हिन्दी भाषा का उद्भव:
वैदिक संस्कृत (1500 ई० पू० से 1000 ई० पू०)
लौकिक संस्कृत (1000 ई० पू० से 500 ई० पू०)
प्रथम प्राकृत / पालि भाषा (500 ई० पू० से 0 ई० पू०)
द्वितीय प्राकृत / प्राकृत / शुद्ध प्राकृत (0 ई० पू० से 500 ई० पू०)
अपभ्रंश (500 ई० पू० से 1000 ई० पू०)
हिन्दी (1000 ई० पू० से अब तक)
अवहट्ठ कोई अलग से भाषा नहीं थी। यह हिन्दी का आरंभिक रूप था।
‘अवहट्ठ’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले मिथिला के ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने अपने ग्रंथ वर्णरत्नाकर में किया था।
वंशीधर (टिकाकार) ने ‘प्राकृत पैंगलम्’ की भाषा को ‘अवहट्ठ’ कहा है
इसी अवहट्ठ को अब्दुल रहमान ने ‘संदेशरासक’ में अवहट्ठ कहा।
चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ ने परवर्ती अपभ्रंश को ही ‘पुरानी हिन्दी’ कहा था।
इस अवहट्ठ को ‘प्राकृताभाष’ आचार्य रामचन्द्र शुक्त ने कहा।
इस ‘अवहट्ठ’ को ही विद्यापति ने ‘देसिल बयना’ कहा था।
विद्यापति ने अपनी ‘कीर्तिलता’ की भाषा को ‘अवहट्ठ’ कहा है।
डॉ भोलानाथ तिवारी ने अपभ्रंश और अवहट्ठ को एक ही भाषा माना है। अधिकांश विद्वान् से इनके मत से सहमत है।
अपभ्रंश के निम्नलिखित सात रूप थे:
1. मागधी अपभ्रंश- इससे चार भाषाओँ का विकास हुआ
बिहारी, बंगला, उड़िया, असमिया का विकास हुआ।
बिहारी हिन्दी से तीन बोलियों का विकास हुआ (मगही, मैथिली, भोजपुरी)
2. अर्द्धमागधी अपभ्रंश- अर्द्धमागधी अपभ्रंश से पूर्वी हिन्दी का विकास हुआ।
पूर्वी हिन्दी से तीन बोलियों का विकास हुआ – अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी।
3. महाराष्ट्री अपभ्रंश- इससे मराठी का भाषा विकास हुआ।
4. खस अपभ्रंश – खस अपभ्रंश से पहाड़ी हिन्दी का विकाश हुआ।
पहाड़ी हिन्दी की मुख्य तीन बोलियाँ है।
मंडियाली (हिमाचली), गढ़वाली, कुमाऊँनी।
5. शौरसेनी अपभ्रंश- शौरसेनी अपभ्रंश से तीन भाषाओं का विकास हुआ।
पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी, गुजराती
राजस्थानी से तीन बोलियों का विकास हुआ – जयपुरी, मेवाती, मारवाड़ी
6. पैशाची अपभ्रंश से- पंजाबी और लहंदा भाषा का विकास हुआ।
7. ब्रचाड़ अपभ्रंश- सिंधी
हिन्दी शब्द की उत्पति:
हिन्दी शब्द का संबंध संस्कृत के ‘सिंधु’ शब्द से है। ‘सिंधु’ ‘सिंध’ नदी को कहते हैं। यह ‘सिंधु’ शब्द ‘इरानी’ (फारसी) में जाकर ‘हिंदू’ हो गया। सरल होने के कारण यह ‘हिंद’ शब्द बना। इसका अर्थ था, सिंध प्रदेश यानी सिंधु नदी के आसपास का प्रदेश। बाद में इरानी भारत के और अधिक भू–भाग से परिचित होने लगे तथा हिन्द शब्द पुरे भारत का वाचक हो गया इसमें इरानी भाषा का ‘ईक’ प्रत्यय जुड़ने से ‘हिन्दीक’ शब्द बना जिसका अर्थ था ‘हिन्दी’ ‘का’ इसी हिन्दी शब्द से ‘इंडिका’ तथा अंग्रेजी में ‘इंडिया’ शब्द बना। कालांतर में ‘हिन्दीक’ शब्द से ‘क’ का लोप हो गया तथा ‘हिन्दी’ शब्द शेष रहा गया। आरम्भ में यह शब्द विशेषण था। जिसका अर्थ था – हिन्द प्रदेश से संबंधित।
