काव्य हेतु शब्द का अर्थ होता है- ‘कारण’ जिन कारणों से काव्य की रचना या सर्जना की जाती है उसे काव्य हेतु कहते हैं। संस्कृत में ‘हेतुर्ना कारणं’ अथार्त ‘कारण’ को ‘हेतु’ कहते हैं। इसका अर्थ हुआ ‘काव्य के उत्पति के कारण।
डॉ नगेन्द्र के अनुसार- “किसी व्यक्ति में काव्य रचना की सामर्थ्य उत्पन्न करने वाले साधन या कारण को काव्य हेतु कहते हैं।”
बाबू गुलाबराय के अनुसार- “हेतु का अभिप्राय उन साधनों से है जो कवि के काव्य रचना में सहायक होता है।”
काव्यशास्त्रियों की दृष्टि में काव्य हेतु: संस्कृत काव्य शास्त्रियों के अनुसार –
1.आचार्य भामह
समय: 6ठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध, कश्मीर के निवासी थे। ये अलंकार संप्रदाय के प्रवर्तक थे।
रचना: ‘काव्यालंकार’ यह अलंकार शास्त्र है इसमें 6 अध्याय है जिन्हें परिच्छेद कहा गया है।
“गुरूपदेशादध्येतुं शास्त्रं जडधियोऽप्यलम्।
काव्यं तु जायते जातुं कस्यचित् प्रतिभावतः॥” (काव्यालंकार-1-14)
गुरु के उपदेश से श्रेष्ठ शास्त्रों का मुर्ख बुद्धि भी अध्ययन कर सकता है काव्य तो कोई प्रतिभाशाली ही बना सकता है। इन्होंने काव्य ‘प्रतिभा’ को काव्य हेतु माना है।
2. आचार्य दंडी
समय: 7वीं शताब्दी है। ये दक्षिण भारत के निवासी थे।
रचना: ‘काव्यादर्श’ इसमें 4 अध्याय है, जिन्हें परिच्छेद कहा गया है। इसमें 650 श्लोक हैं।
“नैसर्गिकी च प्रतिभा श्रुतं च बहुनिर्मलम्।
अमन्दश्चाभियोगोऽस्याः कारणं काव्यसंपदः॥”(काव्यादर्श-1 /103)
दंडी ने ‘प्रतिभा’, ‘शास्त्रों का ज्ञान’ और ‘अभ्यास’ को काव्य का हेतु माना है।
3. आचार्य वामन
समय: 8वीं शताब्दी का उतरार्द्ध, कश्मीर के निवासी थे
रचना: ‘काव्यालंकार सूत्रवृति’ इसमें (5 अध्याय है, जिन्हें परिच्छेद और 319 सूत्र है।)
इन्होने ‘काव्य हेतु’ के लिए ‘काव्यांग’ शब्द का प्रयोग किया है।
“लोको विद्या प्रकीर्णंच काव्यांगानि।” (काव्यालंकारसूत्रवृत्ति, 1/3/1)
‘लोक व्यवहार’ ‘विद्या’ और ‘प्रकीर्ण’ को काव्य हेतु माना है।
प्रतिभा को जन्मजात गुण मानते हुए इसे प्रमुख काव्य हेतु स्वीकार किया गया है-
“कवित्व बीजं प्रतिभानं कवित्वस्य बीजम्”।
कविता और कविता का बीज प्रतिभा है ‘लोक विद्या प्रकीर्ण’ व ‘प्रतिभा’ को काव्य हेतु माना तथा प्रतिभा को सबसे अधिक महत्व दिया है।
4. आनंदवर्धन
समय: 9वीं शताब्दी, कश्मीर के निवासी थे ।
रचना: ‘ध्वन्यालोक’ (इसमें 4 अध्याय है जिन्हें उद्योग कहा गया है।)
“न काव्यार्थ विरामोऽस्ति यदि स्यात् प्रतिभा गुणः।
सत्स्वपि पुरातन कविप्रबंधेषु यदि स्यात् प्रतिभागुण॥” (ध्वन्यालोक, 4/6)
इन्होने ‘व्युत्पति’ और ‘प्रतिभा’ दोनों को काव्य हेतु मानते हुए ‘प्रतिभा’ को अधिक महत्व दिया है।
5. रुद्रट
समय: 9 वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध, कश्मीर के निवासी थे।
रचना: ‘काव्यालंकार’ (इसमें 16 अध्याय और 734 श्लोक है।)
इन्होने ‘प्रतिभा’ को ‘शक्ति’ कहा है।
