वैसे-वैसे पुरुष की पहचान अलग-अलग ढंग से होने लगी। उदाहरण के लिए- पिता, भाई, काका, चाचा आदि अनेक रूपों में पुरुष शक्ति है। वह वंश परम्परा को बनाए रखने में करणीभूत है।
परिवार पर धीरे-धीरे पुरुष का नियंत्रण बढ़ता गया, धीरे-धीरे यह प्रभाव समाज में परिवर्तित हुआ, फिर राजनीति, धर्म और जीवन के सभी क्षेत्रों पर पुरुष अपना वर्चस्व थोपना शुरू किया। इससे पुरुष प्रधान संस्कृति का उदय हुआ।
कूल मिलाकर पुरुष का स्वरुप वैविध्यपूर्ण है। एक ओर वह मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में है, तो दूसरी ओर वह खलनायक के रूप में भी दीखता है। वह अपने परिवार के लिए आजीवन संघर्ष करनेवाला एक ज़िम्मेदार व्यक्ति है, तो दूसरी ओर नकारात्मक कार्यों में लिप्त भी दिखाई देता है। इसप्रकार पुरुष एक ही समय में अनेक भूमिकाओं का निभाने वाला चरित्र भी है। आज भी परिवार की सभी जिम्मेदारी उसी पर थोप दी गई है। आर्थिक स्त्रोत का वह केन्द्र रहा है। परिवार के भरण-पोषण की सभी जिम्मेदारी उसी पर डाल दिया गया है। इस प्रकार देख सकते हैं कि पुरुष का स्वरुप अलग-अलग दृष्टियों से विश्लेषण करने पर वैविध्य रूप से पुरुष विमर्श परिलक्षित होता है। पुरुष अपने इस दायित्व के निर्वाह में पथ पर आनेवाले अनेक समस्याओं, सवालों तथा जटिलताओं का सामना करते हुए किस प्रकार अपने लक्ष्य में अग्रसर होता है इसके ओर प्रकाश डालने की प्रक्रिया ‘पुरुष विमर्श’ कहलाता है।
हिन्दी साहित्यों में पुरुष विमर्श
इस सदी के बदलते परिस्थितियों तथा चेतना का प्रतिफल उक्त समय में रचे गए रचनाओं में स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होता है। श्रीलाल शुक्ल, मोहनदास नैमिशराय, कमलेश्वर, डॉ० राजेन्द्र श्रीवास्तव, मनमोहन सहगल, गिरिराज किशोर आदि उपन्यासकारों ने अपने उपन्यासों में समकालीन समय के प्रमुख गतिविधियों पर प्रकाश डाले हैं।
श्रीलाल शुक्ल द्वारा रचित ‘रागविराग’ उपन्यास में बुनियादी संस्कृति के विषय में विचार व्यक्त किया है। इस उपन्यास का प्रमुख पुरुष पात्र शंकरलाल है। वह ग्रामीण सांस्कृतिक परिवेश को प्रतिनिधित्व करता है। उसमे प्रबल आत्मविश्वास कर्मठता तथा सभी मानवीय मूल्यों का समावेश हुआ है। लगातार प्रयासों के बावजूद भी वह मेडिकल टेस्ट में सफल नहीं हो पाता है और एम. एस. सी. की उपाधि वह अत्यधिक अंकों के प्राप्त कर लेता है। मेडिकल के अध्ययन के समय उसकी सहपाठिनी सुकन्या से लगाव और भविष्य में विवाहित होने के लिए वे सोच चुके थे। सुकन्या शंकरलाल के घर परिवार के बारे में जब यह जान जाती है कि वे सब गरीब ही नहीं अशिक्षित और कुसंस्कृत है। इस उपन्यास में सांस्कृतिक परिवेश और पुरुष का चित्रण कुछ विवेच्य उपन्यासों के माध्यम से किया गया है।
मोहनदास नेमिषराय द्वारा रचित ‘मुक्तिपर्व’ उपन्यास में वर्णाश्रम धर्म से शोषित पुरुष के रूप में बंशी और उसका बेटा सुनीत नज़र आते हैं। यह संघर्षशील दलित परिवार की कहानी है, जिसमे भारतीय समाज की विषमता से पूर्ण परिस्थितियों में अपने द्वंदों के साथ मुख्य पात्र अपने आत्मविश्वास के साथ जीना सीखते है। इस उपन्यास में धार्मिक असमानता के परिवेश में जूझता हुआ पुरुष पात्र का मार्मिक चित्रण है।
कमलेश्वर द्वारा रचित ‘अनबीता व्यतीत’ उपन्यास का प्रमुख चरित्र गौतम में संस्कृति चेतना का परिचय मिलता है। इस उपन्यास में आर्थिक परिस्थितयों से न केवल मध्यम या निम्न वर्ग का पुरुष ही जूझता है बल्कि उच्च वर्ग का पुरुष भी इससे अलग नहीं है।
