भारतीय इतिहास में शंकराचार्य सबसे श्रेष्ठतम दार्शनिक थे। उन्होंने अद्वैतवाद को प्रचलित किया। उन्होंने उपनिषदों, श्रीमद्भागवत गीता एवं ब्रह्मसूत्र पर ऐसे भाष्य लिखे जो दुर्लभ हैं। वे अपने समय के उत्कृष्ट विद्वान एवं दार्शनिक थे। शंकराचार्य का जन्म ढ़ाई हजार साल पूर्व दक्षिण भारत के केरल में हुआ था। शंकराचार्य ने पूरे भारत की यात्रा करते हुए देश में हिन्दू धर्म का प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने चार पीठों की स्थापना किया। भारत को हिन्दू-दर्शन, धर्म और संस्कृति के अविरल सनातन धारा में पिरो दिया। आज हमें हिन्दू धर्म का जो स्वरुप दिखाई दे रहा है, वह शंकराचार्य का ही बनाया हुआ है। सही मायने में देखा जाए तो भारतवर्ष में उनके जैसा कोई दार्शनिक ही नहीं हुआ। बाद में जितने भी दार्शनिक आए उनपर शंकराचार्य का प्रभाव देखा जा सकता है।
एक समय शंकराचार्य केरल (कलाडी) से देश भ्रमण के लिए निकले थे। चारों कोनों पर पीठों की स्थापना किया। भ्रमण करते हुए वे स्थानीय पंडितों के साथ शास्त्रार्थ और अद्वैतवाद का प्रचार-प्रसार भी करते थे। राजा जनक के पूर्वज राजा ‘मिथि’ के नाम से बना मिथिला क्षेत्र अपने संस्कृति के विभिन्न रूपों के लिए प्रसिद्ध था। मिथिला में एक से बढ़कर एक पंडित दूर-दूर से आते थे। वहाँ कई-कई दिनों तक चलने वाले शास्त्रार्थ में जीवन-जगत से संबंधित अनेक विषयों पर वाद-विवाद होता रहता था। विजयी पंडितों को विशेष सम्मान दिया जाता था। कहा जाता है कि आदिगुरु शंकराचार्य ने मिथिला के महापंडित मंडन मिश्र का नाम और ख्याति सुना था। वे वहाँ उनके गाँव गए। गाँव के कुएँ पर पानी भरते हुए कुछ महिलायें दिखी जो संस्कृत में वार्तालाप कर रहीं थी। आदिगुरु शंकराचार्य के एक शिष्य ने पूछा, “मंडन मिश्र का घर कहाँ है?” उनमे से एक स्त्री ने बताया, ‘आगे चले जाइए। जिस दरवाजे पर तोते शास्त्रार्थ कर रहे हों, वही पंडित मंडन मिश्र का घर होगा। शंकराचार्य अपने शिष्यों के साथ आगे बढ़े। शंकराचार्य बाँस के झुरमुट, धान से लहलहाते खेत के मनोरम दृश्य को देखते हुए आगे बढ़े। वे महिषी गाँव पहुँचे। शंकराचार्य को मंडन मिश्र का घर खोजने में परेशानी नहीं हुई। उन्होंने देखा कि एक घर के द्वार पर पिंजड़े में तोते शास्त्रार्थ कर रहे थे। शंकराचार्य समझ गए कि वही मंडन मिश्र का घर है। मंडन मिश्र और उनकी विदुषी पत्नी भारती ने शंकराचार्य का आदर-सत्कार किया। उन्हें देखकर आस-पड़ोस के अनेक पंडित भी जुट गए। सेवा सत्कार के बाद शास्त्रार्थ होना था। मंडन मिश्र और शंकराचार्य के बीच निर्णायक की तलाश हुई। वहाँ पर बैठे पंडितों ने कहा, ‘आप दोनों के बीच शास्त्रार्थ में हर-जीत का निर्णय करने के लिए पंडिता भारती उपयुक्त रहेंगी। दोनों में कई दिनों तक शास्त्रार्थ चलता रहा। अंत में भारती ने शंकराचार्य को विजयी घोषित कर दिया। भारती ने कहा, ‘मंडन मिश्र विवाहित हैं। मैं और मेरे पति मंडन मिश्र दोनों मिलकर एक इकाई बनते हैं, अर्धनारीश्वर की तरह। आपने तो अभी आधे भाग को हराया है। अभी तो आधे भाग ‘मुझसे’ शास्त्रार्थ करना बाकी है।’ शंकराचार्य ने भारती की चुनौती स्वीकार कर लिया। दोनों के बीच जीवन-जगत के प्रश्नोत्तर शुरू हुए। भारती के साथ शास्त्रार्थ में भी शंकराचार्य जीत रहे थे। परन्तु भारती ने जो अंतिम प्रश्न किया, वह गृहस्त जीवन में स्त्री-पुरुष के संबंधित व्यवहारिक ज्ञान से जुड़ा था। शंकराचार्य को उस जीवन से संबंधित व्यवहारिक पक्ष मालूम नहीं था। उन्होंने तो ईश्वर और चराचर जीवन का अध्ययन किया था। वे अद्वैतवाद को मानते थे। भारती के प्रश्न पर उन्होंने अपनी हार स्वीकार कर लिया। शास्त्रार्थ सभामंड़प में बैठे अन्य पंडितों ने पंडिता भारती को विजयी घोषित कर दिया।
इससे यह साबित होता है कि हमारे समाज में स्त्रियाँ जीवन के हर क्षेत्र में बराबर की भागीदारी निभाती थी। घर, परिवार, समाज आदि की ज़िम्मेदारियाँ निभाते हुए ज्ञान अर्जित कर वे शास्त्रार्थ भी कर करती थी। पति-पत्नी के बीच पूरकता का भाव था स्त्री-पुरुष में कोई भेद-भाव नहीं थी। इससे यह संदेश मिलता है कि ज्ञान जगत में भी पति-पत्नी मिलकर इकाई बनते हैं।
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