मलिक मुहम्मद जायसी भक्तिकाल के निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा के कवि थे। जायसी का जन्म सनˎ1500ई० के आसपास माना जाता है। वे उत्तर प्रदेश में ‘जायस’ स्थान के रहने वाले थे। उन्होंने स्वयं इस दोहे में कहा है,
“जायस नगर मोर अस्थानू। नगरक नांव आदि उदयानू।
तहाँ देवस दस पहुने आएउं। भा वैराग बहुत सुख पाएऊँ।।” (आखरी कलाम 10)
उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में ‘जायस’ नाम का एक नगर आज भी है, जिसका पुराना नाम ‘उद्दानगर या उज्जालिक नगर’ बतलाया जाता है। उसी के ‘कंचाना खुर्द’ नामक मुहल्ले में जायसी का जन्म स्थान बतलाया जाता है। एक स्थान पर वे कहते हैं
“भा अवतार मोर नौ सदी। तीस बरिख ऊपर कवि बदी।।”
इसके आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उनका जन्म संभवतः 800-900 ही० के मध्य या 1397 से 1494 ई० के बीच हुआ होगा। तीस वर्ष की अवस्था में उन्होंने काव्य रचना शुरू किया होगा।
> पिता का नाम: मलिक राजे अशरफ बताया आता है। वे मामूली जमींदार थे। एक मान्यता के अनुसार- जायसी कुरूप और काने थे। अधिकतर लोगों के मान्यता के अनुसार शीतला रोग के कारण उनका शरीर विकृत हो गया था। अपने काने होने के कारण जायसी ने स्वयं लिखा है
“एक नयन कवि मुहम्मद गुनी।”
दाहिनी या बाईं आँख इस दोहे के संदर्भ में लिया जा सकता है:
“मुहमद बाईं दिसि तजा, एक सरवन एक आँखी।”
एक कथा के अनुसार- जायसी एक बार शेरशाह के दरबार में गए तब उन्हें देखकर शेरशाह हँस पड़े। जायसी ने शेरशाह से पूछा-
“मोहिका हससि, कि कोहरही?”
तू मुझपर हँसा या उस कुम्हार (ईश्वर) पर? शेरशाह लज्जित होकर उनसे क्षमा माँगा था।
रचनाएँ: उनकी 21 रचनाओं का उल्लेख मिलता है, जिसमे पद्मावत, अखरावट, आखिरी कलाम, कहरनामा, चित्रलेखा आदि प्रमुख है। इन्हें ख्याति पद्मावत ग्रंथ से मिली। पद्मावत अवधी भाषा का प्रथम ग्रंथ है। यह दोहा-चौपाई में निबद्ध मनसवी शैली में लिखा गया है।
- मल्लिक मुहम्मद जायसी के गुरु का नाम: उनहोंने शेख बुरहाम और सैयद अशरफ को अपने गुरु के रुप में उल्लेख किया है।
- जायसी का देहांत 1558 ई० में हुआ था।
- पद्मावत में चितौड़ के राजा रत्नसेन और सिंहलद्वीप की राकुमारी पद्मावती के प्रेमकथा, विवाह और विवाहोत्तर जीवन का चित्रण है।
- पद्मावत ‘प्रेम की पीर’ का व्यंजना करनेवाला विशुद्ध प्रबंधकाव्य है।
- हिन्दी में सूफी काव्य परम्परा के सर्वश्रेष्ठ कवि मलिक मोहम्मद जायसी हैं। इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं – अखरावट, आखरीकलाम और पद्मावत
- अखरावट में देवनागरी वर्णमाला के एक-एक वर्ण (अक्षर) को लेकर सैद्धांतिक बातें कही गई है। इसमें गुरु और चेला संवाद को स्थान दिया गया है। यह जायसी की अंतिम रचना है। आखरीकलाम में क़यामत का वर्णन है।
पद्मावत की व्याख्या आमतौर पर एक सूफ़ी काव्य के रूप में होती रही है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे आलोचकों ने भी पद्मावत के लौकिक प्रेम की अलौकिक व्याख्या करने की कोशिश की है। यदि गौर से देखें तो पायेंगे कि पद्मावत में मुल्ला दाऊद, उस्मान और कुतुबन जैसे रचनाकारों के प्रेमाख्यानों की अपेक्षा आध्यात्मिकता का पुट काफ़ी कम है। जायसी का जोर लौकिक प्रेम पर ज्यादा है। पद्मावत मूलतः युद्ध और प्रेम की ही कथा प्रतीत होती है, जिसमें यत्र-तत्र किंचित आध्यात्मिकता का पुट भी है। अपने पूर्ववर्तियों की तरह जायसी कथा को गूढ़ प्रभाव से युक्त नहीं मानते और न ही इसके पढ़ने से किसी आध्यात्मिक लाभ की आशा दिलाते हैं। जायसी के अनुसार, पद्मावत ‘प्रेम की पीर’ का काव्य है। जिसे पढ़कर पाठक की आंखों में आंसू ही जायेंगे।
