आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल के काव्य को पाँच भागों में बाँटा है:
1.रासो साहित्य, चारण साहित्य, वीरगाथात्मक साहित्य
2. रास साहित्य/जैन साहित्य
3. सिद्ध साहित्य/ बौद्ध साहित्य
4. नाथ साहित्य /शैव साहित्य
5. लौकिक साहित्य
6. अपभ्रंश प्रभावित हिन्दी की रचनाएँ
रासो साहित्य: आदिकाल में चारण कवियों के द्वारा अपने आश्रयदाता राजाओं की प्रशंसा में जो वीरगाथात्मक साहित्य ‘डिंगल’ और ‘पिंगल’ शैलियों में रचा गया उसे रासो साहित्य के नाम से जाना जाता है।
रासो शब्द की उत्पति:
- गार्सा द तासी के अनुसार- ‘राजसूय यज्ञ’ से माना।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- इन्होने ‘रसायन’ से माना है। उन्होंने प्रमाण के रूप में बीसलदेव रासो की निम्नलिखित पंक्तियाँ प्रस्तुत किया है-
“संवत बारह सो बहितारा मझारि, सारदा तूठी ब्रह्म कुआरी।
नाल्ह रसायन आरम्भ करी, जेठ बुदी नवमी बुधवारि।।
- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी: इन्होने रासो शब्द की उत्पति ‘रासक’ शब्द से माना है। प्रमाण स्वरुप उन्होंने अब्दुर्र रहमान की रचना ‘संदेशरासक’ को प्रस्तुत किया। (यह सर्वमान्य है)
- कबिराज श्यामल दास, नागरी प्रचारिणी सभा काशी, काशी प्रसाद जायसवाल ने रासो शब्द की उत्पति ‘रहस्य’ से मानी है।
- विन्धेश्वरी पाठक: रासो शब्द की उत्पति ‘राजयश’ से मानी है।
- रामस्वरूप चतुर्वेदी: रासो की उत्पति ‘राउस’ से मानी है।
- डॉ मोतीलाल मेनारिया ने रासो शब्द का संबंध ‘रहस्य’ से माना है।
- श्री नरोत्तम स्वामी ने रासो शब्द की उत्पति ‘रसिक’ से मानते हैं।
रासो साहित्य की विशेषताएँ:
- रासो साहित्य अधिकांशतः चारण कवियों के द्वारा रचित तथा सर्वाधिक रचनाएँ राजस्थान से प्राप्त हुई हैं।
- रासो साहित्य में आश्रयदाताओं की वीरता और अन्य गुणों का अतिश्योक्ति पूर्ण वर्णन किया गया है।
- इन रचनाओं में सामंती जीवन की संपूर्ण झलक देखने को मिलता है।
- राजाओं व रचनाकारों की राष्ट्रीय भावना संकीर्ण थी।
- युद्धों का इसमें सजीव चित्रण किया गया था।
- अधिकांश रचनाएँ विवादस्पद और अर्द्धप्रमाणिक है।
- इनमे वीर और श्रृंगार रसों की प्रधानता थी।
- इनमे डिंगल और पिंगल शैलियों का प्रयोग हुआ था।
- इनमे प्रबंधात्मक और मुक्तक दोनों काव्य रूपों का प्रयोग किया गया है।
- छंद विविधता का प्रयोग किया गया है।
- अतिशयोक्ति और अतियोक्ति अलंकारों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया गया था।
- इनमे लोक जीवन की उपेक्षा की गई है।
- कल्पना की अधिकता थी वास्तविकता कम थी।
- प्राकृतिक चित्रण का अभाव था।
प्रमुख रासो ग्रंथ एवं रचनाकार:
रासो ग्रंथ | रचनाकार |
खुमाण रासो | दलपति विजय |
परमाल रासो | जगनिक |
हम्मीर रासो | शार्रधर |
विजयपाल रासो | नलसिंह भाट |
बीसलदेव रासो | नरपति नाल्ह |
पृथ्वीराज रासो | चंदबरदाई |
