रचना- अभंगपद
रचनाकार- नामदेव
- नामदेव संत काव्य के प्रवर्तक है।
- आरम्भ ये सगुणोंपासक रहें थे। बाद में निर्गुणोपासक हो गए।
- इन्हें ‘बरकरी’ संप्रदाय का प्रवर्तक भी माना जाता है।
- इनके सगुण पदों की भाषा ब्रजभाषा के समीप रही है।
- निर्गुण बानियों की भाषा खड़ी बोली मिश्रित साधुक्कड़ी कही जा सकती है।
- इसके अभंग पद प्रसिद्ध है।
- इनका समय 1270 ई० से 1350 ई० के मध्य माना जाता है।
- इनका जन्म महाराष्ट्र के एक दर्जी परिवार में हुआ था।
नामदेव के प्रसिद्ध पंक्तियाँ:
- कहा करउ जाती, कहा करउ पाती। राम को नाम, जपउ दिन राती।।
- तन मेरी सुई, मन मेरा धागा। खेचर जी के चरण पर नामा सिंपी लागा।।
- हिंदू पूजै देहुरा मुसलमाणु मसीत। नामें सोई सेविआ जह देहुरा न मसीत।।
- हिंदू अंधा तुरकू काणा, दोआ ते गियानी सियाणा।।
- पांडे तुम्हारी गायत्री लोधे का खेत खाती थी।
लै करि ठेंगा टंगरी तारी लंगत आती थी।।
- माइ न होती बाप न होते कर्म न होता काया।
हम नहिं होते तुम नहिं होते कौन कहाँ ते आया।।
- चाँद न होता सूर न होता, पानी पवन मिलाया।
शास्त्र न होता, वेद न होता करम कहाँ ते आया।।
रचनाकार- कबीर (1398 – 1518 ई०)
रचना – बीजक (इसका संकलन धर्मदास ने किया)
बीजक के तीन भाग है- साखी, सबद, रमैनी
कबीर के जन्म से संबंधित दोहा-
चौदह से पचपन साल गये, चंद्रवार इक ठाठ भये।
जेठ सुदी बरसायत को पूरनमासी तिथि परकट भये।।
कबीर के निधन से संबंधित जनश्रुति:
संवत् पंद्रह सौ पिचहत्तरा कियौ मगहर को गौन।
माघ सुदी एकादसी, मिल्यों पौन में पौन।।
कबीर के महत्वपूर्ण पंक्तियाँ:
1. सद्गुरु के परताप तैं मिटि गया सब दुःख दर्द।
कह कबीर दुविधा मिटी, गुरु मिलिया रामानंद
2. काशी में हम परकट भये रामानंद चेताये।
3. घट घट अविनासी है सुनहु तकी तुम शेख।।
4. जल में कुम्भ कुम्भ में जल है बाहर भीतर पानी ।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ।
5. काहे री नलिनी तूं कुमिलानी ।
तेरे ही नालि सरोवर पानीं ॥
6. बालम आवो हमारे गेह रे
तुम बिन दुखिया देह रे
7. रूखी-सूखी खाय के ठंडा पानी पीव।
देख पराई चूपड़ी, मत ललचावै जीव।।
8. गो-धन, गज-धन, बाजि-धन और रतन-धन खान।
जब आवत संतोष-धन, सब धन धूरि समान।।
9. घर में जोग भोग घर ही में, घर तज बन नहिं जावै
घर में जुगत-मुकत घर ही में जो गुरू अलख लखावै
10. मुझको कहाँ ढूंढे बंदे मैं तो तेरे पास में।
11. मैं कहता आँखिन की देखी,तू कहता कागद की लेखी।
12. हरि जननी मैं बालक तोरा।
13. हमन है इश्क मस्ताना हमन को होशियारी क्या?