मुहम्मद कवि यह जोरि सुनावा। सुना सो प्रेम पीर गा पावा II जोरि लाई रकत के लेई I गाढि प्रीति नैन जल भेई II
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी नागमती के विरह वर्णन को हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि घोषित किया है। इस विरह वर्णन ने शुक्लजी को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने जायसी को अपनी त्रिवेणी में स्थान दिया। वस्तुतः पद्मावत के पढ़ने के उपरान्त पाठक के मन पर रत्नसेन, नागमती और पद्मावती के प्रेम एवं उनके विरह के अतिरिक्त और कोई प्रभाव शेष नहीं रहता है। यह प्रेम की अनन्यता ही है। जिसने रत्नसेन को राजसिहांसन से उतारकर दर-दर का भिखारी बना दिया। तोते से पद्मावती के सौन्दर्य के बारे में सुनकर ही रत्नसेन के मन में वह प्रेम उत्पन्न हुआ, जो उसे सिंहलद्वीप तक ले पहुँचा। गुणकथन, स्वप्नदर्शन या चित्रदर्शन द्वारा प्रेम का उदय होना, हिन्दी काव्य की पुरानी परिपाटी रही है। पद्मावत में जायसी ने भी गुणकथन के द्वारा रत्नसेन के हृदय में पद्मावती के प्रति प्रेम का उद्भव होते दिखाया है। पद्मावती के प्रेम में पागल रत्नसेन देश-देश की खाक छानता हुआ, मार्ग के संकटों का सामना करता हुआ अंततः पद्मावती के देश सिंहलद्वीप पहुँच जाता है। यह रत्नसेन के प्रेम की चरम परिणति है, जहाँ उसके लिए पद्मावती के सिवा जीवन में और कोई पक्ष नहीं बचता।
रत्नसेन और पद्मावती का विवाह हो जाता है। जायसी ने उनके संयोग श्रृंगार का चित्रण भी किया है, परन्तु वे प्रेम के पीर की गाथा लिख रहे थे। इसलिए उनका ध्यान रत्नसेन और पदमावती के संयोग की कथा कहने से ज्यादा उस नागमती पर है, जो रत्नसेन के जाते ही उसके विरह में तड़पने लगती है। यह एक पत्नी का पति के प्रति प्रेम है। जिसकी जगह कोई दूसरा नहीं ले सकता। यह एकनिष्ठ दाम्पत्य प्रेम है। रत्नसेन भले ही पद्मावती के लिए नागमती को छोड़कर चला गया है, परन्तु नागमती रत्नसेन को एक पल के लिए भी भूल नहीं पाती है। वह उसका पति है। उसके जीवन का एकमात्र आश्रय। रत्नसेन के बिना यह पूरा जीवन उसके लिए निःसार है। आचार्य शुक्ल जैसे आलोचक नागमती के विरह वर्णन को पद्मावत का सबसे सशक्त पक्ष मानते हैं। आचार्य शुक्ल के अनुसार- वियोग में नागमती अपना रानीपन भूल जाती है और साधारण स्त्री की तरह आचरण करने लगती है। नागमती का विरह इतना तीव्र हो जाता है कि सारी प्रकृति जैसे उसके भावों से ही संचालित होने लगती है। भूमि पर रेंगने वाली वीर-बहूटियां और कुछ नहीं, बल्कि उसकी आंखों से टपकने वाले आसू रुपी रक्त की बूंदे ही हैं।
पलास और कुन्दरू के फल उसके रक्त से ही रंग कर लाल हो गये हैं। परवल उसके दुःख में पीला पड़ गया है। उसके दुख से ही गेहूँ का हृदय फट गया है।
तेहि दुख भए परास निपाते । लोहू बुडि उठे होइ राते ॥
राते बिंब भीजि तेहि लोहू । परवर पाक, फाट हिय गोहूँ ॥
नागमती रत्नसेन के विरह में दिन-रात सुलगती रहती है। वह न तो पूरी तरह जलकर समाप्त होती और न ही जलन किसी भांति कम होती। उसकी विरह-ज्वाला से निकले धुएं से कौए और भंवरे सभी काले पड़ गये हैं। प्राण जाने में कोई कसर शेष नहीं रह गयी, बस एक रत्नसेन से मिलने की आस ही उसके प्राण को अटकाये हुऐ है। वह वृक्ष से जुड़े ऐसे पीले पत्ते के समान हो गयी है, जिसे हवा का झोंका कभी भी उड़ा कर ले जा सकता है। विरह-ज्वाला ने प्राणरूपी हंस पंखों को जला डाला है। इसी कारण वह प्राणरुपी हंस उसके शरीर को छोड़कर नहीं जा पा रहा