‘रस’ शब्द की व्युत्पति: रसˎ(धातु) + अच् (प्रत्यय) के योग से बना है।
‘रस’ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है ‘आनंद’ या ‘निचोड़’।
- काव्य को पढ़ने या सुनने में जिस आनंद की अनुभूति होती है उसे ‘रस’ कहते हैं।
- रस शब्द का उल्लेख सबसे पहले ‘ऋग्वेद’ में मनुष्य के भोजन के ‘स्वाद’ के रूप में मिलता है।
- ‘काव्यशास्त्र’ में ‘रस’ का प्रयोग सबसे पहले ‘भरतमुनि’ ने ‘नाट्यशास्त्र’ में किया था।
- भरतमुनि का समय ईसा पूर्व 1 से 3 शताब्दी के बीच मिलता है।
आचार्य भरतमुनि के कथन: “विभावानुभाव्यभिचारिसंयोगाद्ररस निष्पति:।”
अथार्त विभाव, अनुभाव, व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पति होती है
रस की परिभाषा: “काव्य को पढ़कर अथवा सुनकर तथा नाटक को देखकर सहृदय (पाठक) (प्रेक्षक, देखकर) को जिस आनंद की अनुभूति होती है। उसे ‘रस’ कहते हैं।
विश्वनाथ के शब्दों में- “रसयते आस्वादते इति रस:।” अथार्थ जिसका आस्वादन किया जाए, वही रस है।
उद्भट के शब्दों में – “सरते इति रसः।” अथार्त जो प्रवाहित होता है, वही रस है।
रस के चार अवयव या तत्व होते है:
- स्थाई भाव: (संख्या 9)
- विभाव: (संख्या 2)
- अनुभाव: (संख्या 4)
- संचारीभाव: (संख्या 33)
1.स्थाई भाव: वे भावनाएँ जो सुप्तावस्था में मानव के हृदय में हमेशा स्थाई रूप से विद्यमान रहती है तथा उनसे संबंधी (तत्संबंधी) कारण सामने आने पर जागृत हो जाती हैं, उन्हें स्थाई भाव कहते हैं।
निम्नलिखित 9 स्थाई भाव हैं :
रस श्रृंगारपुनि हास्य अरु, करुना रौद्र सुजान।
वीर, भयरू, वीभत्स पुनि, अद्भूत, शांत बखान।।
क्र० स० | रस | स्थाई भाव |
1. | श्रृंगार | रति |
2. | हास्य | हास |
3. | करुण | शोक |
4. | रौद्र | क्रोध |
5. | वीर | उत्साह |
6. | भयानक | भय |
7. | वीभत्स | घृणा (जुगुप्सा |
8. | अद्भूत | विस्मय |
9. | शांत | वैराग्य |
10. | वात्सल्य | स्नेह ( आ० विश्वनाथ) |
11. | भक्ति | देव रति (रूपगोस्वामी जी) |
स्थाई भाव 9 हैं पूरा रस 11 हैं (वत्सल और वैराग्य स्थाई भाव में नहीं लिया जाएगा)
2. विभाव: विशेष तरीके से उत्पन्न करने वाले तत्वों को विभाव कहते हैं।
परिभाषा: वे तत्व या माध्यम जो सुप्त या सोए हुए भावों को जाग्रत करते हैं, उसे विभाव कहते हैं।
विभाव के निम्नलिखित दो भेद हैं :
आलंबन विभाव (सहारा)- वे साधन, माध्यम, तत्व जो पहली बार सुप्त स्थायी भाव को जाग्रत करते हैं, उसे आलंबन विभाव कहते हैं।
उदाहरण: अचानक सेर को देखना
आलंबन विभाव के दो भेद हैं :
विषय आलंबन: जिसके कारण भाव पहली बार जाग्रत हो उसे विषय आलंबन कहते हैं।
आश्रय आलंबन: जिसके हृदय में भाव जाग्रत हो उसे आश्रय आलंबन कहते हैं।
उद्दीपन विभाव: वे तत्व, माध्यम, कारक, साधन जो जाग्रत हुए स्थायी भाव को और अधिक बढ़ा देते हैं, उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं।
उद्दीपन के दो भेद है:
स्वकीय उद्दीपन: ‘आलंबन की चेष्टाएँ’ स्वकीय उदीपन है।
परकीय उद्दीपन: ‘बाह्य वातावरण’ परकीय उद्दीपन है।
