हिन्दी का भाषिक स्वरुप: हिन्दी का स्वनिम व्यवस्था खंड्य और खंड्येतर (इकाई -1)

‘स्वनिम’ का अर्थ है ‘ध्वनि’। स्वनिम शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘फोनिक’ का नवीनतम हिन्दी अनुवाद है। स्वनिम के लिए अब तक ‘ध्वनिग्राम’ और ‘स्वनग्राम’ शब्द का प्रयोग होता रहा है। किन्तु भारत सरकार के पारिभाषिक एवं तकनीकि शब्दावली आयोग में ‘फोनिक’ का हिन्दी अनुवाद ‘स्वनिम’ कर दिया गया।

स्वनिम की परिभाषा:

भोलानाथ तिवारी के शब्दों में- “स्वनिम किसी भाषा की वह अर्थभेदक ध्वन्यात्मक इकाई है जो भौतिक यथार्थ में होकर मानसिक यथार्थ होती हैं तथा जिसमे एक से अधिक ऐसे उपसर्ग होते है जो ध्वन्यात्मक दृष्टि से मिलते-जुलते हैं। अर्थभेदक में असमर्थ तथा आपस में मुक्त वितरक होते है।”

देवेन्द्र नाथ शर्मा के शब्दों में- “स्वनिम उच्चरित भाषा का वह न्यूनतम अंश है, जो ध्वनियों का अंतर प्रदर्शित करते हैं।”

डॉ० तिलक सिंह के शब्दों में- “स्वनिम उच्चरित पक्ष की विषम स्वनिक अर्थ भेदक तत्व की  इकाई स्वनिम है।”

ब्लूम फील्ड व डेनियर जोन्स ने स्वनिम को– ‘भौतिक’ इकाई माना है।

एडवर्ड सापीर ने स्वनिम को– ‘मनोवैज्ञानिक’ इकाई माना है।

डेनियल जान्स के शब्दों में- “स्वनिम मिलते-जुलते ध्वनियों का परिवार है”

W. F. टवोडल ने स्वनिम को- ‘अमूर्त काल्पनिक’ इकाई माना है।

> स्वनिम विज्ञान के प्रवर्तक ‘महर्षि पाणिनि’ है।

> स्वनिम विज्ञान लिपि निर्माण का मूलाधार है।

‘स्वनिम’ शब्द ‘संस्कृत’ भाषा के ‘स्वन’ धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है ‘ध्वनि’। यह भाषा की सबसे लघुतम अखंड इकाई है। 

ध्वनि के तीन पक्ष होते हैं उत्पादन, संवाहन और ग्रहण।

‘स्वनिम’ किसी भाषा विशेष से संबंध लघुतम सार्थक ध्वनि है।

‘स्वनिम’ शब्द अंग्रेजी के ‘phoneme’ शब्द का हिन्दी अनुवाद है।

‘स्वनिम’ किसी भाषा या बोली में उच्चरित ध्वनि की सबसे छोटी इकाई है।

देवनागरी लिपि में- एक ‘स्वनिम’ के लिए एक ही चिह्न निश्चित है।

स्वनिम भाषा की ‘अर्थभेदक’ इकाई है।

हिन्दी स्वनिम दो प्रकार के है-

  1. खंड्य स्वनिम (Segmental phonemes)

      खंड्य स्वनिम के दो प्रकार है- ‘स्वर’ और ‘व्यंजन’

  • खंड्येतर स्वनिम (Supra-Segmental phonemes)

बलाघात, अनुताप, मात्र/दीर्घता, अनुनासिकता, संहिता/संगम,

खंड्य स्वनिम (Segmental phonemes)

ऐसी ध्वनियाँ जिन्हें हम स्वतंत्र रुप से उच्चरित कर सकते हैं। वे खंड्य स्वनिम कहलाती हैं। इनकी स्वतंत्र सत्ता होती है। ‘काल’ और ‘प्रयत्न’ की दृष्टि से इसका विश्लेषण किया ज़ा सकता है।

इसके दो भेद है:

‘स्वर’ और ‘व्यंजन’ इन्हें अलग–अलग किया जा सकता है।

स्वर-

अ आ इ ई उ ऊ ऋ ए ऐ ओं औ = मूल स्वर 11 है।

अं अ: = 2 अयोगवाह

अं (अनुस्वार),  अ: (विसर्ग)

ह्रस्व स्वर- अ, इ, उ, ऋ = 4

दीर्घ स्वर – आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ = 7

संयुक्त स्वर – ए, ऐ, ओ, औ = 4    

व्यंजन- (‘क’ से ‘ह’ तक 33 अक्षर है)

क वर्ग- क ख ग घ ङ

च वर्ग- च छ ज झ ञ

ट वर्ग- ट ठ ड ढ ण (कठोर व्यंजन)

त वर्ग- त थ द ध न  (ड, ढ उत्क्षिप्त व्यंजन)

प वर्ग- प फ ब भ म

य र ल व (अन्तस्थ व्यंजन)

य र ल व (अर्द्ध स्वर- 4)

श ष स ह (उष्ण व्यंजन- 4)

क्ष त्र ज्ञ श्र (संयुक्त व्यंजन- 4)