है। नागमती को उम्मीद है कि एक न एक दिन उसका प्रियतम उसके प्रेम को याद करके वापस लौटेगा। यही आशा उसे विरह के इन विषम दिनों में भी जिलाए हुये हैं। वह मनुष्यों से पति के पास सन्देश पहुँचाने की कोशिश से हारकर वनवासी हो जाती है, ताकि पक्षियों को अपना सन्देशवाहक बना सके, परन्तु जैसे ही किसी पक्षी के पास अपनी विरह गाथा सुनाने जाती है तो न सिर्फ वह पक्षी बल्कि वह पेड़ भी जिस पर पक्षी बैठा है, जलकर राख हो जाता है। रत्नसेन के बिना नागमती का कोई सहारा नहीं है। समाज में उसकी कोई पूछ नहीं है। होली, दिवाली जैसे त्यौहार उसके लिए निरर्थक हो गये हैं। जब पति ही साथ नहीं तो क्या साज क्या श्रृंगार! संयोग के क्षणों में जो वस्तुएं आनन्द प्रदान करती थी, अब वही उन क्षणों की स्मृति दिलाकर विरह और काम भावना को और तीव्र करती हैं। जो वस्तुएं मिलन के क्षणों को आह्लादक बना जाती थी, वही विरह की तीव्रता को और घनीभूत कर देती है। सारी प्रकृति ही जैसे नागमती की वेदना पर अपनी सम्मति देते हुए आंसू बहाने लगती है। प्रकृति का रेशा-रेशा नागमती के विरह को महसूस करने लगता है। यह जायसी की काव्य प्रतिभा ही है, जिसने परम्परा से चले आ रहे बारहमासे को नागमती के विरह वर्णन के माध्यम से नया संस्कार दे दिया है। साहित्यकार की श्रेष्ठता इसी में है कि वह परम्परा में कुछ नया जोड़े। नागमती के विरह वर्णन की अद्वितीयता बारहमासे के चित्रण में नहीं, बल्कि विरह की मार्मिक व्यंजना में है। नागमती की विरह वेदना सम्पूर्ण प्रकृति को प्रभावित करती हुई पाठक तक पहुँचती है और उसे एक गहरे टीस की अनुभूति दे जाती है। यह सही है कि नागमती के विरह वर्णन में कहीं कहीं ऊहात्मकता दिखाई देती है, परन्तु यह ऊहात्मकता नागमती के विरह के प्रभाव को बढ़ाती ही है, रीतिकाल के कवियों की तरह यह हास्यास्पद हद तक नहीं जाती है. यह विरह की पराकाष्ठा है, जहाँ पहुँचकर नागमती को समूची सृष्टि अपने विरह भावों की साक्षी और सहभागी जान पड़ने लगती है।
जायसी के विरहाकुल हृदय की गहन अनुभूति का सर्वाधिक मार्मिक-चित्रण नागमती के विरह-वर्णन में प्राप्त होता है। डॉ कमल कुलश्रेष्ठ के शब्दों में, ‘‘वेदना का जितना निरीह, निरावरण, मार्मिक, गम्भीर, निर्मल एवं पावन स्वरूप इस विरह-वर्णन में मिलता है, उतना अन्यत्र दुर्लभ है।” वास्तव में इसको पद्मावत का प्राण-बिन्दु माना जा सकता है। विरह-विदग्ध हृदय की संवेदनशीलता के इस चरम उत्कर्ष को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे प्रेम के चतुर चितेरे कवि ने नागमती को स्वयं में साकार कर किया हो। नागमती विरह-वर्णन में जैसे व्यथा स्वयं ही मुखारित होने लगी है। इसके लिए नागमती के विरह का आधार भी एक कारण है। नागमती का पति प्रेम विरहावस्था में प्रगाढतर हो गया। संयोग-सुख के समान उसने विरह का भी अभिनन्दन किया। स्मृतियों के सहारे, पति के प्रत्यागमन की आशा में उसने पथ पर पलकें बिछा दीं। किन्तु निर्मोही लौटा नहीं। एक वर्ष व्यतीत हो गया, प्रवास आजीवन प्रवास में बदल न जाए इस आशंका मात्र से ही उसका हृदय टूक-टूक हो गया। जायसी ने उसका चित्रण इस प्रकार किया है-
पद संख्या – 1
नागमती चितउर पथ हेरा । पिउ जो गए पुनि कीन्ह न फेरा॥
नागर काहु नारि बस परा । तेइ मोर पिउ मोसौं हरा॥
सुआ काल होइ लेइगा पीऊ । पिउ नहिं जात, जात बरु जीऊ॥
भएउ नरायन बाबँन करा । राज करत राजा बलि छरा॥
करन पास लीन्हेउ कै छंदू । बिप्र रूप धरि झिलमिल इंदू॥
मानत भोग गोपिचँद भोगी । लेइ अपसवा जलंधार जोगी॥
लेइगा कृस्नहि गरुड़ अलोपी । कठिन बिछोह, जियहिं किमि गोपी?