3. अनुभाव: स्थाई भावों के जाग्रत होने के उपरांत आश्रय द्वारा व्यक्त की गई चेष्टाएँ अनुभाव कहलाती हैं। (जिसके हृदय में भाव जाग्रत हो वह आश्रय है)
अनुभव के चार भेद होते है:
आंगिक (आचार्य विश्वनाथ) या कायिक (भारतमुनि) अनुभाव:
शारीरिक चेष्टाओं से व्यक्त करना।
वाचिक (भारतमुनि) या मानसिक (आचार्य विश्वनाथ) अनुभाव:
वाणी के द्वारा मनोभावों को अभिव्यक्त करना।
आहार्य अनुभाव: वेशभूषा के माध्यम से अपनी चेष्टाओं को व्यक्त करना
आंगिक अनुभाव, वाचिक अनुभाव और आहार्य अनुभाव ये तीनों यत्नज होते है
सात्विक अनुभाव होते: आश्रय की ऐसी चेष्टाएँ जो स्वतः हो जाती हैं। इसे सर्वश्रेष्ठ अनुभाव माना गया है। सात्विक अनुभाव को अयत्नाज कहते हैं क्योंकि इसमें कोई प्रयास नहीं करना पड़ता है। यह स्वतः घटित होती है।
सात्विक अनुभाव के आठ भेद हैं : (अयत्नज)
रोमांच: (रोंगटे खड़े होना, किसी अवस्था में रोंगटे खड़े होना)
स्वेद: (पसीना आना)
अश्रु: आँसू आना)
प्रलय: आसपास की स्थिति का ज्ञान नहीं होना
स्वरभंग: मुख से स्पष्ट आवाज नहीं निकलना
स्तंभ: खम्भे की तरह स्थिर हो जाना
वेपथु: भय, शीत आदि के कारण काँपना
वैवर्ण्य: चहरे का रंग परिवर्तित हो जाना, पीला, फीका आदि पड़ना)
4. संचारीभाव: भरतमुनि ने संचारीभाव को ‘व्यभिचारी’ भाव कहा है।
वे भावनाएँ जो निरंतर गतिशील रहे उसे ‘संचारीभाव’ कहते हैं। यह रस को अंतिम छोर तक पहुँचाने का कार्य करता है। वे भावनाएँ जो स्थिर नहीं हो, बीच-बीच में ये उठकर समाप्त होती रहती है। उन्हें संचारी भाव कहते हैं। ये रस को परिपुष्ट करती है।
भरतमुनि के अनुसार 33 संचारी भावों का उल्लेख मिलता है:
व्रीडा, व्याधि, विबोध, वितर्क, विशाद, उग्रता, उत्सुकता, उन्माद, असूया, अपस्मार, अमर्ष, औत्सुक्य, मति, मोह, मरण, मद, गर्व, ग्लानि, चपलता, चिंता, स्वप्न, स्मृति, शंका, श्रम, आवेग, आलस्य, निंद्रा, निर्वेद, जड़ता, त्रास, दैन्य, धृति, हर्ष।
संचारी भाव को याद करने का सबसे आसान तरीका ‘तालिका’ को देखें:
- ‘व’ से शुरू होने वाले 5 शब्द – व्रीडा, व्याधि, विबोध, वितर्क, विशाद
- ‘उ’ से शुरू होने वाले 3 शब्द – उग्रता, उत्सुकता, उन्माद
- ‘अ’ से शुरू होने वाले 4 शब्द- असूया, अपस्मार, अमर्ष, अवहित्या
- ‘म’ से शुरू होने वाले 4 शब्द- मति, मोह, मरण, मद
- ‘ग’ से शुरू होने वाले 2 शब्द- गर्व, ग्लानि
- ‘च’ से शुरू होने वाले 2 शब्द- चपलता, चिंता
- ‘स’ से शुरू होने वाला 2 शब्द- स्वप्न, स्मृति
- ‘श’ से शुरू होने वाले 2 शब्द- शंका, श्रम
- ‘आ’ से शुरू होने वाले 2 शब्द- आवेग, आलस्य
- ‘न’ से शुरू होने वाले 2 शब्द- निंद्रा, निर्वेद
- ‘ज’ से शुरू होने वाले 1 शब्द- जड़ता
- ‘त’ से शुरू होने वाले 1 शब्द- त्रास
- ‘द’ से शुरू होने वाले 1 शब्द- दैन्य
- ‘ध’ से शुरू होने वाले 1 शब्द- धृति
- ‘ह’ से शुरू होने वाले 1 शब्द- हर्ष
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार संचारीभाव का वर्गीकरण:
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने संचारीभाव को चार भागों में बाँटा है:
सुखात्मक- गर्व, औत्सुक्य, हर्ष, मृदुलता, आशा, मद, धृति, संतोष, चपलता।