बुद्धि रासो | जल्हण |
कलियुग रासो | रसिक गोविंद |
कायमखां रासो | न्यामत खां जान कवि |
रामरासो | समय सुंदर |
राणारासो | दयाल कवि या दयाराम |
रतनरासो | कुंभ कर्ण |
कुमारपाल रासो | देवप्रभ सुरि |
खुमाण रासो:
- रचनाकार- दलपति विजय।
- रचनाकाल- 9वीं शताब्दी है। (आ० रा० शुक्ल और आ० ह० द्विवेदी माननीय मत)
- डॉ मोतीलाल मेनारिया के अनुसार 17वीं शताब्दी। इसमें बप्पाराव से लेकर राजसिंह तक का वर्णन है।
- इसमें खुमाण का विस्तृत रूप से वर्णन होने के कारण इसे खुमानरासो के नाम से जाना जाता है। चितौड़ में तीन खुमाण नाम के शासक हुए थे
खुमाण प्रथम- विक्रमी संवत 810 से 865
खुमाण द्वितीय – विक्रमी संवत 870 से 900
खुमाण तृतीय- विक्रमी संवत 965 से 990 तक
- खुमाणरासो में खुमाण द्वितीय का विस्तार रूप से वर्णन है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- 869 से 893 इसका समय है।
- इस रचना में खुमाण द्वितीय (चितौड़ का शासक) तथा बगदाद के खलीफा अलमामू के बीच हुए युद्ध का वर्णन मिलता है। इसमें विजय खुमाण द्वितीय की हुई थी।
- इस रचना में खुमाण के 24 युद्धों का वर्णन है।
- खुमाणरासो को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी का प्रथम ‘जयकाल’ कहा है।
- इस रचना में 5000 हजार छंद और भाषा राजस्थानी है।
- इसका हस्तलिखित प्रति पूना संग्रहालय में सुरक्षित है।
- हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने इसे आदिकालीन रासो साहित्य में स्थान नहीं दिया है।
परमालरासो (आल्हाखंड):
- रचनाकार- जगनिक
- रचनाकाल- 1230 ई०
- इस रचना में कालिंजर के शासक परमर्दिदेव यानी परमाल के दो वीर सरदारों आल्हा और ऊदल की वीरता का चित्रण है। ये दोनों महोबा के रहने वाले थे।
- इस रचना का सबसे पहले प्रकाशन फार्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर चार्ल्स इलियट ने 1865 ई० में आल्हाखंड के नाम से करवाया था।
- इसके बाद वाटरफील्ड ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया।
- डॉ श्यामसुन्दरदास ने 1920 ई में परमालरासो के नाम से नागरी प्रचारिणी सभा काशी से इसका प्रकाशन करवाया। ‘आल्हाखण्ड’ परमाल रासो का एक भाग है।
विशेष तथ्य:
- इस रचना में ‘बनाफारों’ के 52 युद्धों का वर्णन है।
- यह ‘गेय’ व ‘मुक्तक’ रचना है।
- यह छत्तीसगढ़ी की उप-बोली ‘बनाफारी’ में रचित है।
- वीरता के भावों को व्यक्त करने वाली निम्नलिखित पंक्तियाँ परमालरासो की है।
“बारह बरस लौ कुकुर जीवै, तेरह लौ सियार
बरस अटठारह क्षत्रिय जीवै, आगे जीवन को धिक्कार।”
- इस रचना को आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने अप्रमाणिक माना है।
- परमालरासो के पद को आज भी बुंदेलखंड, महोबा, बैसवाड़ा के आसपास वर्षा ऋतु में गाए जाते हैं।
हम्मीर रासो:
- रचनाकार- शार्गंधर
- रचनाकाल- 1357 ई०
- यह रचना वर्तमान में उपलब्ध नहीं है।
