- भरतमुनि:
- भारत में भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा के सूत्रपात भरतमुनि से माना जाता है।
- बलदेव उपाध्याय ने इनका समय द्वितीय शताब्दी माना है।
- इनका सर्वमान्य समय 200 ई० पूर्व से 300 ई० पूर्व के मध्य माना जाता है।
रचना:
- ‘नाट्यशास्त्र’ इनकी एकमात्र रचना है।
- इसमें 36 अध्याय और 5000 हजार श्लोक है।
- इसकी टीका ‘अभिनवगुप्त’ ने ‘अभिनव भारती’ के नाम लिखा है।
- ये रस सम्प्रदाय या रस सिद्धांत के संस्थापक है।
- उन्होंने नाट्यशास्त्र और नाटक दोनों को ‘पंचम वेद’ माना है।
- नाट्यशास्त्र के षष्ठम एवं सप्तम अध्यायों में रस की विवेचना की गई है
भरतमुनि का रस सूत्र है- “विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पति:”
उन्होंने नाटक को वांडमय का सर्वश्रेष्ट रूप स्वीकार किया है।
भरतमुनि ने नाटक के चार अंग माने जाते है:
1.पाठ्य या वस्तु तत्व 2. अभिनय 3. संगीत और 4. रस।
इसमें रस को इन्होंने प्रथम तीन अंगों का नियंता माना है।
भरतमुनि ने रसों की संख्या आठ (8) मानी है:
श्रृंगार, करुण, हास्य, विभत्स, वीर, रौद्र, अद्भूत और भयानक रस हैं।
शांत रस को इन्होंने रस नहीं माना है।
भरतमुनि ने ‘वीर रस’ के निम्न तीन भेद माने हैं :
1.युद्धवीर 2. धर्मवीर 3. दानवीर।
इन्होंने ‘हास्य रस’ की उत्पति ‘श्रृंगार रस’ से मानी है।
इन्होंने चार प्रधान रस माने हैं :
- श्रृंगार रस (हास्य) 2. वीर रस (अद्भूत) 3. रौद्र रस (करुण) 4. वीभत्स रस (भयानक) की उत्पति मानी जाती है।
नाट्यशास्त्र में श्रृंगार की निम्न दो भेद है:
संयोग श्रृंगार और विप्रलंभ श्रृंगार
भारतमुनि के नाट्यशास्त्र में चार (4) अलंकारों का उल्लेख मिलता है:
- उपमा 2. दीपक 3. यमक 4. रूपक
- उन्होंने काव्य गुणों की संख्या 10-10 माने है।
- उन्होंने नाट्यशास्त्र में भावों की संख्या 49 माने है।
- 33 संचारीभाव, 8 स्थाई भावसात्विक, 8 सात्विक भाव माने है।
- नाट्यशास्त्र के 24वें और 34वें अध्यायों में नायक नायिका के भेद का भी चित्रण है।
- उन्होंने वीभत्स रस को नाटक के लिए वर्जित रस माना है।
2. भामह:
- आचार्य भामह संस्कृत भाषा के सुप्रसिद्ध आचार्य थे।
- भामह कश्मीर के निवासी थे।
- बलदेव उपाध्याय ने इनका समय 6ठी शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना है। (सर्वमान्य है)
- ये अलंकार संप्रदाय के प्रवर्तक है।
रचना:
- ‘काव्यालंकार’
- इसमें 6 परिच्छेद, 400 सौ पद्य, लगभग 4000 श्लोक हैं।
- प्रथम परिच्छेद में- काव्य लक्षण, काव्य के भेद साधन है।
- दूसरा और तीसरा परिच्छेद में- अलंकारों की विवेचना है।
- चतुर्थ परिच्छेद में- काव्य दोष की विवेचना है।
- पंचम परिच्छेद में- न्याय विरोधी दोषों की विवेचना है।
- षष्ठ परिच्छेद में- शब्द शुद्धि की विवेचना है।
- उन्होंने 2 शब्दालंकारों और 36 अर्थालंकारों की विवेचना किया है।
काव्य लक्षण: “शब्दार्थों सहितौ काव्यम्”