दुखात्मक- व्रीडा, असूया, त्रास, अमर्ष, अवहित्या, विषद, शंका, चिंता, उग्रता, मोह, आलस्य, उन्माद, ग्लानि, अपस्मार, मरण, व्याधि।
अभयात्मक- आवेग, स्मृति, विस्मृति, दैन्य, स्वप्न
उदासीन- श्रम, वितर्क, निंद्रा, निबोध।
रस की उत्पति कैसे होती है:
भारतमुनि ने नाट्य शास्त्र में रस की उत्पति का सूत्र देते हुए कहा है कि- “विभावानुभाव्यभिचारिसंयोगाद्ररस निष्पति:।”
विभव + अनुभाव + व्यभिचारि + संयोगात + रस + निष्पति:
अथार्त विभव, “अनुभव व्यभिचारि भावों के संयोग से रस की निष्पति होती है।”
रस निष्पति के सूत्र के बारे में विशेष तथ्य:
- रस निष्पति के सूत्र में रस के चारों तत्वों में से स्थायी भाव का उल्लेख नहीं हुआ है।
- रस निष्पति के सूत्र में व्याख्या योग्य शब्द ‘संयोगातˎ’ व ‘निष्पति’ है।
- रस एवं उनके स्थाई भाव उनके उपनाम
क्रम संख्या | रस | स्थाई भाव |
1. | श्रृंगार | रति |
2. | हास्य | हास |
3. | करुण | शोक |
4. | रौद्र | क्रोध |
5. | वीर | उत्साह |
6. | भयानक | भय |
7. | वीभत्स | घृणा (जुगुप्सा) |
8. | अद्भूत | विस्मय |
9. | शांत | वैराग्य |
10. | वात्सल्य | शिशु विषयक स्नेह (मान्यता विश्वनाथ) |
11. | भक्ति रस | ईश्वर विषयक (रूप गोस्वामी) |
रस: के लक्षण एवं उदाहरण:
1.श्रृंगार रस: (स्थाई भाव- रति)श्रृंग+आर= श्रृंगार (‘श्रृंग’ का अर्थ होता है ‘काम भावना’ और ‘आर’ का अर्थ होता है ‘प्रकट’ या उद्रेक होता है।)
परिभाषा: जहाँ नायक नायिका के हृदय में रति नामक स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारीभाव से युक्त हो जाए वहाँ श्रृंगार रस होता है।
तकनिकी जानकारी
रस: श्रृंगार रस
स्थायी भाव: रति
आलंबन: नायक, नायिका
अनुभाव: मुख का खिलाना, एक टक देखना, आलिंगन आदि
उद्दीपन: आलंबन की चेष्टाएँ, प्राकृतिक सौंदर्य, एकांत स्थल
संचारीभाव: हर्ष, लज्जा, चिंता, उत्सुकता आदि
संयोग या संभोग श्रृंगार: श्रृंगार रस के दो भेद:
परिभाषा: जब नायक नायिका परस्पर नजदीक हो, तब उनके हृदय में रति नामक स्थायी भाव जाग्रत होकर विभव, अनुभाव एवं संचारी भावों से युक्त हो जाए तो वहाँ संयोग श्रृंगार रस होता है।
संयोग श्रृंगार रस की तीन अवस्थाएँ:
सुरति: (संभोग वर्णन) इसमें नायक नायिका दोनों सक्रिय रहते है। (सर्वश्रेष्ठ अवस्था)
विपरीत रति: संयोग की वह अवस्था या स्थिति जिसमे केवल नायिका सक्रिय रहती है। (नायिका की श्रेणी: प्रौढ़, मध्या)
सुरतांत वर्णन: सभोग के पश्चात नायक-नायिका की थकान का वर्णन है। (निकृष्ट अवस्था)
उदाहरण:
देखी रूप लोचन ललचाने हरषे जनु निज निधि पहचाने
थके नयन रघुपति छवि देखे पलकहिहू न परिहरि निमेषे
अधिक सनेह देह भे भोरी सरद ससिहि जनु चितव चकोरी
आश्रय- सीता
आलंबन- राम
उद्दीपन- राम का सौंदर्य, पुष्पवाटिका
अनुभाव- सीता द्वारा राम की तरफ देखना (कायिक)
संचारीभाव- हर्ष, श्रम, स्तंभ
उदाहरण:
कंकन किंकिनी नुपुर धुनि सुनि कहत लखन सन राम हृदय मुनि।
मानहूँ मदन दुंदुभी दीन्हीं मनसा विस्व विजय कह किन्हीं।।
………………………………………………………………………..