- प्राकृत पैंगलमˎ में शार्गंधर के कुछ पद मिले थे। इन पदों के आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसके अस्तित्व की काल्पना की थी।
- प्राकृत पैंगलमˎ- यह किसी एक की रचना नहीं है। यह विद्याधर शार्गंधर जज्जल बब्बर के पदों का संकलन है। इसका प्राकृत पैंगलमˎके नाम संकलन करता लक्ष्मीधर है।
- कथानक: इस रचना में रणथम्भौर के शासक हम्मीर देव चौहान तथा दिल्ली के सुलतान अल्लाउदीन खिलजी के मध्य हुए युद्ध का चित्रण है। इस युद्ध में दिल्ली के सुलतान अल्लाउदीन खिलजी की विजय हुई थी। यह युद्ध 1301 ई० में हुआ था।
- आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हम्मीर रासो से अपभ्रंश रचनाओं की समाप्ति मानी है। इसकी भाषा राजस्थानी और अपभ्रंश से प्रभावित थी।
विजयपाल रासो:
- रचनाकार- नलसिंह भाट थे
- रचनाकाल- 16 वीं शताब्दी थी।
- इसके कूल प्राप्त छंद 42 और भाषा अपभ्रंश हैं।
- इसमें करोली के शासक विजयपाल तथा वंग देश के राजा के मध्य हुए युद्ध का चित्रण है। इस युद्ध में विजयपाल की विजय हुई थी।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इसे रासो परम्परा में स्थान नहीं दिया है।
बीसलदेव रासो (1155 ई०)
- रचनाकार: नरपतिनाल्ह
- रचनाकाल: 1155 ई० (आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वरा सर्वमान्य है)
“संवत् बारह सौ बहोत्तारा माझरि, जेठ बुदी नवमी बुधवारि।
नाल्ह ‘रसायन’ आरम्भ करि सारदा तूठी ब्रह्मकुमारी।।”
- आचार्य हजारी द्विवेदी के अनुसार इसका समय 1545 ई० से 1560 के बीच है।
- डॉ रामकुमार वार्मा के अनुसार- इसका समय विक्रमी संवत 1050 है।
- मिश्रबंधु- विक्रमी संवत् 1220 मानते है।
- हाल ही में नागरी प्रचारिणी सभा काशी ने निम्नलिखित पंक्तियों के आधार पर इसका रचनाकाल विक्रमी संवत 1073 माना है
‘संवत् साहस तिहत्तर जानि, नाल्ह कविवर सरसिय वाणी’
- लाला सीताराम ने विक्रमी संवत् 1272 माना है। इसका रचनाकाल सर्वमान्य मत आचार्य रामचंद्र शुक्ल का है।
- कथानक: यह विरह परक संदेश काव्य है। इसमें अजमेर के चौहान शासक बीसलदेव तथा राजा भोज की पुत्री राजमती के विवाह, वियोग और पुनर्मिलन का सरस चित्रण है। राजमती के किसी कथन से रुष्ट होकर बीसलदेव उड़ीसा प्रवास पर चले जाते हैं। बीसलदेव रासो के अनुसार वे वहाँ 12 वर्ष तक रुके थे आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार यह समय एक वर्ष माना जाता है।
- इसकी कथा चार खण्डों और 2000 चरणों में है।
प्रथम खण्ड: बीसलदेव और राजमती के विवाह का वर्णन है।
दूसरा खण्ड: राजमती के किसी कथन से रुष्ट होकर बीसलदेव का उड़ीसा जाने का वर्णन है।
तीसरा खण्ड: राजमती के वियोग का वर्णन है।
चौथा खण्ड: भोज परमार के द्वारा अपनी पुत्री राजमती को अपने घर लेकर आना। बीसलदेव का उड़ीसा से वापस लौटना तथा राजमती और बीसलदेव का पुनर्मिलन का वर्णन है।