शक्ति के दो भेद किये है। ‘सहजा’ और ‘उत्पादया’
‘सहजा’ जो जन्म के साथ ही प्राप्त होता है।
‘उत्पादया’ जो शास्त्रशास्त्र, लोकानुभव और सत्संग से प्राप्त होता है।
6. अभिनवगुप्त
समय: 10 वीं शताब्दी के उतरार्द्ध, कश्मीर के निवासी थे।
इनकी कोई मौलिक रचनाएँ नहीं है।
इनकी सिर्फ टीकाएँ है:
‘अभिनव भारती’ (भरतमुनि के नाट्यशास्त्र का टीका)
‘ध्वन्यालोक लोचन’ (आनंदवर्धन के ध्वन्यलोक की टीका)
‘कव्य कौतुम विवरण’ (भट्टतौत के काव्य कौतुम की टीका है)
“प्रतिभा अपूर्व क्षमा वस्तु निर्माण प्रज्ञा।” अथार्त प्रतिभा अपूर्व वस्तु वस्तुओं के निर्माण में सक्षम है।
7. राजशेखर-
समय: 10वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध, ये कन्नौज के निवासी थे।
रचना: ‘काव्यमीमांसा’
“प्रतिभा व्युत्पत्ति मिश्रः समवेते श्रेयस्यौ इति”
अर्थात् प्रतिभा और व्युत्पत्ति दोनों समवेत रूप में काव्य के श्रेयस्कार हेतु हैं।
राजशेखर ने प्रतिभा के दो भेद किए है– ‘कारयित्री’ एवं ‘भावयित्री’
‘कारयित्री’ प्रतिभा जन्मजात होती है। इसका सम्बन्ध कवि या रचनाकार से है।
‘भावयित्री’ प्रतिभा का सम्बन्ध सहृदय पाठक या आलोचक से है।
‘कारयित्री’ प्रतिभा भी तीन प्रकार की होती है- ‘सहजा’, ‘आहार्या’ तथा ‘औपदेशिकी’।
‘सहजा’ अर्थात् जो पूर्व जन्म के संस्कार से उत्पन्न होती है तथा इसमें जन्मांतर संस्कार की अपेक्षा होती है।
‘आहार्या’ का उदय इसी जन्म के संस्कारों से होता है।
‘औपदेशिकी’ की उत्पत्ति मंत्र, तंत्र, देवता तथा गुरु आदि के उपदेश से होती है।
8. आचार्य मम्मट
समय: 11 वीं शताब्दी का उतरार्द्ध, ये कश्मीर के निवासी थे।
रचना: ‘काव्यप्रकाश’ (इसमें 10 अध्याय है, जिन्हें ‘उल्लास’ कहा गया है।)
“शक्ति: कवित्व बीज रूपः” इन्होने ‘शक्ति’ को कविता का बीज रूप माना है।
“शक्तिर्निपुणता लोक काव्यशास्त्राद्यवे क्षणात्।
काव्य ज्ञ शिक्षयाभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे॥” (काव्य प्रकाश 1/3)
‘शक्ति’ प्रतिभा का बीज रूप है। इन्होने ‘शक्ति’ ‘निपुणता’ और ‘अभ्यास’ को काव्य का हेतु माना है।
9. वाग्भट्ट (प्रथम)
मूलनाम: वाहट
समय: (1121 ई० से 1256 ई०)
रचना: ‘वाग्भटटालंकार’ (इसमें 5 परिच्छेद है।)
“प्रतिभा कारणम्तस्य व्युत्पत्तिस्तु विभूषणम्”
अथार्त प्रतिभा काव्य के उत्पति का कारण है तथा व्युत्पति प्रतिभा का आभूषण है।
10. वाग्भट्ट (द्वितीय)
समय: 14वीं शताब्दी
रचना: ‘काव्यानुशासन’ ‘छंदानुशासन’
इन्होने ‘काव्यानुशासन’ की टीका ‘अलंकार तिलक’ नाम से लिखा।
“प्रतिभैव च कवींना कारण कारणम्”
11. आचार्य हेमचंद्र 10 वीं शताब्दी (जैन आचार्य)
रचना: शब्दानुशासन’ ‘काव्यानुशासन’
इन्होने अपनी ग्रंथों की टीकाएँ खुद लिखी है।
‘विवेक’ ‘शब्दानुशासन’ की टीका है।
‘अलंकार चूड़ामणि’ ‘काव्यानुशासन’ की टीका है।
“प्रतिभाऽस्य हेतुः प्रतिभा नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा’’