अस कही फिरि चितये तेरी ओरा। सिय मुख ससि भये नयन चकोरा।।
आश्रय- राम
आलंबन- सीता
उद्दीपन- कंकन, किंकिनी नुपूरों की ध्वनि पुष्पवाटिका
अनुभव- सीता की प्रशंसा में लक्षमण से कहना (वाचिक), देखना (कायिक)
संचारी भाव- हर्ष, लज्जा, स्तंभ
2. वियोग या विप्रलंभ श्रृंगार रस:
परिभाषा: जब नायक-नायिका एक दूसरे से दूर हो एक दूसरे को याद करके दुखी हो, उनके हृदय में रति नामक स्थाई भाव जाग्रत होकर विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों से युक्त हो जाए तो वहाँ वियोग श्रृंगार रस होता है।
वियोग रस की विशेष बातें (किसे छांटना है)
आलंबन- नायक-नायिका का दूर हो जाना।
उद्दीपन- स्मृति, प्रकृति।
अनुभाव- संदेश भेजना, याद कर दुखी होना, अश्रु बहाना आदि।
संचारी भाव- दैन्य, चिंता, जड़ता, ग्लानी।
उदाहरण:1
आश्रम देखी जानकी हीना, भये दुखी जस प्राकृत दीना।
लछिमन समुझाए बहु भाँती, पूछत चले लता तरु पाती।
हे खग मृग पिक हे मधुकर श्रेणी, तुम देखी सीता पिक बैनी।
आश्रय: राम
आलंबन: सीता का हरण
उद्दीपन: सीता की स्मृति
अनुभव: दुखी होना
संचारी भाव: दैन्य
उदाहरण: 2
अति मलीन वृषभानु कुमारी
हरि श्रम जल अंतर तनु भीजै ता लालच न धुआवती सारी
छूटे चिकूर बदन कुम्हिलाने ज्यों नलिनी हिमकर की मारी
अध मुख रहती उरध नहीं चितवति ज्यों गथ हारे थकित जुआरी
आश्रय: राधा
आलंबन: कृष्णा का मथुरा आना
उद्दीपन: कृष्णा की स्मृति
अनुभव: राधा की चेष्टाएँ
संचारी भाव: दैन्य
वियोग श्रृंगार रस के भेद: वियोग श्रृंगार रस के चार भेद होते है।
पूर्वराग- किसी नायक नायिका के मिलन से पहले ही चित्र देखकर या किसी से उसकी प्रशंसा सुनकर मिलन के लिए आतुर होना पूर्वराग कहलाता है।
मान- नायक नायिका का अहं, क्रोध आदि के कारण दूर होना व फिर दुखी होना मान कहलाता है।
प्रवास- नायक नायिका का किसी कारण से दूर होकर अलग-अलग स्थाओं पर रहना प्रवास कहलाता है।
करुणात्मक- जहाँ मिलन की स्थिति नहीं हो, मिलने की क्षीण सी आशा मात्र रहे वह करुणात्मक कहलाता है। जैसी- घनानंद का वियोग।
वियोग की अवस्थाएँ: वियोग की दस अवस्था होती है।
अभिलाषा- वियोग होने पर मिलन की तीव्र इच्छा होना
चिंता- प्रियतम से मिलन हेतु उपाए खोजने की चिंता
स्मरण- प्रियतम गुण, बातें याद करना
गुण-कथन- प्रियतम के गुणों के विषय में किसी से कहन
उद्वेग- विरह के कारण किसी काम में मन नहीं लग्न
प्रलाप- विरह की अवस्था में अनर्गल बातें करना
उन्माद- विरह के कारण विवेक शून्य हो जाना
जड़ता- शरीर का चेष्टा रहित हो जाना
व्याधि- विरह के कारण शरीर का रोगग्रस्त हो जाना
मरण- मृत्य के नजदीक पहुँच जाना
3. करुण रस:
परिभाषा: प्रिय व्यक्ति के अनिष्ट अथवा निधन पर शोक नामक स्थाई भाव जागृत होकर विभाव अनुभाव एवं संचारी भावों से युक्त हो जाए तो वहाँ करुण रस होता है। जहाँ किसी दीनहीन, दयनीय स्थिति का चित्रण हो वहाँ भी करुण रस होता है। जहाँ विरक्त पुरुष-स्त्री को शोकग्रस्त दिखाया जाए वहाँ करुण रस न होकर करुण रस का रसाभास होता है। (जैसे साधू, महात्मा)