अलंकार विषयक प्रसिद्ध कथन:
- “न कांतमपि निर्भूष विभाति वनिता मुखम्।”
- उन्होंने वक्रोक्ति को सभी अलंकारों का आधार माना है।
- इन्होंने ‘वैदर्भी’ और ‘गौडी’ दोनों रीतियों को एक ही माना है।
- उन्होंने काव्य के गुणों की संख्याऑ तीन (3) और दोषों की संख्या दस (10) माना है।
- उन्होंने काव्य में प्रीति की अपेक्षा कीर्ति पर अधिक जोड़ दिया है।
3. आचार्य दण्डी :
- ये पल्लव नरेश विष्णुसिंह के सभापति थे।
समय: इनका समय 7वीं शताब्दी है।
रचनाएँ: 1. दसकुमार चरित 2. छंदों विचिति 3. काव्यादर्श 4. अवंतीसुंदरी कथा।
- काव्यादर्श अलंकार शास्त्र का प्रसिद्ध ग्रंथ है।
- इसमें तीन परिच्छेद और 600 श्लोक है।
- दण्डी अलंकारवादी आचार्य माने जाते है।
- उन्होंने अलंकारों की संख्या 35 मानी है।
- उन्होंने भी अलंकारों का मूल अतिश्योक्ति को माना है
अलंकार की परिभाषा: “काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षेते्।”
- काव्य रीतियों की विवेचना दण्डी ने किया था। (लेकिन रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तक वामन थे)
- उन्होंने ‘रीति’ के लिए ‘मार्ग’ शब्द का प्रयोग किया है।
- उन्होंने नाटक को ‘मिश्र काव्य’ कहा है।
- उन्होंने शब्दालंकारों’ की अपेक्षा ‘अर्थालंकारों’ को काम महत्व दिया है।
4. उद्भट/ भट्टोंदभट्ट के नाम से भी जाना जाता है।
समय: (अज्ञात है)
- उन्होंने भामह के ‘काव्यालंकार’ की टीका (व्याख्या) ‘भामहवृति’ के नाम से लिखा है।
- इस टिका को ‘अलंकार सार संग्रह’ या ‘भामह विवरण’ के नाम से जाना जाता है।
- इनकी एक मौलिक रचना भी है, जिसका नाम ‘अलंकार संग्रह’ है।
- अलंकार सार संग्रह में 6 वर्ण (अध्याय) तथा 79 कारिकाएँ है।
इन्होंने श्लेष अलंकार के दो भेद माने हैं : 1. शब्दश्लेष 2. अर्थश्लेष
- इन्होंने ‘श्लेष’ अलंकार को ‘अर्थालंकार’ माना है। (जो मान्य नहीं हुआ)
भामह ने दो ही वृतियाँ मानी है: 1. ग्राम्य 2. उपनागरिका
- इन्होंने उद्भट के तीन वृतियाँ मानी है: 1. परुषा 2. ग्राम्य 3. उपनागरिका
- इन्होंने ‘उपमा’ अलंकार के व्याकरण आश्रित भेदों की कल्पना की है।
- इन्होंने अतिश्योक्ति अलंकार के चार (4) भेद माने हैं।
5. वामन:
समय: 8 वीं शताब्दी का उतरार्द्ध माना जाता है।
- ये कश्मीर नरेश ‘ज्यापीड़’ (ज्यादित्य) के मंत्री थे।
रचना: ‘काव्यालंकार सूत्र’ है।
- इनमें पाँच (5) परिच्छेद, 319 सूत्र है।
- वामन ‘रीति’ सम्प्रदाय के प्रवर्तक है।
इन्होंने रीति की परिभाषा देते हुए कहा है कि– “विशिष्ट: पद रचना रीति।”
- इन्होंने रीति को काव्य की ‘आत्मा’ माना है और कहा- “रीतिरात्म काव्यस्य।”
- भामह और दण्डी दो ही रीतियाँ मानते थे- ‘वैदर्भी’ और ‘गौड़ी’।
- वामन ने ‘पांचाली रीति’ की उद्भावना की थी।
- वामन ने काव्य गुणों की संख्या 20 मानी है (10 शब्दगुण और 10 अर्थगुण)
- उन्होंने उपमा को मुख्य अलंकार माना है।
- अलंकार की परिभाषा देते हुए इन्होने कहा है-“सौंदर्यम् अलंकारः।”