अर्थात् “प्रतिभा काव्य का हेतु है, तथा नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा को ‘प्रतिभा’ कहते हैं”।
कथन: “व्युत्पत्याभ्यासौ तस्या एव संस्काकौ न तू कव्यहेतु।।” अथार्त व्युत्पति और अभ्यास उसके (प्रतिभा) के संस्कारक है, काव्य हेतु नही है।
12. केशवमिश्र
समय: 6ठी शताब्दी है
रचना: ‘अलंकारशेखर’, इसमें 8 अध्याय है, जिन्हें ‘रत्न’ कहा है।
“प्रतिभा कारणं तस्य व्युत्पत्ति विभूषणं।” अर्थात् प्रतिभा काव्य का कारण है तथा व्युत्पत्ति उसे विभूषित करती है।
13. पंडितराज जगन्नाथ
समय: 17 वीं शताब्दी का उतरार्द्ध, ये आंध्रप्रदेश के रहने वाले थे।
रचना: ‘रसगंगाधर’
इन्होंने अपने ग्रन्थ ‘रस गंगाधर’ में प्रतिभा’ को ही प्रमुख काव्य हेतु स्वीकार किया है।
“तस्य च कारणं कविगता केवलं प्रतिभा’’
इन्होने प्रतिभा के दो भेद किया है।
अदृष्टोत्पत्ति प्रतिभा (जन्मजात प्रतिभा)
दृष्टोत्पत्ति प्रतिभा (अभ्यास से उत्पन्न प्रतिभा)
आचार्य जगन्नाथ भी प्रतिभा को ही काव्य का मूल हेतु मानते हैं | उन्होंने व्युत्पत्ति और अभ्यास को प्रतिभा के कारण माना है |
14. भट्तौत:
समय: 9 वीं शताब्दी
रचना: ‘काव्यकौतुक’
“प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता।”
इन्होंने प्रतिभा को काव्य हेतु माना है।
14. जयदेव:
समय: 13 वीं शताब्दी के उतरार्द्ध, ये मिथिला के निवासी थे।
रचना: ‘चन्द्रलोक’ इसमें 10 अध्याय है, जिसे ‘मयूख’ कहा गया है।
“प्रतिभैव श्रुताभ्यास-सहिता कवितां प्रति ।
हेतुर्मृदम्बुसम्बद्धा बीजमाला लतामिव।।”
जयदेव ने ‘चन्द्रालोक’ में कहा है- ”श्रुत (व्युत्पत्ति) और अभ्यास सहित प्रतिभा ही कविता का हेतु है, जैसे मिट्टी-पानी के संयोग से बीज बढ़कर लता के रूप में व्यक्त होता है।
हिन्दी काव्य शास्त्रियों के अनुसार:
काव्य हेतु के संबंध में आधुनिक हिंदी विद्वानों का मत भी संस्कृत आचार्यों और रीतिकालीन आचार्यों से अधिक पृथक नहीं है। कुछ आधुनिक हिंदी विद्वानों ने प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास के लिए कुछ अलग शब्दों का प्रयोग अवश्य किया है लेकिन मूल रूप से आधुनिक हिन्दी विद्वान भी इन तीनों काव्य हेतुओं को ही स्वीकार करते हैं।
डॉ भागीरथ मिश्र के अनुसार– “कवि की सामाजिक, पारिवारिक या वैयक्तिक परिस्थितियां तो उसकी प्रकृति हैं जिससे उसे काव्य-रचना की प्रेरणा प्राप्त होती है और जिसके अभाव में या तो काव्य-रचना बिल्कुल नहीं होती अथवा होती भी है तो किसी अन्य रूप में।”
डॉक्टर गोविंद त्रिगुणायत के अनुसार– “मेरी समझ में काव्य की जनयित्री मनुष्य की प्राण भूत विशेषता उसकी मन की प्रवृत्ति है ; इस प्रवृत्ति ने ही पशु और मनुष्य में भेद स्थापित कर रखा है।” यहाँ ‘मननशीलता’ का अर्थ ‘अभ्यास’ और ‘व्युत्पत्ति’ लिया जा सकता है, परंतु डॉ त्रिगुणायत ने प्रतिभा का कोई उल्लेख नहीं किया है।