भवभूति के शब्दों में- “एकौ रस स करुण:”। भवभूति ने करुण रस को मूल रस मानते हुए सभी रसों का आधार माना है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने करुण रस को ‘मानवता का उद्धार’ कहा है।
करुण रस की विशेष बातें (किसे छांटना है)
स्थायी भाव- शोक
आलंबन- जिसका अनिष्ट/निधन हुआ हो या जिसकी दीनहीन स्थिति का चित्रण हो
उद्दीपन- आलंबन से संबंधित पूर्व बातों का ध्यान
अनुभाव- अश्रु, विलाप, प्रलाप, गुणकथन
संचारी भाव- दैन्य, चिंता, मरण, जड़ता, विषाद
उदाहरण: 1
लक्ष्मण के मूर्छित होने पर राम का विलाप करना
दशरथ के निधन पर उनकी रानियों का विलाप करना
अभिमन्यु के मृत्यु पर उसकी माता सुभद्रा का विलाप करना
रावण की मृत्यु पर मंदोदरी का विलाप करना
बाली के मृत्यु पर तारा का विलाप करना
उदाहरण:2
अर्ध राति गयी कपि नहीं आयउ राम उठाई अनुज उर लायउ।।
सकहूँ न दुखित देखी मोहि काऊ। बंधु सदा तव मृदुल सुभावू।।
सो अनुराग कहाँ अब भाई उठहूँ न सुनि मम वच विकलाई।।
……………………………………………………………………………
बहु विधि सोचत सोच विमोचन श्रवत सलिल राजीव दल लोचन।।
आश्रय: राम
आलंबन: लक्ष्मण का मूर्छित हों जाना
उद्दीपन: अर्धरात्रि का होना, लक्ष्मण के गुणों की स्मृति
कायिक अनुभाव: राम उठाई अनुज उर लायउ
वाचिक अनुभाव: बंधु सदा तव मृदुल सुभावू सो अनुराग कहाँ अब भाई उठहूँ न सुनि मम वच विकलाई।।
संचारीभाव: दैन्य, चिंता, विषाद
उदाहरण:3
सोक विकल रोवहि सब रानी रूप
रूप सिल बाल तेज बखानी
आश्रय: रानियाँ
आलंबन: दशरथ की मृत्यु
उद्दीपन: दशरथ कए गुणों का बखान करना
अनुभाव: रानियों का विलाप करना
गुण कथन: दशरथ के गुणों का कथन
संचारी भाव: दैन्य, विषाद
उदाहरण:4
नाना विधि विलाप कर तारा।
छूटे केस न देह संभारा।।
आश्रय: तारा
आलंबन: बाली की मृत्यु
उद्दीपन: बाली के गुणों का स्मरण
अनुभाव: तारा का विलाप करना
संचारीभाव: दैन्य सिशाद
प्रलय: देह संभारा।।
4. रौद्र रस:
परिभाषा: गुरुजनों के अपमान शत्रु की ललकार आदि के कारण जब हृदय में कृध नामक स्थाई भाव जाग्रत होकर विभाव, अनुभाव, संचारीभावों से युक्त हो जाए तो वहाँ रौद्र रस होता है। (जहाँ कोई किसी को मारने काटने पीटने की बात करें वहाँ रौद्र रस होगा)
रौद्र रस की विशेष बातें (किसे छांटना है)
स्थायी भाव: क्रोध
आलंबन: शत्रुता पूर्ण कार्य, गुरुजनों का अपमान
उद्दीपन: शत्रु की चेष्टाएँ
अनुभाव: दुर्वचन कहना, मारने के लिए दौड़ना
संचारी भाव: उन्माद, आवेग, उग्रता, मद
उदाहरण: लक्ष्मण-परशुराम संवाद, कृष्ण-अर्जुन संवाद, रावण-अंगद संवाद
उदाहरण: 1
अब जनि दोष देहि मोहि लोगू। कटुवादी बालक वध जोगू।।
आश्रय: परशुराम
आलंबन: धनुष का टूटना
उद्दीपन: लक्ष्मण के कटु वचन कहना