सारस जोरी कौन हरि, मारि बियाधा लीन्ह?
झुरि झुरि पींजर हौं भई, बिरह काल मोहि दीन्ह॥1॥
शब्दार्थः पथ हेरा=रास्ता देखती है। नागर=नायक। बाबँन करा=वामन रूप। छरा=छला। करन=राजा कर्ण। छंदू=छलछंद, धाूर्तता। झिलमिल=कवच (सीकड़ों का)। अपसवा=चल दिया। पींजर=पंजर, ठठरी।
पद संख्या – 2
पिउ बियोग अस बाउर जीऊ । पपिहा निति बोले ‘पिउ पीऊ॥’
अधिाक काम दाधो सो रामा । हरि लेइ सुवा गएउ पिउ नामा॥
बिरह बान तस लाग न डोली । रक्त पसीज, भीजि गई चोली॥
सूखा हिया, हार भा भारी । हरे हरे प्रान तजहिं सब नारी॥
खन एक आव पेट महँ! सांसा। खनहिं जाइ जिउ, होइ निरासा॥
पवन डोलावहिं सींचहिं चोला। पहर एक समुझहिं मुख बोला॥
प्रान पयान होत को राखा? को सुनाव पीतम कै भाखा?
आजि जो मारै बिरह कै, आगि उठै तेहि लागि।
हंस जो रहा सरीर महँ, पाँख जरा, गा भागि॥2॥
शब्दार्थः बाउर=बावला। हरे-हरे=धारे-धीरे। नारी=नाड़ी। चोला=शरीर। पहर एक…बोला=इतना अस्पष्ट बोल निकलता है कि मतलब समझने में पहरों लग जाते हैं। हंस=हंस और जीव।
पद संख्या – 3
पाट महादेइ! हिये न हारू। समुझि जीउ, चित चेतु सँभारू॥
भौंर कँवल सँग होइ मेरावा। सँवरि नेह मालति पहँ आवा॥
पपिहै स्वाती सौं जस प्रीती। टेकु पियास, बाँधाु मन थीती॥
धारतिहि जैस गगन सौं नेहा। पलटि आव बरषा ऋतु मेहा॥
पुनि बसंत ऋतु आव नवेली। सो रस, सो मधाुकर, सो बेली॥
जिनि अस जीव करसि तू बारी। यह तरिवर पुनि उठिहि सवारी॥
दिन दस बिनु जल सूखि बिधांसा। पुनि सोइ सरवर सोई हंसा॥
मिलहिं जो बिछुरे साजन, अंकम भेंटि अहंत।
तपनि मृगसिरा जे सहैं, ते अद्रा पलुहंत॥3॥
शब्दार्थः पाट महादेइ=पट्टमहादेवी, पटरानी। मेरावा=मिलाप। टेकु पियास=प्यास सह। बाँधाु मन थीती=मन में स्थिरता बाँधा। जिनि=मत। पलुहंत=पल्लवित होते हैं, पनते हैं।
पद संख्या – 4
चढ़ा असाढ़, गगन घन गाजा। साजा बिरह दुंद दल बाजा॥
धूम, साम, धीरे घन घाए। सेत धाजा बग पाँति देखाए॥
खड़ग बीजु चमकै चहुँ ओरा। बुंद बान बरसहिं घन घोरा॥
ओनई घटा आइ चहुँ फेरी। कंत! उबारु मदन हौं घेरी॥
दादुर मोर कोकिला, पीऊ। गिरै बीजु, घट रहै न जीऊ॥
पुष्य नखत सिर ऊपर आवा। हौं बिनु नाह, मँदिर को छावा?