बीसलदेव रासो का विशेष तथ्य:
- बीसलदेव रासो शुद्ध श्रृंगारिक विरह काव्य है। इसकी नायिका राजमती ‘पोषित पतिका’ श्रेणी की नायिका है।
- हिन्दी साहित्य में बारहमासा का वर्णन बीसलदेव रासो से ही प्राप्त होता है।
- नरपतिनाल्ह ने इसे ‘स्त्री रसायन’ कहा है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसकी नायिका के संदर्भ में कहा है, “समूचे मध्यकालीन साहित्य में जबान की इतनी तेज और मन की खड़ी अन्य नायिका दुर्लभ है।”
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसकी भाषा को साहित्यिक भाषा नहीं माना है। इसमें भाषा राजस्थानी, ब्रज, मध्यदेशीय मिश्रित भाषा है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- बीसलदेव रासो वीरगति परम्परा की प्रथम रचना है।
- डॉ भागीरथी मिश्र ने इसे ‘रासो साहित्य’ नहीं मानकर ‘रास साहित्य’ माना है।
- इस साहित्य में सर्वत्र वर्तमान कालिक क्रियाओं का प्रयोग हुआ है।
- इसका संपादन सबसे पहले सत्यजीवन वर्मा ने किया। उनके द्वारा संपादित रचना में 124 पद थे। यह रचना 2008 ई में नागरी प्रचारिणी सभा काशी से प्रकाशित हुई थी।
- डॉ माताप्रसाद गुप्त के द्वारा संपादित बीसलदेव रासो में 128 पद है। इनके द्वारा संपादित रचना सबसे प्रमाणिक मानी जाती है।
पृथ्वीराज रासो:
- रचनाकार- चंदबरदाई
- रचनाकाल 1193 ई०
- चंदबरदाई का जन्म 1668 ई० लाहौर में भाट जाति के ‘जगाता’ नामक गोत्र में हुआ था। ऐसा माना जाता है कि पृथ्वीराज चौहान तथा चंदबरदाई के जन्म और निधन की तिथियाँ एक सामान है। इस संदर्भ में पृथ्वीराज रासो की निम्नलिखित पंक्ति प्रमाण प्रस्तुत है। ‘एक थल जन्म एक थल मरण’
- इसमें 69 सर्ग है। (यहाँ ‘सर्ग’ का ‘समय’ नाम दिया गया है) इसमें 61 सर्ग चंदरबरदाई ने लिखा था। 8 सर्ग जल्हण ने लिखा। इसके प्रमाण स्वरुप पृथ्वीराज रासो की पंक्तियाँ निम्नलिखित है। ‘पुस्तक जल्हण हथ दे चले गजनी नृप काज।’
- इस पुस्तक के बारे में सबसे पहले ‘कर्नल जेम्स टॉड’ ने ‘द एनाल्स एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान’ में 1829 ई में जानकारी दिया था।
वर्तमान में पृथ्वीराज रासो के चार संस्करण उपलब्ध हैं :
- वृहद रूपांतरण: इसमें 16306 छंद और 69 सर्ग (समय) है।
- मध्यम रूपांतरण: इसमें 7000 छंद है।
- लघू रूपांतरण: इसमें 3500 छंद और 19 सर्ग है।
- लघुतम रूपांतरण: 1300 छंद है।
- डॉ दसरथ शर्मा ने इस लघुत्तम रूपांतरण को मूल पृथ्वीराज रासो माना है। पृथ्वीराज रासो का नायक पृथ्वीराज चौहान हैं। ये अजमेर के चौहान वंश के शासक थे। ये धीरोदात्त श्रेणी के नायक थे।
- इनकी नायिका संयोगिता थी जो ‘मुग्धा श्रेणी’ की नायिका थी।
- इसका सबसे बड़ा सर्ग या समय- कंवज्ज युद्ध और सबसे छोटा सर्ग या समय- पद्मावती सर्ग था।