भाषा के अर्थ में हिन्दी शब्द का प्रयोग सबसे पहले ‘शर्फुदीन यज्दी’ के जफर्नामा (1424 ई०) में मिलता है। ये तैमूरलंग के प्रपौत्र थे।
वर्तमान में हिन्दी शब्द का प्रयोग निम्नलिखित तीन अर्थों में हो रहा है।
विस्तृत अर्थ में:
विस्तृत अर्थ में हिन्दी का आशय है। इसमें 5 उप-भाषाएँ और 17 बोलियाँ है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में हिन्दी शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में होता है।
भाषा विज्ञान के रूप में:
भाषा विज्ञान में हिन्दी से तात्पर्य है। पश्चिमी एवं पूर्वी हिन्दी से इसमें 8 बोलियाँ हैं।
ब्रज, कन्नौजी, बुंदेली, खड़ीबोली, हरियाणी, अवधी, बघेली, छतीसगढ़ी।
संकुचित अर्थ में: संकुचित अर्थ में हिन्दी का तात्पर्य केवल खड़ीबोली से है।
हिन्दी भाषा की 5 उप-भाषाएँ तथा 17 बोलियाँ हैं :
उपभाषाएँ – बोलियाँ
पश्चिमी हिन्दी- खड़ीबोली या कौरवी, ब्रज भाषा, कन्नौजी, बुंदेली, हरियाणी/बाँगरु
पूर्वी हिन्दी- अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी
राजस्थानी हिन्दी- पश्चिमी राजस्थानी (मारवाड़ी)
पूर्वी राजस्थानी (जयपुरी)
उत्तरी राजस्थानी (मेवाती)
दक्षिणी राजस्थानी (मालवी)
पहाड़ी हिन्दी-
मध्यवर्ती पहाड़ी में- (गढ़वाली और कुमाऊँनी)
पश्चिमी पहाड़ी
बिहारी हिन्दी में- मगही, मैथिली और भोजपुरी
पश्चिमी हिन्दी की बोलियाँ एवं उनकी व्याकरणिक विशेषताएँ:
खड़ीबोली का उद्भव- खड़ी बोली का उद्भव अपभ्रंश के उत्तरवर्ती रूप में हुआ।
खड़ीबोली कहने के कारण:
डॉ० धीरेन्द्र वर्मा के अनुसार- “इसके वर्णों में खड़ी पाई की अधिकता है। अतः इसे खड़ी बोली
कहते है।”
उदयनारायण तिवारी के अनुसार- “यह खरी अथार्त कर्कस है। अतः इसे खड़ी बोली कहते है।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- “यह खरी अथार्त शुद्ध है। अतः इसे खड़ी बोली कहते है”
इसका समर्थन लल्लूलाल, नामवर सिंह और हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने भी किया है। अतः यह सर्वाधिक मान्यमत है।
खड़ीबोली का नामकरण:
उत्तरी अपभ्रंश / प्रारंभिक हिन्दी
सबसे पहले लल्लूलाल ने इसे ‘खड़ीबोली’ कहा।
शुक्ल, धीरेन्द वर्मा, राहुल सांकृत्यायन ने इसे ‘कौरवी’ कहा।
विद्यापति ने ‘देसिल बयना’ कहा था।
चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने ‘पुरानी हिन्दी’ कहा था।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘प्रकृताभास’ कहा था।
अब्दुल रहमान में ‘अवहट्ठ’ कहा था।
अमीर खुसरों ने हिंदी को ‘हिंदवीं’ कहा है।
गार्सा द तासी ने हिन्दी को ‘हिंदुई’ कहा है।
गिलक्रिस्ट ने इसे ‘टकसाली’ भाषा कहा।
डॉ सुनीति कुमार चटर्जी ने इसे ‘जनपदीय’ भाषा कहा था।
खड़ीबोली के प्रथम:
खड़ीबोली के प्रथम कवि- अमीर खुसरों थे।
उत्तरी भारत में खड़ीबोल, का सबसे पहले प्रयोग- गंग कवि (चंद-छंद वर्णन की महिमा में किया) “कभी न भडुआ रण चढ़े कभी न बाजी बंब।
सादर सभाहि प्रनाम करि विदा होत कवि गंग।”