अद्रा लाग लागि भुइँ लेई। मोहिं बिनु पिउ को आदर देई॥
जिन्ह घर कंता ते सुखी, तिन्ह गारौ औ गर्ब।
कंत पियारा बाहिरै, हम सुख भूला सर्ब॥4॥
शब्दार्थः गाजा=गरजा। धाूम=धाूमले रंग के। धाौरे=धावल, सफेद। ओनई=झुकी। लेई लागि=खेतों में लेवा लगा, खेत में पानी भर गया। गारौ=गौरव, अभिमान (प्राकृत-गारव, ‘आ च गौरवे’)।
पद संख्या – 5
सावन बरस मेह अति पानी। भरनि परी, हौं बिरह झुरानी॥
लाग पुनरबसु पीउ न देखा। भइ बाउरि, कहँ कंत सरेखा॥
रकत कै ऑंसु परहिं भुइँ टूटी। रेंगि चलीं जस बीरबहूटी॥
सखिन्ह रचा पिउ संग हिंडोला। हरियरि भूमि, कुसुंभी चोला॥
हिय हिंडोल अस डोलै मोरा। बिरह झुलाइ देइ झकझोरा॥
बाट असूझ अथाह गँभीरी। जिउ बाउर, भा फिरै भँभीरी॥
जग जल बूड़ जहाँ लगि ताकी। मोरि नाव खेवक बिनु थाकी॥
परबत समुद अगम बिच, बीहड़ वन बनढाँख।
किमि कै भेंटौं कंत तुम्ह? ना मोहि पाँव न पाँख॥5॥
शब्दार्थः मेह=मेघ। भरनि परी=खेतों में भरनी लगी। सरेख=चतुर। भँभीरी=एक प्रकार का फतिंगा जो संधया के समय बरसात में आकाश में उड़ता दिखाई पड़ता है।
पद संख्या – 6
भा भादों दूभर अति भारी । कैसे भरौं रैनि ऍंधिायारी॥
मँदिर सून पिउ अनतै बसा । सेज नागिनी फिरि फिरि डसा॥
रहौं अकेलि गहे एक पाटी । नैन पसारि मरौं हिय फाटी॥
चमकि बीजु घन गरजि तरासा । बिरह काल होइ जीउ गरासा॥
बरसै मघा झकोरि झकोरी । मोर दुइ नैन चुवैं जस ओरी॥
धानि सूखै भरे भादौं माहा । अबहुँ न आएन्हि सींचेन्हि नाहा॥
पुरबा लाग भूमि जल पूरी । आग जवास भई तस झूरी॥
थल जल भरे अपूर सब, धारति गगन मिलि एक।
धानि जोबन अवगाह महँ, दे बूड़त, पिउ! टेक॥6॥
शब्दार्थः दूभर=भारी कठिन। भरौं=काटूँ, बिताऊँ; जैसे-नैहर जनम भरब बरु जाई-तुलसी। अनतै=अन्यत्रा। तरासा=डराता है। ओरी=ओलती। पुरबा=एक नक्षत्रा।
पद संख्या – 7
लाग कुवार, नीर जग घटा । अबहुँ आउ कंत तन लटा॥
तोहि देखे पिउ! पलुहै कया । उतरा चीतु बहुरि करु मया॥
चित्राा मित्रा मीन कर आवा । पपिहा पीउ पुकारत पावा॥
उआ अगस्त, हस्ति घन गाजा । तुरय पलानि चढ़े रन राजा॥
स्वाति बूँद चातक मुखपरे । समुद सीप मोती सब भरे॥
सरवर सँवरि हंस चलि आए । सारस कुरलहिं, खंजन देखाए॥
भा परगास, काँस बन फूले । कंत न फिरे बिदेसहि भूले॥
बिरह हस्ति तन सालै, धााय करै चित चूर।
बेगि आइ, पिउ! बाजहु, गाजहु होइ सदूर॥7॥
शब्दार्थः लटा=शिथिल हुआ। पलुहै=पनपती है। उतरा चीतु=चित्ता से उतरी या भूली बात धयान में ला। चित्राा=एक नक्षत्रा। तुरय=घोड़ा। पलानि=जीन कसकर। घाय=घाव। बाजहु=लड़ो। गाजहु=गरजो। सदूर=शार्दूल, सिंह।
पद संख्या – 8
कातिक सरद चंद उजियारी । जग सीतल, हौं बिरहै जारी॥
चौदह करा चाँद परगासा । जनहुँ जरै सब धारति अकासा॥
तन मन सेज करै अगिदाहू । सब कहँ चंद, भएउ मोहि राहू॥
चहूँ खंड लागै ऍंधिायारा । जौं घर नाही कंत पियारा॥
अबहूँ निठुर! आउ एहि बारा । परब देवारी होइ संसारा॥
सखि झूमक गावैं ऍंग मोरी । हौं झुरावँ, बिछुरी मोरि जोरी॥
जेहि घर पिउ सो मनोरथ पूजा । मो कहँ बिरह, सवति दुख दूजा॥
सखि मानैं तिउहार सब, गाइ देवारी खेलि।
हौं का गावौं कंत बिनु रही छार सिर मेलि॥8॥
शब्दार्थः झूमक=मनोरा झूमक नाम का गीत। झुरावँ=सूखती हूँ। जनम=जीवन।
पद संख्या – 9
अगहन दिवस घटा निसि बाढ़ी । दूभर रैनि, जाइ किमि गाढ़ी?
अब यहि बिरह दिवस भा राती । जरौं बिरह जस दीपक बाती॥
काँपे हिया जनावै सीऊ । तौ पै जाइ होइ सँग पीऊ॥
घर घर चीर रचे सब काहू । मोर रूप रँग लेइगा नाहू॥
पलटि न बहुरा गा जो बिछोई । अबहूँ फिरै फिरै रँग सोई॥
बज्र अगिनि बिरहिनि हिय जारा । सुलुगि सुलुगि दगधौ होइ छारा॥
यह दुख दगधा न जानै कंतू । जोबन जनम करै भसमंतू॥
पिउ सौं कहेउ सँदेसड़ा, हे भौंरा! हे काग!