अनुभाव: लक्षमण के परशुराम के वचन
संचारीभाव: आवेग, उग्रता
उदाहरण: 2
बौरों सबै रघुवंश कुठार की धार मैं बारां बाजि सरत्थहि
बान की वायु उड़ाय के लच्छन लक्ष करौ अरिया समरत्थहि
रामहि नाम समेत पठै वन कोप के भार में भुजौ भरत्थहि
जो धनु हाथ धरे रघुनाथ तो आजु अनाथ करौ दशरत्थहि
आश्रय: परशुराम
आलंबन: शिव धनुष का टूटना
उद्दीपन: लक्षम के कटु वचन
अनुभव: परशुराम के क्रोधपूर्ण वचन
संचारीभाव: उग्रता, आवेग, मद
उदाहरण: 3
भाखे लखन कुटिल भई भौहें। रदपर फरकत नयन रिसौहे।।
जो राउर अनुसासन पाँऊ। कंदुक इव ब्रह्मांड उठाऊ।।
आश्रय: लक्ष्मण
आलंबन: जनक के वचन
उद्दीपन: जनक के वचनों को लक्षमण द्वारा राम का अपमान समझ लेना
अनुभव: लक्ष्मण की चेष्टाएँ
संचारीभाव: आवेग, उग्रता
उदाहरण 4
श्रीकृष्ण के वचन सुन, अर्जुन क्रोध से जलने लगे।
सब शोक अपना भूलकर, करतल युगल मलने लगे।
अब देखे संसार हमारे, शत्रु रण में मृत पड़े।
करते हुए यह घोषणा, वे हो गए उठकर खड़े।
आश्रय: अर्जुन
आलंबन: कृष्ण के वचन
उद्दीपन: कौरवों के द्वारा किया गया अत्याचार, स्मरण
अनुभाव: अर्जुन का हाथ मलना कायिक अनुभाव (बोलना-वाचिक अनुभाव)
संचारीभाव: आवेग, मद
5. हास्य रस:
परिभाषा: किसी के विकृत शरीर, विकृत वेश भूषा, विकृत चेष्टा, विकृत सोच आदि के कारण जब हृदय में ‘हास’ नामक स्थायी भाव जाग्रत होकर विभाव, अनुभाव एवं संचारी भावों से युक्त हो जाए तो वहा ‘हास्य रस’ होता है।
हास्य के भेद: भारतमुनि ने हास्य के दो भेद किए हैं
आत्मस्थ हास: स्वयं हँसना
परस्थ हास: दूसरों को हँसना
वर्तमान में ‘हास’ के छह (6) भेद होते है:
स्मित- नेत्र थोड़े फैलाना, आवाज नहीं आना (यह सर्वश्रेष्ठ है)
हसित- दांतों का कुछ-कुछ दिखाई देना
विहसित- हँसी के साथ मधुर ध्वनि निकलना
अवहसित- ध्वनि के साथ शरीर का हिलाना
अपहसित- ऊँची आवाज में हँसना व शरीर की अशिष्ट हलचल
अतिहसित- तेज स्वर के साथ पैर पटकना
हास्य रस की विशेष बातें (किसे छांटना है)
स्थायी भाव- हास
आलंबन- विकृत शरीर, विकृत वेश भूषा, विकृत चेष्टा, विकृत सोच-विचार
उद्दीपन- आलंबन की चेष्टाएँ
अनुभाव- हँसाना
संचारीभाव– हर्ष, चपलता
उदाहरण 1
काहू न लखा जो चरित विसेखा, सो सरूप नृप कन्या देखा।
मरकट बदन भयंकर देही, देखत हृदय क्रोध भा तेही।
पुनि पुनि मुन उकसहि अकुलानी, देखी दसा हर गन मुसकाही।
आश्रय- शिवगण
आलंबन- नारद का विकृत शरीर
उद्दीपन- नारद की चेष्टाएँ
अनुभाव- शिवगण का हँसाना
संचारीभाव– हर्ष, चपलता
उदाहरण: 2 (पद्माकर- गंगा लहरी की पंक्तियाँ हैं)
हँसि हँसि भाजै देखी दुलह दिगंबर को
पाहुने जे आये हिमाचल के उछाह में
कहें पद्माकर सुकाहु सो कहै को कहा
जोइ जहाँ देखे हँसई तहाँ राह में
मगन भयेहि हँसे नगन महेस ठाढ़े
और हँसे एउ हँसि हँसि के उमाह में
सीस पर गंगा हँसे भुजनी भुजंगा हँसे
हास ही को दंगा भयो नगा के विवाह में
आश्रय: मेहमान