दक्षिणी भारत में खड़ी बोली का प्रयोग सबसे पहले- मुल्ला वज्ही ने (सबरंग में किया था।)
खड़ीबोली गद्य की प्रथम शुद्ध या परिमार्जित रचना– ‘भाषायोग वाशिष्ठ’- रामविलास निरंजनी (1741 ई०)
खड़ीबोली हिन्दी का प्रथम महाकाव्य- प्रियप्रवास (1914 ई०) हरिऔंध की है।
अयोध्या प्रसाद खत्री ने (1885-1887 ई०) तक खड़ीबोली के समर्थन में आंदोलन चलाया था।
बाबू जगन्नाथ दास रत्नाकर ने खड़ीबोली के समर्थकों हठी और मूर्ख कहा।
वर्तमान में खाड़ीबोली की निम्नलिखित तीन शैलियाँ प्रचलन में हैं:
1. हिन्दुस्तानी- संस्कृत एवं अरबी, फ़ारसी के सभी प्रचलित शब्दों की प्रधानता है।
2. आर्यभाषा (साहित्यिक खड़ीबोली)- इसमें तत्सम शब्दों की प्रधानता है।
3. उर्दू (जबान-ए-उर्दू-मुअल्ला)- अरबी, फ़ारसी के शब्दों की प्रधानता है।
खड़ी बोली का क्षेत्र:
दिल्ली, मेरठ, आगरा, सहारनपु, मुरादाबाद, देहरादून, मुजफ्फर नगर, बिजनौर, रामपुर है।
खड़ी बोली का सर्वाधिक परिस्कृत रूप मेरठ में मिलता है।
डॉ० भोलानाथ तिवारी के अनुसार- मेरठ की खड़ीबोली को मानक रूप माना है।
खड़ी बोली की व्याकरणिक विशेषताएँ:
खड़ीबोली ‘आकार’ बहुला बोली है।
खड़ीपाई वाले वर्णों की इसमें प्रधानता होती है।
इसमें थोड़ी सी कर्कशता और स्पष्टता भी है।
इसमें 11 स्वर एवं 33 व्यंजनों का प्रयोग है।
वर्तमान में इसमें से ‘श’/ ष का लोप होता जा रहा है।
वर्तमान में खड़ी बोली की तीन शैलियाँ प्रचलन में है:
हिन्दुस्तानी शैली-
इस शैली में ‘संस्कृत’ एवं ‘उर्दू’ के प्रचलित शब्दों का प्रयोग है।
इसे ‘हिन्दुस्तानी’ सबसे पहले ‘महात्मा गाँधी’ ने कहा।
महात्मा गाँधी इसी शैली को ‘राष्ट्रभाषा’ बनाने के पक्षधर थे।
साहित्यिक हिन्दी या आर्यभाषा (शुद्धखड़ी बोली)- जिसमें तत्सम शब्दों की प्रधानता हो।
उर्दू शैली– जिसमे फ़ारसी के शब्दों प्रधानता हो।
इसे ‘जबान–ए-उर्दू-मुअल्ला’ के नाम से जाना जाता है।
हिन्दी शब्द की उत्त्पति:
सिंधु (वैदिक संस्कृत में) सिंधु नदी का नाम था।
सिंध (लौकिक संस्कृत) सिंध भी नदी का नाम था।
हिंद (ईरानी / फारसी) हिंद नदी का नाम था।
हिंदीक (ईरानी / फारसी) हिंदीक, हिंद का अथार्त सिंध के आसपास का प्रदेश।
हिन्दी (ईरानी /फ़ारसी) हिन्दी, हिन्दुस्तान से संबंधित।
भाषा के अर्थ में ‘हिन्दी’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले ‘शरफुद्दीन यज्दी’ की रचना ‘जफरनामा’ (1424 ई०) में मिलता है।
वर्तमान में हिन्दी शब्द का प्रयोग निम्न लिखित 3 अर्थों में होता है।
व्यापक अर्थ में- 5 उप भाषाएँ और 17 बोलियाँ है।
भाषा विज्ञान में – पश्चिमी एवं पूर्वी हिन्दी से है।
संकुचित अर्थ में – खड़ीबोली से है।
हिन्दी की बोलियों की विशिष्टता:
आकार बहुला बोली- खड़ीबोली बोली, हरियाणी, दक्खिनी
ओकार बहुला बोल – ब्रजभाषा, बुंदेली, कन्नौजी, मारवाड़ी, मालवी, कुमाऊँनी और गढ़वाली
‘ट’ वर्ग बहुला बोली- मेवाती, मालवी, जयपुरी, मारवाड़ी
उदासीन आकार बहुला बोली- अवधी, बघेली