बाबू गुलाबराय ने आत्मविस्तार को काव्य का प्रेरक तत्व माना है- “भारतीय दृष्टि में आत्मा का अर्थ संकुचित व्यक्तित्व नहीं है विस्तार में ही आत्मा की पूर्णता है….ये सभी हृदय की ओज को उद्दिप्ताकर काव्य के प्रेरक बन जाते हैं।”
नंददुलारे वाजपेयी के अनुसार- “काव्य की प्रेरणा अनुभूति से मिलती है। यह स्वतः एक अनुभूत तथ्य है।” इससे स्पष्ट है, कि इन्होने ने भी प्रतिभा को काव्य का हेतु माना है।
निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास काव्य के मूल हेतु हैं। इन तीनों के समन्वित रूप से ही सुंदर काव्य-रचना हो सकती है। यही कारण है कि सभी आचार्यों ने तीनों का किसी न किसी रूप में उल्लेख अवश्य किया है। एक सफल कवि के लिए तीनों आवश्यक हैं। यह सही है कि कुछ विद्वान ‘प्रतिभा’ का उल्लेख न करके ‘अभ्यास’ और ‘व्युत्पत्ति’ का उल्लेख काव्य-हेतु के रूप में अवश्य करते हैं, लेकिन कहीं ना कहीं जागृत अवस्था में न सही सुप्त अवस्था में ही सही कवि में काव्य-रचना का प्रकृति प्रदत्त स्वाभाविक गुण आवश्यक होता है। जिसे प्रतिभा कहा जाता है। वस्तुतः प्रतिभा ही काव्य का मुख्य कारण है। शेष व्युत्पत्ति और अभ्यास गौण कारण हैं। प्रतिभा के बिना काव्य रचना नहीं हो सकती शेष दो कारणों के बिना काव्य रचना हो सकती है। व्युत्पत्ति और अभ्यास प्रतिभा-संपन्न कवि की काव्य-रचना को उत्कृष्ट अवश्य बनाते है।
पाश्चात्य काव्य शास्त्रियों के अनुसार:
प्लेटो के अनुसार- “काव्य सर्जना में हेतु, प्रतिभा, चिंतन, अध्ययन, अभ्यास और शिक्षण हैं।”
अरस्तू के शब्दों में- “सजगता, प्रतिभा, अभ्यास, चिंतन, कला चमत्कार और अध्ययन काव्य के हेतु है।”
वर्ड्सवर्थ के अनुसार- “वर्ड्सवर्थ ने प्रतिभा चिंतन अध्ययन तथा भावना के प्रति सत्यता को काव्य हेतु माना हैं।”
हीगल के शब्दों में- “मानव का जन्मजात सौंदर्य प्रेम, आत्मप्रदर्शन तथा अनुकरण की प्रवृति साहित्य सृजन की मूल प्रेरणाएँ है।”
क्रोचे ने अंतर्दृष्टि, अलंकार, कल्पना एवं विचार काव्य के हेतु है।”
फ्रायड ने ‘वासना के दमन की स्वस्थ प्रवृति’ को ही काव्य की प्रेरणा माना है।”
फ्रायड के सहयोगी ने काम वासना के स्थान पर मनुष्य की ‘अहं की स्थापना’ की प्रवृति को महत्वपूर्ण माना है।
एडलर के अनुसार- “मनुष्य जब व्यावहारिक जीवन में अपने प्रभुत्व को स्थापित नहीं कर पाता है तब उसके मन में हीन-भावना उत्पन्न होती है। इस हीन भावना से मुक्त होने के लिए वह काव्य-रचना या अन्य महत्वपूर्ण कार्य करने में प्रवृत होता है। इस प्रकार काव्य रचना के मूल में ‘हीनता ग्रंथि के निराकरण की प्रवृति’ कार्य करती है।”
मैथलीशरण गुप्त जी ने एडलर के क्षति-पूर्ति के सिद्धांत को मान्यता दी है “जो अपूर्ण कला उसी की पूर्ति है।” (साकेत प्रथम सर्ग)
अज्ञेय ने एडलर के ‘अहं की स्थापना’ के सिद्धांत का समर्थन किया है- “कला सामाजिक अनुपयोगी की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्न- अपर्याप्तता के विरुद्ध विद्रोह है।”