सो धानि बिरहै जरि मुई, तेहि क धाुवाँ हम्ह लाग॥9॥
शब्दार्थः दूभर=भारी, कठिन। नाहू=नाथ। सो धानि बिरहै…लाग=अर्थात् वही धाुऑं लगने के कारण मानो भौंरे और कौए काले हो गए।
पद संख्या – 10
पूस जाड़ थर थर तन काँपा । सुरुज जाइ लंका दिसि चाँपा॥
बिरह बाढ़, दारुन भा सीऊ । कँपि कँपि मरौं, लेइ हरि जीऊ॥
कंत कहाँ लागौं औहि हियरे । पंथ अपार, सूझ नहिं नियरे॥
सौंर सपेती आवै जूड़ी । जानहु सेज हिवंचल बूड़ी॥
चकई निसि बिछुरै दिन मिला । हौं दिन राति बिरह कोकिला॥
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी । कैसे जियै बिछोही पखी॥
बिरह सचान भएउ तन जाड़ा । जियत खाइ औ मुए न छाँड़ा॥
रकत ढुरा माँसू गरा, हाड़ भएउ सब संख।
धानि सारस होइ ररि मुई, पीउ समेटहि पंख॥10॥
शब्दार्थः लंका दिसि=दक्षिण दिशा को। चाँपा जाइ=दबा जाता है। कोकिला=जलकर कोयल (काली) हो गई। सचान=बाज। जाड़ा=जाड़े में। ररि मुई=रटकर मर गई। पीउ…पंख=प्रिय आकर अब पर समेटे।
पद संख्या – 11
लागेउ माघ परै अब पाला । बिरहा काल भएउ जड़काला॥
पहल पहल तन रूई झाँपै । हहरि हहरि अधिाकौ हिय काँपै॥
आइ सूर होइ तपु, रे नाहा । तोहि बिनु जाड़ न छूटै माहा॥
एहि माह उपजै रसमूलू । तूँ सौ भौंर मोर जोबन फूलू॥
नैन चुवहिं जस महवट नीरू । तोहि बिनु अंग लाग सर चीरू॥
टप टप बूँद परहिं अस ओला । बिरह पवन होइ मारै झोला॥
केहि क सिंगार, को पहिरु पटोरा। गीउ न हार, रही होइ डोरा॥
तुम बिनु काँपे धनि हिया, तन तिनउर भा डोल।
तेहि पर बिरह जराइ कै, चहै उड़ावा झोल॥11॥
शब्दार्थः जड़काला=जाड़े के मौसम में। माहा=माघ में। महवट=मघवट, माघ की झड़ी। चीरू=चीर, घाव। सर=बाण। झोला मारना=बात के प्रकोप से अंग का सुन्न हो जाना। केहि क सिंगार?=किसका शृंगार? कहाँ का शृंगार करना? पटोरा=एक प्रकार का रेशमी कपड़ा। डोरा=क्षीण होकर डोरे के समान पतली। तिनउर=तिनके का समूह। झोल=राख, भस्म; जैसे-‘आगि जो लागी समुद में टुटि टुटि खसै जो झोल’-कबीर।
पद संख्या – 12
फागुन पवन झकोरा बहा। चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा॥
तन जस पियर पात भा मोरा। तेहि पर बिरह देइ झकझोरा॥
तरिवर झरहिं, झरहिं बन ढाखा। भइ ओनंत फूलि फरि साखा॥
करहिं बनसपति हिये हुलासू। मो कहँ भा जग दून उदासू॥
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी। मोहिं तन लाइ दीन्ह जस होरी॥
जो पै पीउ जरत अस पावा। जरत मरत मोहिं रोष न आवा॥
राति दिवस बस यह जिउ मोरे। लगौं निहोर कंत अब तोरे॥
यह तन जारौं छार कै, कहौं कि ‘पवन! उड़ाव’।
मकु तेहि मारग उड़ि परै, कंत धरै जहँ पाव॥12॥
शब्दार्थः ओनंत=झुकी हुई। निहोर लगौं=यह शरीर तुम्हारे निहोरे लग जाए, तुम्हारे काम आ जाए।
पद संख्या – 13
चैत बसंता होइ धामारी। मोहिं लेखे संसार उजारी॥
पंचम बिरह पंच सर मारै। रकत रोइ सगरौं बन ढारै॥
बूड़ि उठे सब तरिवर पाता। भीजि मजीठ, टेसु बन राता॥
बौरे आम फरै अब लागे। अबहुँ आउ घर, कंत सभागे॥
सहस भाव फूलीं बनसपती। मधाुकर घूमहिं सँवरि मालती॥
मोकहँ फूल भए सब काँटे। दिस्टि परत जस लागहिं चाँटे॥
फरि जोबन भए नारँग साखा। सुआ बिरह अब जाइ न राखा॥
घिरिनि परेवा होइ पिउ! आउ बेगि परु टूटि।
नारि पराए हाथ है, तोहि बिनु पाव न छूटि॥13॥