डॉ राजेन्द्र श्रीवास्तव द्वारा रचित ‘मुँहबोली बहन’ उपन्यास का प्रमुख पात्र शेखर दिल्ली की सांस्कृतिक परिवेश में नया-नया आया था। लक्ष्मी ने शेखर को भाई माना तो शेखर बहुत खुश हुआ। आनंन्द का बड़ा भाई शांतनु दा लक्ष्मी पर गलत नजर डालकर उसे दैहिक मारपीट कर शोषण करने लगा। तब शेखर सच्चे भारतीय पुरुष के रूप में लक्ष्मी को सांत्वना देते हुए उसे मुक्ति का मार्ग सुझाता है।
मनमोहन सहगल द्वारा रचित ‘मिले सूर मेरा तुम्हारा’ उपन्यास में जट्ट एवं भैया संस्कृति का उल्लेख हुआ है। इसमें सदी के बदलते हुए राजनीति का सुंदर चित्रण है। राजनीतिज्ञ भोले-भाले किसानों को धोखा देकर वोटों को अपने जेब में भरते हैं और चुने जाने के बाद उनका बरताव किस प्रकार रहता है, ये सब इस उपन्यास में बदलते राजनीति पर व्यंग्य करते हुए सुंदर ढंग से चित्रित किया गया है।
ममता कालिया द्वारा रचित ‘दौड़’ उपन्यास में इस सदी के युवा पुरुष पर बदलते राजनीति के प्रभाव को सुंदर ढंग से चित्रित किया गया है। उपन्यास की मुख्य पात्रा स्टैला पवन से प्रेम करती है। भारतीय संस्कृति के अनुसार कोई भी स्त्री विवाह से पूर्व हम बिस्तर नहीं हो सकती है क्योंकि विवाह से पहले स्त्री-पुरुष एक दूसरे लिए के लिए पराये ही रहते हैं। विवाह के पश्चात ही वे सामाजिक, धार्मिक तथा नैतिक नियमों के आधार पर सम्मानित संबंध को प्राप्त करते है पर स्टैला विवाह से पूर्व ही पवन के साथ हमविस्तार बन जाती है। एक दिन पवन ने स्टैला का अपनी माँ से परिचय करवाया। पवन ने कहा, “माँ स्टैला मेरी बिजनेश पार्टनर, लाइफ पार्टनर, रूम पार्टनर तीनों है।” स्टैला ने कहा, “पवन डार्लिंग, जितने दिन मैम यहाँ पर हैं मैं छजलानी के यहाँ सोऊँगी।”1 यह स्टैला का व्यक्तित्व तथा नैतिक मूल्यों के पतन का स्पष्ट उदाहरण है। इससे पवन की माँ रेखा को गहरा अघात होता है। वह कहती हैं- “मैंने तो ऐसी कोई लड़की नही देखी जो शादी के पहले पति के घर में रहने लगे।”
“तुमने देखा है माँ? इलाहाबाद से निकलेगी तो देखेगी न। यहाँ गुजरात, सौराष्ट्र में शादी तय होने के बाद लड़की महीने भर ससुराल में रहती है। लड़का लड़की एक दूसरे के तौर-तरीके समझने के बाद ही शादी करते हैं।”2
इस प्रकार समकालीन हिन्दी उपन्यासों में नैतिक मूल्यों के पतन के संदर्भों को मार्मिक रूप से चित्रित किया गया है।
स्त्री और पुरुष मानव सभ्यता रूपी रथ के दो पहिये हैं जिनके व्यक्तित्व, विचार, रूचि, अभिरुचि आदि उनके जीवन चक्र में समानता और विषमता का रूप उनके विश्लेषणात्मक अध्ययन के अंतर्गत प्राप्त होते हैं।
नारी को आधी दुनियाँ कहाँ जाता है। वह एक ऐसी आधी दुनिया है, जो कदम-कदम पर पुरुष द्वारा अनुशाषित होती रही है, तरह-तरह से परिभाषित होती रही है। उस पर समग्रता से कभी विचार नहीं हुआ है। मृणालपांडेय के शब्दों में- “जिस प्रकार हाथी के चार भिन्न अंगों को छूकर चार अंधों ने हाथी के विषय में एक संपूर्ण मानस चित्र बनाया और
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उसकी ‘प्रमाणिकता’ को लेकर वे हठपूर्वक आपस में लड़ते रहे, ठीक उसी प्रकार सदियों से दार्शनिक, विचारक, साहित्यकार आदि भी अपनी दृष्टि-विशेष से नारी के एक पक्ष को संपूर्ण समझने-समझाने की भूल करते रहे हैं।”