- इसकी भाषा के संदर्भ में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि पृथ्वीराज रासो में युद्धों का चित्रण डिंगल तथा श्रृंगारिक वर्णन एवं प्रकृति चित्रण में पिंगल शैली का प्रयोग किया गया है। अतः इसकी भाषा पिंगल ही माननी चाहिए।
- पृथ्वीराज रासो में 68 तरह के छंदों का प्रयोग हुआ है। इसमें छप्पय, त्रोटक, वीर त्रोटक, चौपाई, दोहा छंदों की प्रमुखता है। छप्पय चंदरबरदाई का प्रिय छंद था।
- डॉ नामवर सिंह ने चंदरबरदाई को छप्पय छंद का राजा कहा है।
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने छंद विविधता के कारण पृथ्वीराज रासो को छंदों का ‘अजायबघर’ कहा है।
- पृथ्वीराज के काव्य सौंदर्य पर रीझकर कर्नल जेम्स टॉड ने इसके पदों को अंग्रेजी में अनुवाद किया तथा ‘द रॉयल एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल’ से इसका प्रकाशन आरम्भ करवाया। इसी बीच डॉक्टर बूलर को कश्मीर के जयानक कवि के द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज विजय’ नामक ‘संस्कृत नाटक’ मिली जिसमे संयोंगिता हरण का चित्रण नहीं था। इस आधार पर 1875 ई० में डॉक्टर बूलर ने इसे अप्रमाणित घोषित कर इसका प्रकाशन रुकवा दिया।
- डॉक्टर बूलर के बाद पृथ्वीराज रासो को लेकर विद्वान तीन भागों में बंट गए:
अप्रमाणिक मानने वाले विद्वान: गौरीशंकर हीरानंद ओझा, मुरारी दान, मुंशी देवीप्रसाद, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, बूलर और मोतीलाल मेनारिया।
अर्द्धप्रमाणिक मानने वाले विद्वान: अगरचंद नहाटा, मुनिमिन विजय, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, सुनीति कुमार चटर्जी।
प्रमाणिक मानने वाले विद्वान: मिश्रबंधु, कर्नल जेम्स टॉड, गुलाबराय, अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔंध’, श्यामसुंदर दास।
पृथ्वीराज रासो के विशेष तथ्य:
- आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की मान्यता है कि मूल पृथ्वीराज रासो शुक-शुकी संवाद में लिखा गया था। उनके अनुसार पृथ्वीराज रासो के जिन अंशों में शुक-शुकी संवाद नहीं मिलता है वे अंश अप्रमाणिक है। इसलिए उन्होंने इसे अर्द्धप्रामाणिक माना है।
- इतिहास के तिथियों और पृथ्वीराज रासो की तिथियों में अस्सी नब्बे (80 90) वर्षों का अंतर है।
- इस समस्या के समाधान के लिए मोहन लाल विष्णु लाल पांड्या ने ‘अनंत संवत्, की कल्पना की। उनकी मान्यता थी कि पृथ्वीराज रासो में दी गई तिथियाँ विक्रमी संवत् में नहीं होकर ‘अनंत संवत्’ में है। अगर अनंत संवत् की दृष्टि से इसकी गणना किया जाए तो इसमें हुई तिथियाँ इतिहास से मेल खाती हैं।
- नरोत्तम स्वामी ने पृथ्वीराज रासो को ‘मुक्तक काव्य’ माना है।
- डॉ नगेन्द्र ने पृथ्वीराज रासो को ‘स्वाभाविक विकासशील महाकाव्य’ माना है।
- डॉ दशरथ शर्मा ने पृथ्वीराज रासो को ‘वृहद महाभारत’ कहा है।
- डॉ श्यामसुंदर दास और उदयनारायण तिवारी ने पृथ्वीराज रासो को ‘विशाल वीर काव्य’ माना है।