शब्दार्थः पंचम=कोकिल का स्वर या पंचम राग। (वसंत पंचमी माघ में ही हो जाती है इससे ‘पंचमी’ अर्थ नहीं ले सकते) सगरौं=सारे। बूड़ि उठे…पाता=नए पत्ताों मेें ललाई मानो रक्त में भीगने के कारण है। घिरिनि परेवा=गिरहबाज कबूतर या कौड़िल्ला पक्षी। नारि=(क) नाड़ी, (ख) स्त्राी।
पद संख्या – 14
भा बैसाख तपनि अति लागी। चोआ चीर चँदन भा आगी॥
सूरुज जरत हिवंचल ताका। बिरह बजागि सौंह रथ हाँका॥
जरत बजागिनि करु, पिउ छाहाँ। आइ बुझाउ, ऍंगारन्ह माहाँ॥
तोहि दरसन होइ सीतल नारी। आइ आगि तें करु फुलवारी॥
लागिउँ जरै जरै जस भारू। फिरि फिरि भूँजेसि, तजिउँन बारू॥
सरवर हिया घटत निति जाई। टूक टूक होइकै बिहराई॥
बिहरत हिया करहु पिउ! टेका। दीठि दवँगरा मेरवहु एका॥
कँवल जो बिगसा मानसर, बिनु जल गएउ सुखाइ।
कबहुँ बेलि फिरि पलुहै, जौ पिउ सींचै आइ॥14॥
शब्दार्थः हिवंचल ताका=उत्तारायण हुआ। बिरह बजागि…हाँका=सूर्य तो सामने से हटकर उत्तार की ओर खिसका हुआ चलता है, उसके स्थान पर विरहाग्नि से सीधो मेरी ओर रथ हाँका। भारू=भाड़। सरवर हिया…बिहराई=तालों का पानी जब सूखने लगता है तब पानी सूखे हुए स्थान में बहुत सी दरारें पड़ जाती हैं जिससे बहुत से खाने कटे दिखाई पड़ते हैं। दवँगरा=वर्षा के आरंभ की झड़ी। मेरवहु एका=दरारें पड़ने के कारण जो खंड-खंड हो गए हैं उन्हें मिलाकर फिर एक कर दो। बड़ी सुंदर उक्ति है।
पद संख्या – 15
जेठ जरै जग, चलै लुवारा। उठहिं बवंडर परहिं ऍंगारा॥
बिरह गाजि हनुबँत होइ जागा। लंकादाह करै तनु लागा॥
चारिहु पवन झकोरै आगी। लंका दाहि पलंका लागी॥
दहि भइ साम नदी कालिंदी। बिरह क आगि कठिन अति मंदी॥
उठै आगि औ आवै ऑंधाी। नैन न सूझ, मरौं दु:ख बाँधाी॥
अधाजर भइउँ, माँसु तनु सूखा। लागेउ बिरह काल होइ भूखा॥
माँस खाइ सब हाड़न्ह लागै। अबहुँ आउ, आवत सुनि भागै॥
गिरि, समुद्र, ससि, मेघ, रवि, सहि न सकहिं वह आगि।
मुहमद सती सराहिए, जरै जो अस पिउ लागि॥15॥
शब्दार्थः लूवार=लू। गाजि=गरजकर। पलंका=पलँग। मंदी=धाीरे-धाीरे जलानेवाली।
पद संख्या – 16
तपै लागि अब जेठ असाढ़ी। तोहि पिउ बिनु छाजनि भइ गाढ़ी॥
तन तिनउर भा, झूरौं खरी। भइ बरखा, दुख आगरि जरी॥
बंधा नाहिं औ कंधा न कोई। बात न आव कहौं का रोई?॥
साँठि नाठि, जग बात को पूछा ? बिनु जिउ फिरै मूँज तनु छूँछा॥
भई दुहेली टेक बिहूनी। थाँम नाहिं उठि सकै न थूनी॥
बरसै मेघ चुवहिं नैनाहा। छपर छपर होइ रहि बिनु नाहा॥
कोरौं कहाँ ठाट नव साजा ? तुम बिनु कंत न छाजनि छाजा॥
अबहुँ मया दिस्टि करि, नाह निठुर! घर आउ।
मँदिर उजार होत है, नव कै आइ बसाउ॥16॥
शब्दार्थः तिनउर=तिनकों का ठाट। झूरौं=सूखती हूँ। बंधा=ठाट बाँधाने के लिए रस्सी। कंधा न कोई=अपने ऊपर (सहायक) भी कोई नहीं है। साँठि नाठि=पूँजी नष्ट हुई। मूँज तनु छूँछा=बिना बंधान की मूँज के ऐसा शरीर। थाँम=खंभा। थूनी=लकड़ी की टेक। छपर छपर=तराबोर। कोरौं=छाजन की ठाट में लगे बाँस या लकड़ी। नव कै=नए सिरे से।
पद संख्या – 17
रोइ गँवाए बारह मासा। सहस सहस दुख एक एक साँसा॥
तिल तिल बरख बरख पर जाई। पहर पहर जुग जुग न सेराई॥
सो नहिं आवै रूप मुरारी। जासौं पाव सोहाग सुनारी॥
साँझ भए झुरि झुरि पथ हेरा। कौनि सो घरी करै पिउ फेरा?