- इन्होंने सभी अलंकारों को ‘उपमा अलंकार’ पर आश्रित माना है।
- इन्होंने ‘व्याजोक्ति’ नामक नवीन अलंकार की उद्भावना की।
- वामन को सही अर्थों में ‘काव्य विद्या’ का प्रथम आचार्य माना जाता है।
6. रुद्रट
समय: 9 वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना जाता है। (825 ई० के लगभग)
इनका वास्तविक नाम: शतानंद था ।
रचना: ‘काव्यालंकार’
- रुद्रट अलंकारवादी आचार्य है।
- ‘काव्यालंकार’ में 16 अध्याय और 748 पद्य है।
- सर्वप्रथम इन्होंने अलंकारों की वैज्ञानिक विवेचना किया।
- इन्होंने सबसे पहले नायिका के ‘स्वकीया’ और ‘परकीय’ दो भेद किए।
- इन्होंने प्रयान’ नामक ‘दशम् रस’ को मान्यता दिया।
- ‘शांत रस’ का इन्होने विस्तार से व्यंजना किया है।
- ‘भाव’ नामक इन्होंने नवीन अलंकार की कल्पना किया।
- ‘एकावली’ अलंकार के जनक रुद्रट को ही माना जाता है।
- इन्होंने ‘प्रतिभा’ के दो भेद किए है- 1. ‘सहज’ और 2. ‘उत्पाद्दा’
7. अनंदवर्द्धन: 9वीं शताब्दी का मध्य भाग माना जाता है।
- ये कश्मीर के शासक अवन्तिवर्मा के सभा पंडित थे।
रचना: ‘ध्वनायालोक’
- इसमें चार (4) अध्याय है। इन अध्यायों को ‘उद्दोत’ कहा गया है।
- अनंदवर्द्धन ‘ध्वनि सिद्धांत या संप्रदाय’ के प्रवर्तक हैं।
- इन्होंने ध्वनि को काव्य की ‘आत्मा’ माना है।
- इन्होंने ध्वनि सिद्धांत का मूल आधार ‘व्यंजना शब्द शक्ति’ को माना है।
इन्होंने ध्वनि के तीन भेद किए हैं :
- वस्तु ध्वनि 2. अलंकार ध्वनि 3. रस ध्वनि
- ‘रस ध्वनि’ को इन्होंने सर्वश्रेष्ठ भेद माना है।
इन्होंने व्यंग्यार्थ के आधार पर काव्य के निम्नलिखित तीन भेद दिए है:
- ध्वनिकाव्य 2. गुणीभूत व्यंग्य काव्य 3. चित्र काव्य
ध्वन्यालोक की टीका को अभिनवगुप्त ने ‘ध्वन्या लोचन’ के नाम से लिखा।
8. राजशेखर:
समय: 10 वी शताब्दी का पूर्वार्द्ध भाग
रचना: ‘काव्यमीमांसा’
इन्होंने चार नाटक लिखे-
- बाल रामायण 2. बाल महाभारत 3. बिद्धशाल भज्जिका 4. कर्पुर मंजरी
- ये अलंकार वादी आचार्य हैं।
इन्होंने प्रतिभा के दो भेद किए हैं –
- कारयित्री 2. भावयित्री
- इन्होंने ‘वचन विन्यास क्रम’ को ही ‘रीति’ कहा है।
- इन्होंने ‘मागधी’ रीति की कल्पना किया था।
- इन्होंने कवि की सात (7) अवस्थाओं का उल्लेख किया है।
9. शंकुक:
समय: 9 वीं शताब्दी का उतरार्द्ध माना जाता है।
- ये कश्मीर के निवासी थे।
रचना: इनकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है।
- ‘शैव दर्शन’ में इनकी आस्था थी।
- ये भरतमुनि के रससूत्र के द्वितीय व्याख्याकार है।
- इनके मत को ‘अनुमिति वाद’ के नाम से जाना जाता है।
- इन्होंने ‘संयोग’ का अर्थ ‘अनुमाप्या’-‘अनुमापक’ माना है।
- इन्होंने रस की स्थिति ‘सहृदय’ में माना है।
10. भट्टनायक
समय: इनका समय 9वीं-10वीं शताब्दी माना जाता है
रचना: ‘हृदय दर्पण’ (उपलब्ध नहीं है)
- इसकी रचना इन्होंने ध्वनि सिद्धांत के खंडन के लिए किया था।