14. दसरथ सूत तिहुँ लोक बखाना राम नाम का मरम न आना।
15. तुम जिन जानों गीत है यह निज ब्रह्म विचार।
16. माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर ।
कर का मन का डारि दे, मन का मनका फेर॥
17. मसि कागद छुवौ नहिं कलम गहि न हाथ।
18. रस गगन गुफा में अजर झरै।
19. सतगुरु हमसूँ रीझकर कह्या एक प्रसंग।
बदल बरस्या प्रेम का भीगी गया सब अंग।।
20. झिलमिल झगरा झूलके बाकी रही ना काहु।
गोरख अटके कालपुर कौन कहावै साहु।।
21. पंडित और मसालची इन दोनों सुझै नाहिं।
औरन कू करै चानिनौ आप अँधेरे माहिं।।
22. दुलहिन गावहु मंगलाचार
हमि घर आये राजा राम भरतार
23. संतों भाई आई ग्यान की आँधी रे।
भ्रम टाटी सबै उड़ानी माया रहे न बाँधी रे।।
24. पीछे लागा जाई था, लोक वेद के साथि।
आगे थे सतगुरु मिलया दीपक दिया हाथि।।
25. लाली तेरे लाल की जित देखूँ तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।
26. जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाही ।
सब अँधियारा मिट गया, दीपक देखा माही ।।
27. जाकै मुख माथा नाहि नाहि रूप कुरूप।
पुहुप बास ते पतरा ऐसा तत्व अनूप॥
28. भगति नारदी मगन सरीरा, इव विधि भव तिरु कहै कबीरा ॥
29. भक्ति भजन हरि नांव है, दूजा दुक्ख अपार।
30. प्रेम भगति ऐसी कीजिये, मुखि अमरित बरसे चंद रे।
आपही आप विचारिये, तब केता होइ अनंद रे॥
31. दिन भर रोजा रखत है रात हनत है गाय।
यह तो खूब वह बंदगी कैसे सुखी खुदाय।।
33. ऐसी वाणी बोलिये मन का आपा खोये।
औरन को सीतल करै आपहु सीतल होय।।
34. जी तोकूँ काँटा बुवै ताहि बोई तू फूल।
तोकूँ फूल से फूल है, वाको है त्रिशूल।।
35. प्रेम न खेतौ उपजै, प्रेम न हाट बिकाय
36. आखड़ियाँ झांई पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़ियाँ छाला पड्या, राम पुकारि-पुकारि।।
37. मैं कहता आँखन देखी, तू कहता कागद की लेखिन।
38. पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।
39. जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।
40. हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना।
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
41. पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
एक दिन छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।
42. माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।
43. तिनका कबहुं ना निंदए, जो पांव तले होए।
कबहुं उड़ अंखियन पड़े, पीर घनेरी होए॥
44. गुरु गोविंद दोऊं खड़े, काके लागूं पांय।
बलिहारी गुरु आपकी, गोविंद दियो बताय॥
45. साईं इतना दीजिए, जामै कुटुम समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधु ना भूखा जाय॥
46. धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय॥
47. कबीरा ते नर अंध है, गुरु को कहते और।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर॥
48. माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर।
आशा तृष्णा ना मरी, कह गए दास कबीर॥
49. रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय।
हीरा जनम अमोल है, कोड़ी बदली जाय॥
50. दुःख में सुमिरन सब करें सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे तो दुःख काहे होय॥
51. बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर॥
52. उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥
53. सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनाई।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाई॥
दादूदयाल- (1555- 1603 ई०)
रचना- जपुजी, असादीवार, रहिरास
दादूदयाल के महत्वपूर्ण पंक्तियाँ:
1.अपना मस्तक काट के वीर हुआ कबीर।
2. निरगुन ब्रह्मा को कियो समाधु, तबहि चले कबीरा साधु।
3. समदृष्टि सूँ भाई सहज में अपाहि आप बिचारा।