आलंबन: शिव की विचित्र भेश-भूषा
उद्दीपन: शिव का हँसी में शामिल होना
अनुभव: सभी का हँसान
संचारीभाव: हर्ष, चपलता
6. भयानक रस: बलशाली शत्रु, भयंकर प्राकृतिक आपदा, भयंकर जंगली जीव-जन्तु आदि के कारण मानव हृदय में भय नामक स्थाई भाव जाग्रत होकर विभव, अनुभव, संचारी भावों से युक्त ही जाए तो वहाँ भयानक रस होता है। (जहाँ सात्विक प्रकृति के लोगों को दिखाया जाए वहाँ रसाभास होता है। वहाँ भयानक रस नहीं होगा।)
स्थायी भाव- भय
आलंबन- प्राकृतिक आपदा, भयंकर जंगली जीव, बलशाली शत्रु आदि।
उद्दीपन- आलंबन की चेष्टाएँ
अनुभाव- मूर्छित होना, चिल्लाना, विलाप करना
संचारी भाव- विषाद, जड़ता, त्रास, उन्माद आदि।
उदाहरण:1
“एक ओर अजगरहि लखि एक ओर मृगराय
विकल बटोही बीच ही पर्यों मूर्छा खाय।”
आश्रय- बटोही, राहगीर
आलंबन- अजगर
उद्दीपन- शेर
अनुभाव- बटोही का मूर्छित होकर गिर जाना
संचारी भाव– त्रास
7. वीभत्स रस:
परिभाषा: काव्य में जहाँ सड़ी गली वस्तुएँ, दुर्गन्ध, लाशें आदि देखकर या सुनकर में घृणा या जुगुप्सा नामक स्थाई भाव जाग्रत होकर विभाव, अनुभाव, संचारीभाव से युक्त हो जाए तब वहाँ वीभत्स रस उत्पन्न होता है। (इन सभी रसांगों में परिपक्व होकर अस्वाद्द हो जाता है)
उदाहरण 1
“घर में लाशें, जनपथ पर लाशें।
आँखें नृशंस यह दृश्य देख, मूँद जाती हैं, घुटती साँसें।”
आश्रय- जन समुदाय या दर्शक
आलंबन- सड़ती हुई लाशें
उद्दीपन- घृणात्मक दृश्य
अनुभाव- आँखें मूँदना, श्वास घुटना
संचारीभाव- ग्लानि, निर्वेद, दैन्य
8. अद्भूत रस: काव्य आदि में असाधारण, अलौकिक एवं आश्चर्यजनक दृश्य या वस्तु देखने यह सुनने से विश्वास नहीं होकर जब मन में विस्मय उत्पन्न होता है। यही विस्मय विभिन्न रसांगों में परिपक्व होकर विभाव, अनुभाव, संचारीभाव से युक्त हो जाए ती इसे अद्भूत रस कहते हैं।
उदाहरण: “अम्बर में कुंतल जाल देख, पद के नीचे पातल देख’
मुट्ठी में तीनों काल देख, मेरा स्वरुप विकराल देख।
सब जन्म मुझी में पाते है, फिर लौट मुझी में आते है।
आश्रय: अर्जुन
आलंबन: प्रभु का विराट स्वरुप
उदीपन: विराट स्वरुप के अलौकिक क्रियाकलाप
अनुभाव: विस्मित होकर आँखें फाड़कर देखना, स्तब्ध, अवाक रह जाना
संचारीभाव: श्रम, चिंता, निर्वेद, जड़ता आदि है।
स्थाई भाव: विस्मय परिपुष्ट होकर अद्भूत रस में अभिव्यक्त हुआ
9. शांत रस: संसार की नश्वरता, दुखमय तथा असत्यता के यथार्थ बोध से मन जब लौकिक जगत से उठकर विरक्त, निस्पृह और शांत हो जाता है, तब इस स्थिति को निर्वेद कहते है। निर्वेद का अर्थ होता है वदना रहित होना। यही निर्वेद जब विभाव, अनुभाव, संचारीभाव आदि भावों से परिपुष्ट आस्वाद्द हो जाता है तब इसे शांत रस कहते है
उदाहरण:
“अब लौ नसानी अब नसैहौं
राम कृपा भव निशा सिरानी जागे फिरि न डसैहौं।
पायों नाम चारु चिंतामणि उर कर ते न खसैहौं।
श्याम रूप सुचि रुचिर कसौटी चित्त कंचनहिं कसैहौं।