- इन्होंने व्यंजना ‘शब्द शक्ति’ की महत्ता को अस्वीकार कर ‘भावकत्व’ एवं ‘भोजकत्व’ व्यापारों की कल्पान की।
- रस निष्पति के संदर्भ में इन्होने ‘भुक्तिवाद’ का प्रतिपादन किया।
- रस सिद्धांत में ‘साधारणीकरण’ का समावेश इनकी सबसे बड़ी देन मानी जाती है।
- इन्होंने रस ध्वनि को अमान्य माना है।
- रस को इन्होंने ‘भावना का व्यापार’ माना है।
11. अभिनवगुप्त:
समय: 10 वीं शताब्दी का उतरार्द्ध भाग
- अभिनवगुप्त कश्मीर के निवासी थे।
- इन्होंने ‘नाट्य शास्त्र’ की टीका ‘अभिनव भारती’ तथा ध्वन्यालोक की टीका ‘ध्वन्यालोक लोचन’ के नाम से लिखी।
- इनके द्वारा रचित रचनाओं की संख्या 41 मानी जाती है।
इन्होंने प्रतिभा के दो भेद मानी है।
- आख्या 2. उपाख्या
- इनके रस सिद्धांत को ‘अभिव्यक्ति वाद’ के नाम से जाना जाता है।
- इन्होंने ‘निष्पति’ का अर्थ ‘अभिव्यक्ति’ एवं ‘संयोग’ का अर्थ ‘व्यंग्य व्यंजक’ ग्रहण किया है।
- इन्होंने ‘हास्य रस’ को ‘सर्वसाधारण रस’ कहा है।
12. कुंतक: इनका एक अन्य नाम (कुंतल) भी है।
समय: इनका समय 10 शताब्दी के उतरार्द्ध माना जाता है।
- ये कश्मीर के निवासी थे।
रचना: ‘वक्रोक्ति जीवितम्’ इसमें चार अध्याय है, जिन्हें ‘उन्मेष’ कहा गया है।
- ये वक्रोक्ति संप्रदाय के प्रवर्तक थे
इन्होंने वक्रोक्ति के छह भेद किये हैं :
- वर्ण विन्यास वक्रता 2. पद् पूर्वार्द्ध वक्रता 3. पद् परार्ध वक्रता 4. वाक्य वक्रता 5. प्रकरण वक्रता 6. प्रबंध वक्रता
इन्होंने काव्य निम्नलिखित तीन भेद माने हैं :
- चतुर वर्ग फल की प्राप्ति (धर्म, अर्थ, कर्म, मोक्ष)
- व्यवहार औचित्य (लोक व्यवहार की शिक्षा)
- अंतश्चमत्कार की प्रवृति (व्यवहारिक शिक्षा)
- कुंतक ने कवि के कर्म को ही काव्य कहा है।
परिभाषा: ‘कवे कर्म काव्यम्’
- इन्हें विचित्र अभिधावादी आचार्य माना जाता है।
13. धनंजय:
समय: 10वीं शताब्दी का उतरार्द्ध माना जाता है।
- ये राजा मुंज के सभापति माने जाते है।
रचना: ‘दशरूपक’ यह ‘नाट्यशास्त्रीय’ ग्रंथ है।
- इसके चार अध्याय हैं।
- इन अध्यायों को ‘प्रकाश’ के नाम से जाना जाता है।
- इनमे चार ‘प्रकाश’ और 300 सौ ‘कारिकाएँ’ हैं।
- इन्होंने ‘ध्वनि’ सिद्धांत का खंडन किया है।
इन्होंने प्रधान रस चार माने हैं :
- श्रृंगार रस 2. वीर रस 3. वीभत्स रस 4.रौद्र रस
इन्होंने श्रृंगार रस के निम्न तीन भेद किए:
- आयोग 2. विप्रयोग 3. संभोग
- इन्होंने काव्य या नाटक में शांत रस का अस्तित्व नहीं माना है ।
- इन्होंने रस की स्थिति सहृदय में स्वीकार किया है।
14. महिमभट्ट
समय: 11 वीं शताब्दी का मध्य माना जाता है।
- ये कश्मीर के निवासी थे।
रचना: ‘व्यक्ति विवेक’
- इसमें तीन अध्याय है, जिन्हें ‘विमर्श’ कहा गया है।
- इसमें लगभग 400 श्लोक है। ये ध्वनि विरोधी आचार्य है।
- इन्होंने एकमात्र ‘अभिधा’ को ही ‘शब्द शक्ति’ माना है।
- ‘लक्षणा’ एवं ‘व्यंजना’ का अंतर्भाव इसी में स्वीकार किया है।
- इन्होंने रस की स्थिति सहृदय में स्वीकार किया है।