मैं तै मेरी यह मति नाहीं निरबैनी निरविकारा।।
4. नामदेव कबीर जुलाहौ जन रैदास तिरै।
दादू बेगि बार नहिं, हरि सौ सरै।।
5. जब लग नैन न देखिये रे, परकट मिलई न आइ।
एक सेज संग रहइ रे यह दुःख सहा न जाइ।।
6. इसक अलाह की जाति है,इसक अलाह का अंग।
इसक अलाह मौजूद है, इसक अलाह का रंग।।
7. घीव दूध में रमि रह्या,व्यापक सबही ठौर।
दादू बकता बहुत है, मथि काढै ते और।।
8. इस कलि केते हवै गये, हिंदू मुसलमान।
दादू साँची बंदगी, झूठा सब अभिमान।।
9. कहे लखे सो मानवी, सैन लखे सो साध।
मन की लखे सु देवता, दादू अगम अगाध।।
10 अंतर गति और कछु, मुख रचना कुछ और।
दादू करनी और कछु, तिनको नाही ठौर।।
सुन्दरदास- (1566- 1689 ई०)
रचना- भक्ति, नीतिपरक, कवित्त- सवैया
1.बोलिबो तो तब जब बोलिबो की बुद्धि होय।
जोरिबो तो तब जब जोरिबो की रीति जाने।।
2. रसिक प्रिय रस मंजरी और सिंगारहि जानि।
चतुराई करि बहुत विधि विषै बनाई आनि।।
विषै बनाई आनि लागत विषयनि कौ प्यारि।
जागे मदन प्रचंड, सराहै नख-शिख नारि।।
ज्यै रोगी मिष्टान्न खाइ रोगहि विस्तारै।
सुंदर यह गति होई जुटे रसिक प्रिया धारै।।
3. गेह तज्यो अरु नेह तज्यो पुनि खेह लगाई कै देह संवारी।
मेह सहे सिर, सित सहे तन, धूप सहे जो पंचागिनी बारी।।
भूख सही रहि रूख तरे सहे सुन्दरदास सबै दुःख भारी।
डासन छाडी कासन ऊपर आसन मारयो पे आस न मारी।।
4. एकनि के वचन सनत अति सुख होई, फल ते झरत हैं अधिक मन भावाने।
एकनि के वचन पखान बरसत मानौ, स्त्रवन के सुनतहिं लगत अखावने।।
मलूकदास- (1574 – 1682 ई०)
रचना- ज्ञानबोध और अवतार लीला
1.कहत मलूक जो बिन सिर खेपै, सो यह रूप बखानै।
या नैया के अजब कथा, कोई बिरला केवट जानै।।
2. कहत मलूक निरगुन के गुण, कोई बड़भागी गावै।
क्या गिरही और क्या बैरागी जेहि हरि देये सो पावै।।
3. अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।
दास मलूका कह गये, सबके दाता राम।।
4. माला जपौ न कर जपौ, जिभ्या कहौ न राम।
सुमिरन मेरा हरि करै, मैं पाया बिसराम।।
5. हरि डार न तोडिये, लागै छूरा बान।
दास मलूका यौ कहैं, अपना सा जीव जान।।
6. जहाँ जहाँ बच्छा फिरै, तहाँ तहाँ फिरै गाय।
कह मलूक जंह संत जन, तहाँ रमैया जाय।।
7. भेष फकीरी जे करे, मन नहिं आवै हाथ।
दिल फ़कीर जे हो रहे, साहेब तिनके साथ।।
8. दया धरम हिरदै बसे, बोले अमरत बैन।
तेई उँचे जानिये, जिनके नीचे नैन।।
स्वामी प्राणनाथ- (1653 – 1714 ई०)
रचना – कुलजम स्वरुप
1.छत्ता तेरे राज में धक् धक् धरती होय।
छित जित घोडा मुँह, तित तित फतै होय।।
2. अब सुनियो ब्रह्म सृष्टि विचार, जो कोई निज वतनी सिरदार।
अपने धनि श्री श्याम श्याम, अपना वासा है निज धाम।।
रज्जबदास
रचना – छप्पय
1.वेद सुवाणी कूपजाल, दुखसू प्राप्ति होय।
सबद साखी सरवर सलिल, सुख पीवै सब कोय।।
2. हाथ घड़े को पूजता, मोल लिए का मान।
रज्जब अघड़ अमोल की, खलक खबर नहिं जान
दरिया साहिब – (1674 – 1780 ई० बिहार वाले)
रचना- दरिया सागर, ज्ञान दीपक
1.माला टोपी भेस नहिं, नहिं सोना सिंगार।
सदा भाव सत्संग है, जो कोई गहै करार।।
चरणदास – (डेहरा, अलवर-राजस्थान)
1.आँसू पर आँसू गिरै, हेली यही हमारो हाल।
हिरदै में पावक जरै, हेली तपि नैना भये लाल।।
2. प्रीतम बिन कल न परहै, हेली कलकल सब अकुलानी।
डिगी परूँ सत न रहो, हेली कब पिय पकरे बाँहि।।
जगजीवनदास – (संतनामी संप्रदाय)
1.गगरिया मोरी चित्त सो उतरि न जाए
एक एक करवा एक कर उबहानि, बतियाँ कहौ अरथाय
2. सास ननद घर दारुण आहें, तासो जियरा डराय।
जो चित्त छूटे गागर फूटे, घर मोरि सासु रिसाय।।
पलटूदास – (बाबरी संप्रदय)
1.क्या तू सोवै बावरा चला जात बसंत
चला जात बसंत कंत ना घर में आये
धृत जीवन है तोर कंत बिनु दिवस गँवाए
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