यहकविता अज्ञेय जी की 1962 से 1966 के बीच की रचित कविताओं का संग्रह है। इस कविता के लिए उन्हें (1978) में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इस कविता में कवि ने यह स्पष्ट किया है कि व्यक्ति कई बार सत्य की खोज में भटक जाता है। वह सत्य को अपने पास खोजने की अपेक्षा अधिक दूर-दूर स्थानों पर ढूंढने चला जाता है। कवि कहता है कि मानव कई बार इसी उद्देश्य से विदेशों में गया किंतु वहां विदेशी चकाचौंध में खो गया। उस निर्मम प्रकाश ने उसके अंधकार को और बढ़ा दिया। अर्थात उस चौंधियाते प्रकाश ने उसे सत्य से और अधिक दूर कर दिया।
जहां नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश।
इसके विपरीत कवि को अपने देश की शांति और धुंधलेपन में अपनेपन की भावना अनुभव होती है जिससे आत्मा को एक अनुपम संतुष्टि मिलती है। इस प्रकार कवि को अपने देश में ही परम शांति और सत्य का अनुभव होता है। कवि के अनुसार अपने देश जैसा सत्य और प्रकाश अन्यत्र दुर्लभ है। कवि के अनुसार विदेशों में केवल नकली चमक और मानवता के विकास के कृत्रिम आंकड़े हैं। कवि ने अपने अनुभव से जान लिया है कि भारतीय संस्कृति और जीवन मूल्य विश्व में सर्वोत्तम हैं।
कितनी नावों में कितनी बार (कविता इकाई-5)
कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठकर
मैं तुम्हारीओर आया हूँ
ओ मेरी छोटी-सी ज्योति !
कभी कुहासे में तुम्हें न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी सी रुपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल |
कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त अक्लांत
ओ मेरे अनबुझे सत्य ! कितनी बार…… (1)
और कितनी बार कितने जगमग जहाज
मुझे खींच कर ले गए हैं कितनी दूर
किन पराये देशों की बेदर्द हवाओं में
जहां नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नहीं बनते
केवल चौंधियाते हैं तथ्य, तथ्य-तथ्य –
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त –
कितनी बार ! (2)
इस कविता में कवि ने एक बार फिर अपनी अखण्ड मानव-आस्था की भारतीयता के नाम से प्रचलित अवाक् रहस्यवादिता से वैसे ही दूर रखा है जैसे की प्रगल्भ आधुनिक अनास्था के साँचे से उसे हमेशा दूर रखता रहा है। मनुष्य कि गति और उसकी नियति की ऐसी पकड़ समकालीन कविता में अन्यत्र दुर्लभ है।