  • हिन्दी में नासिक्य व्यंजन विवादास्पद स्थिति उत्पन्न करते हैं।
  • ‘म’ तथा ‘न’ स्पष्ट स्वनिम हैं, जैसे- माला – नाला न्यूनतम युग्म मिलते हैं।
  • ‘न’ तथा ‘ण’ भी न्यूनतम युग्म अनु (हिन्दी का उपसर्ग) – अणु (कण के अर्थ में)

क आधार पर स्वतंत्र स्वनिम हैं इसके बावजूद कि हिन्दी में ‘ण’ को ‘न’ पढ़ने की प्रवृत्ति (जैसे- गुण को गुन, प्राण को प्रान) विद्यमान है।

  • स्वतंत्र स्वनिम है और ङ, तथा इसके उपस्वन  हैं।    

खंड्येतर स्वनिम (Supra-Segmental phonemes)

जिन ध्वनियों का स्वतंत्र उच्चारण नहीं हो सकता है। वे खंड्येतर स्वनिम कहलाते हैं।

खंड्येतर स्वनिम स्वतंत्र नहीं होते हैं। ये खंड्य स्वनिम पर निर्भर होते हैं। ये अव्यक्त तथा अविभाज्य हैं।

इसके मुख्य भेद निम्न हैं

बलाघात, अनुताप, मात्र/दीर्घता, अनुनासिकता, संहिता/संगम, ये सभी खंड्येतर स्वनिम हैं।

बलाघात (Stress, Loudness)  

भाषा के व्यवहार में किसी अक्षर पर कम या आधिक बल देने की अवस्था बलाघात कहलाता है। सामान्यतः बलाघात किसी स्वन विशेष पर नहीं होकर अक्षर पर ही होता है। जिस अक्षर पर अधिक बलाघात होता है उसका स्वर उच्च होता है। बलाघात के कम या अधिक होने के कारण शब्दों के अर्थ बदल जाते है।

उदाहरण- पिताजी ने मुझे दस रूपये दिये।

अर्थ- पिताजी ने मुझे दस रुपये दिये, औरों को नहीं।

अनुतान या सूरलहर- (Tone and Intonation)  

सामान्यतः अनुतान सुरों के उतार-चढ़ाव या आरोह-अवरोह का क्रम है जो एक से अधिक ध्वनियों की भाषिक इकाई के उच्चारण में सुना जा सकता है। सूर में एक ध्वनि होता है। अनुतान में एक से अधिक ध्वनियों का समावेश होता है। इसका संबंध स्वरतंत्रियों के कंपन्न में अंतर से है। स्वरतंत्रियों के कंपन्न को तान कहा जाता है। कंपन्न की अधिकता और कमी अथवा सामान्य स्थिति के आधार पर उच्च निम्न और सम तीन भेद किया जा सकता है। कंपन में यह अंतर जब शब्द पर होता है तब इसे अनुतान कहते हैं। शब्द या वाक्य उच्चारण करते समय सूर या अनुतान में अंतर होने से अभिप्राय बदल जाता है। इसके आधार पर वक्ता की मनःस्थिति का अनुमान भी लगाया जा सकता है।    

मात्रा / दीर्घता- (Length)

किसी भी ध्वनि के उच्चारण में लगने वाले समय को दीर्घता या मात्रा कहा जाता है। कुछ स्वानों के उच्चारण में कम समय लगता है और कुछ के उच्चारण में अपेक्षाकृत अधिक। इस दृष्टि से हिन्दी में ह्रस्व, दीर्घ दो रूप है। संस्कृत में ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत तीन मात्राएँ होती है।  

ह्रस्व: किसी स्वन में उच्चारण में लगने वाले समय की मात्रा कम है, जैसे- अ, इ, उ आदि।

दीर्घ: किसी स्वन में उच्चारण में लगने वाले समय की मात्रा अपेक्षाकृत अधिक है, जैसे- आ, ई, ऊ आदि। उदाहरण- बला – बल्ला, बचा – बच्चा, लगी – लग्गी आदि।

प्लुत: किसी स्वन में उच्चारण में लगने वाले समय की मात्रा बहुत अधिक है, जैसे- संस्कृत में ‘ओउम्’ का ‘ओउ’ यह सर्वोतम उदाहरण है। हिन्दी में प्लुत स्वन नहीं है। 

अनुनासिकता-

किसी भी ध्वनि के उच्चारण में जब हवा मुख के साथ-साथ नाक से भी निकले वे अनुनाशिक ध्वनियाँ कहलाती है। जैसे- सास – साँस, चाँद, हँस, चाँदनी, आँचल आदि।

संहिता / संगम- (Juncture) शब्दों अथवा वाक्य के उच्चारण करते समय शब्दों के स्वरों या व्यंजनों के बीच रिक्त-स्थान के कारण आया हुआ अर्थ परिवर्तन संहिता/संगम कहलाता है। यदि यह सीमा स्पष्ट नहीं हो तो अर्थबोध प्रभावित होता है और कई बार तो अर्थ का अनर्थ होने की संभावना बनी रहती है। उदाहरण- होली- हो ली, तुम्हारे- तुम हारे, आदि।

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