परबस जानि हँस्यो इन इन्द्रिन निज बस हैं न हँसैहौं।
मन मधुकर पन करि तुलसीरघुपति पद कमल बसैहौं।
आश्रय: विरक्त व्यक्ति (तुलसीदास)
आलंबन: भगवद्- विषयक अनुराग
उद्दीपन: संसार की असारता, भजन में मन नही लगना
अनुभव: परमात्मा चिंतन हेतु
संचारीभाव: दैन्य, स्मृति, मति हर्ष आदि
10. वात्सल्य रस: संतान, शिष्य एवं बच्चों के प्रति माता-पिता तथा गुरुजनों का जो स्नेहभाव होता है उसे वात्सल्य रस कहते है। बच्चों के रूप सौंदर्य एवं उनकी बाल सुलभ चेष्टाओं को देखकर या सुनकर माता-पिता या बड़ों के मन में जो प्रेम के स्नेह भाव उत्पन्न होता है उसे वात्सल्य रस कहते है।
वात्सल्य रस के दो भेद है- संयोग वात्सल्य और वियोग वात्सल्य
संयोग वात्सल्य रस के उदाहरण:
किलकत कान्ह घुटरुवनी आवत
मनिमय कनक नन्द के आँगन बिम्ब पकरिबे धावत।
कबहुँ निरखि आपु छाँह को कर सो पकरन चाहत।
किलकी हँसति रजत द्वै दँतियाँ पुनि-पुनि तेहि अवगाहत।
राम कुशल कह सखा सनेही। कहँ रघुनाथ लखनु वैदेही।।
आने फेरि कि वनहि सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए।।
11. भक्ति रस: ईश्वर या प्रभु की लीलाओं उनकी दयालुता भक्त वात्सलता आदि को सुनकर, गायन, मनन से भगवान् विषयक रति उत्पन्न होती है तब विभाव, अनुभाव और संचारीभाव का अस्वाद्द हो जाता है तो उसे भक्ति रस कहते है।
भक्ति रस के पाँच भेद माने गए है: शांत, प्रीति, प्रेय, वत्सल और मधुर।
भक्ति रस के उदाहरण:
“दीन दयालु दिवाकर देवा। कर मुनि मनुज सुरासुर सेवा।।
हिम तन करि केहरि कर माली। दहन दोष दुःख दुरति रुजाली।।
कोक कोकनद लोक प्रकासी। तेज प्रताप रूप रस रासी।।”
👌
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हिंदी भाषा में प्रामाणिक सामग्री बहुत कम मिलती है। आपका प्रयास सराहनीय है। 🙏
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इतने लम्बे लेख में वर्तनी सम्बंधी त्रुटियाँ स्वाभाविक हैं। मैंने जो नोटिस किया वो ये हैं –
आपने श्रृंगार, अद्भूत लिखा है जिसे शृंगार और अद्भुत होना चाहिए।
एक जगह उदीपन आपने टाइप कर दिया है।
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चौरासी छंद जो आपने संयोग शृंगार में लिखा है –
‘ देखि रूप लोचन ललचाने । हरखे जनन निज निधि पहिचाने ॥
थके नयन रघुपति छवि देखी । पलकन हू परहरी निमेखी ॥
अधिक सनेह देह भइ भेरी । सरद ससिहि जनु चितव चकोरी ॥
लोचन मग रामहि उर आनी । दीन्हें पलक कपाट सयानी ॥’
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चौपाई जो छंद जो आपने संयोग शृंगार में लिखा है – ‘ देखि रूप लोचन ललचाने । हरखे जनु निज निधि पहिचाने ॥ थके नयन रघुपति छवि देखी । पलकन हू परहरी निमेखी ॥ अधिक सनेह देह भइ भोरी । सरद ससिहि जनु चितव चकोरी ॥ लोचन मग रामहि उर आनी । दीन्हें पलक कपाट सयानी ॥’
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