1 ठीक उसी तरह पुरुष भी एक सीमा तक ही स्वतंत्र रहा है और कई समय वह स्त्री के विचारों और इच्छाओं के अनुसार अपना जीवन क्रियाओं का पालन करता रहा है। सबसे पहले वह स्त्री को माता के रूप में अधिक सम्मान, प्रेम, आदर, भाव के साथ उसके अनुशासन का पालन करता है। साथ ही वह स्त्री को देवी, शक्ति, प्रकृति, अर्धांगिनी अथार्त पत्नी, बहन, दादी, दीदी, मौसी, मामी आदि उसके अनेक रूपों में सम्मान तथा प्रेमभाव युक्त व्यवहार का परिचय देता है। नारी को अपने जीवन का आधा भाग मानते हुए उसे अपने जीवन में महत्वपूर्ण स्थान देता है। पौराणिक काल के इतिहास में भी पुरुष के स्त्री-मर्यादा, स्त्री-आदर, स्त्री-संरक्षण का भाव युक्त व्यवहार दर्शित (मिलता) होता है। जिस प्रकार भगवान् शंकर ने सती को अपने शरीर का आधा स्थान प्रदान कर अर्धनारीश्वर कहलाये, भगवान् विष्णु अपने वक्ष में लक्ष्मी को स्थान प्रदान कर नारी सम्मान को उजागर किये उसीप्रकार रामकृष्ण परमहंस ने अपनी पत्नी शारदादेवी को शक्ति स्वरुपिणी मानकर पुरुष उदात्त चेतना का परिचय दिया है।
भारतीय परिवार पितृसतात्मक है। पितृसतात्मक परिवार की सामान्य विशेषताएँ हैं। जिसमे वंश पिता के नाम से चलता है और नारी घर की संचालिका रहती है। पुरुषों को अर्थोपार्जन के लिए बाहर के कार्य संभालना पड़ता है और नारी को गृहलक्ष्मी बनकर रहना होता है।
हिन्दी साहित्य के संदर्भ में स्त्री-पुरुषों के विविध रूपों को प्राचीन और नवीन मूल्यों, परंपरागत और परिवर्तित संवेदनाओं, अनुभूतियों एवं प्रवृतियों को सशक्त माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है।
साहित्य में पुरुष को भी पति, भाई, पिता के साथ-साथ विधुर, प्रेमी, आश्रयदाता आदि रूपों में चित्रित किया गया है। स्त्री की दयनीय स्थिति पर विचार करते हुए डॉ० सौभाग्य लक्ष्मी कहती है- “भारत के पितृसतात्मक प्रणाली में नारी की पराधीनता उसे चैन से जीने नहीं देती है वह पिता, पति या पुत्र पर निर्भर रहती है मगर जिसका कोई नहीं उसकी पूरी जिंदगी नरक सदृश्य है। समाज में वह शान्ति से जी नहीं पाती है कभी-कभी अपने स्वार्थ के पूर्ति के लिए एक स्त्री दूसरी स्त्री को भी बर्बाद करने के लिए कोई संकोच नहीं करती है।”2
- निज मन मुकुरु सुधारी-धर्मयुग लेख-मृणाल पांडये- अप्रैल-1987 पृ. सं. 19
- हिमांशु जोशी की कहानियाँ: एक अध्ययन- डॉ. वी. सौभग्य लक्ष्मी पृ. सं 170
निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि समाज रूपी राजपथ में परिवार को जीवन रथ माना जाए तो स्त्री-पुरुष उसके दो पहियें हैं।
उपसंहार: समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समझना किसी भी व्यक्ति के लिए आसान नहीं होता है। यदि कोई समझने का प्रयास भी करे तो वह केवल सामान्य और मोटी-मोटी उपरी बातों से ही उन्हें अवगत करा सकता है। मानव जीवन के विविधताओं का चित्रण अधिक से अधिक साहित्य में किया जा सकता है। उपन्यासकार इस कला में आगे होता है, क्योंकि उपन्यासों के माध्यम से हम व्यक्ति को पूर्णतः समझ सकते हैं।
हिन्दी साहित्य के उपन्यासों में पुरुष विमर्श के विविध अंशों पर प्रकाश डालते हुए इस युग के सांस्कृतिक मूल्यों को मापदंड बनाकर बदलते सांस्कृतिक परिवेश में पुरुष विमर्श का विश्लेषण करने के पश्चात धार्मिक परिवेश में पुरुष का व्यक्तित्व एवं स्वरुप का विवेचन, विवेच्य उपन्यासों के आधार पर करते हुए बदलते धार्मिक मूल्यों और उनका पुरुष पर हो रहे प्रभाव का दृष्टिपात किया गया है। पुरुष पर इस आधुनिक भौतिकवादी समय में सबसे अधिक प्रभाव समकालीन आर्थिक परिस्थितियों का हुआ है। आधुनिक युग की आर्थिक परिस्थितियाँ और पुरुष के विमर्शात्मक अध्ययन का प्रभाव यहाँ विवेच्य उपन्यासों के आधार पर करना पुरुष विमर्श का मुख्य उद्देश्य है।