दहि कोइला भइ कंत सनेहा। तोला माँसु रही नहिं देहा॥
रकत न रहा बिरह तन गरा। रती रती होइ नैनन्ह ढरा॥
पाय लागि जोरै घनि हाथा। जारा नेह, जुड़ावहु, नाथा॥
बरस दिवस धानि रोइ कै, हारि परी चित झंखि।
मानसु घर घर बूझि कै, बूझै निसरी पंखि॥17॥
शब्दार्थः सहस सहस साँस=एक एक दीर्घ नि:श्वास सहस्रों दु:खों से भरा था, फिर बारह महीने कितने दु:खों से भरे बीते होंगे। तिल तिल…परि जाई=तिल भर समय एक-एक वर्ष के इतना पड़ जाता है। सेराई=समाप्त होता है। सोहाग=(क) सौभाग्य; (ख) सोहागा। सुनारी=(क) वह स्त्राी, (ख) सुनारिन। झूरि=सूखकर।
पद संख्या – 18
भई पुछार, लीन्ह बनबासू। बैरिनि सवति दीन्ह चिलबाँसू॥
होइ खर बान बिरह तनु लागा। जौ पिउ आवै उड़हि तौ कागा॥
हारिल भई पंथ मैं सेवा। अब तहँ पठवौं कौन परेवा॥
धाौरी पंडुक कहु पिउ नाऊँ। जौं चितरोख न दूसर ठाऊँ॥
जाहि बया होइ पिउ कँठ लवा। करै मेराव सोइ गौरवा॥
कोइल भई पुकारति रही। महरि पुकारै ‘लेइ लेइ दही’॥
पेड़ तिलोरी औ जल हंसा। हिरदय पैठि बिरह कटनंसा॥
जेहि पंखी के निअर होइ, कहै बिरह कै बात।
सोइ पंखी जाइ जरि, तरिवर होइ निपात॥18॥
शब्दार्थः पुछार=(क) पूछने वाली, (ख) मयूर। चिलवाँस=चिड़िया फँसाने का एक फंदा। कागा=स्त्रिायाँ बैठे कौए को देखकर कहती हैं कि ‘प्रिय आता हो तो उड़ जा।’ हारिल=(क) थकी हुई, (ख) एक पक्षी। धाौरी=(क) सफेद, (ख) एक चिड़िया। पंडुक=(क) पीली, (ख) एक चिड़िया। चितरोख=(क) हृदय में रोष, (ख) एक पक्षी। जाहि बया=संदेश लेकर जा और फिर आ (बया=आ-फारसी)। कँठलवा=गले में लगाने वाला। गौरवा=(क) गौरवयुक्त, बड़ा, (ख) गौरा पक्षी। दही=(क) दधिा; जलाई। पेड़=पेड़ पर। जल=जल में। तिलोरी=तेलिया मैना। कटनंसा=(क) काटता और नष्ट करता है; (ख) कटनास या नीलकंठ। निपात=पत्राहीन।
पद संख्या – 19
कुहुकि कुहुकि जस कोइल रोई। रकत ऑंसु घुघुची बन बोई॥
भइ करमुखी नैनतन राती। को सेराव? बिरहा दुख ताती॥
जहँ जहँ ठाढ़ि होइबनबासी। तहँ तहँ होइ घुँघुचि कै रासी॥
बूँद बूँद महँ जानहुँ जीऊ। गुंजा गूँजि करै ‘पिउ पीऊ’॥
तेहि दुख भए परास निपाते। लोहू बूड़ि उठे होइ राते॥
राते बिंब भीजि तेहि लोहू। परवर पाक, फाट हिय गोहूँ॥
देखौं जहाँ होइ सोइ राता। जहाँ सो रतन कहै को बाता?
नहिं पावस ओहि देसरा, नहिं हेवंत बसंत।
ना कोकिल न पपीहरा, जेहि सुनि आवै कंत॥19॥शब्दार्थः घुँघुची=गुंजा। सेराव=ठंढा करे। बिंब=बिंबाफल।
Nice information
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