15. भोजराज
समय: 11वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना जाता है।
रचनाएँ: इनकी कुल 85 रचनाएँ मानी जाती है।
महत्वपूर्ण रचनाएँ दो है:
- सरस्वती कंठाभरण 2. श्रृंगार प्रकाश
इन्होंने प्रतिभा के दो भेद माने हैं :
- आख्या 2. उपाख्या
- इन्होंने ‘रीति’ का अर्थ ‘कविगमन मार्ग’ ग्रहण किया है।
- इन्होंने ‘श्रृंगार रस’ को एक मात्र ‘सर्वभौमिक’ रस माना है।
- इन्होंने 12 रसों की विवेचना किया है।
- इन्होंने ‘उदात्त’ और ‘उदत्त’ दो नए रस माने है।
- इन्होंने ‘रीतियों’ की संख्या 6 माने है। जबकि रीति तीन ही होता है।
- इन्होंने 72 अलंकारों की विवेचना किया है।
16. मम्मट
समय: 11 शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जाता है।
- मम्मट को ध्वनि प्रस्थापना का परम आचार्य कहा जाता है।
रचना: ‘काव्यप्रकाश’ (अलंकारों से संबंधित रचन है)
काव्य की परिभाषा: “तददोषौ शब्दार्थो सगुणावनंलकृति पुनःक्वापि”
- ‘काव्यप्रकाश’ में 10 अध्याय है, जिन्हें ‘उल्लास’ कहा गया है।
- इन्होंने ‘काव्यगुणों’ को रस का धर्म माना है।
- इन्होंने काव्य प्रयोजन में आनंद को विशेष महत्व दिया है।
- इन्होंने ‘शक्ति’ ‘निपुणता’ और ‘अभ्यास’ को काव्य का हेतु माना है।
17. पंडितराज विश्वनाथ / कविराज विश्वनाथ:
समय: 14 वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना जाता है।
- ये उड़ीसा के शासक ‘उत्कल’ के ‘महासंधी विग्रहक’ के पद पर थे।
रचना: ‘साहित्यदर्पण’
- इसमें 10 अध्याय है, जिन्हें ‘परिच्छेद’ कहा गया है।
काव्य लक्षण- “वाक्यम् रसात्मकं काव्यं” अथार्थ रस से युक्त वाक्य ही काव्य है।
- इन्होंने ‘लाटी रीति’ का प्रवर्तन किया था।
इन्होंने वीर रस के चार भेद माने हैं :
- युद्धवीर 2. धर्मवीर 3. दयावीर 4. दानवीर
18. पंडितराज जगन्नाथ
समय: 17 वींशताब्दी का पूर्वार्द्ध माना गया है।
- ये आंध्रप्रदेश के निवासी ‘ब्राहमण’ थे।
रचना: ‘रसगंगाधर’ (पंडितराज की उपाधि शाहजहाँ ने दिया था)
काव्य लक्षण: “रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्” अथार्त सुंदर अर्थ का प्रतिपादन करने वाला वाक्य ही काव्य है।
इन्होंने काव्य के चार भेद किए हैं
- उत्तमोत्तम 2. उत्तम 3. मध्यम 4. अधम
19. अप्पय दीक्षित
समय: इनका समय 16 वीं शताब्दी का अंतिम चरण माना जाता है।
रचना: कोलयानंद, चित्र मीमांसा, और वृति वर्तिक है।
- ‘कोलयानंद’ यह अलंकार विषयक रचना है।
- यह जयदेव के चन्द्रलोक पर आधारित है।
- ‘कोलयानंद’ में 118 अलंकारों की विवेचना हुई है।
अन्य काव्य शास्त्री:
क्रम सं० | काव्यशास्त्री | समय | रचना |
1. | शारदा तनय: | 13 वीं शता.मध्य | भावप्रकाश |
2. | शोभाकर मित्र | 12 वीं शता.उतरार्द्ध | अलंकार रत्नाकर |
3. | विद्याधर | 14 वीं शता.पूर्वार्द्ध | एकावली |
4. | विद्यानाथ | 14 वीं शता.पूर्वार्द्ध | प्रतापरुद्र यशोभूषण |
5. | धनिक | 15 वीं शताब्दी | अवलोक |