‘परिवर्तन’ यह कविता 1924 में लिखी गई थी। कविता रोला छंद में रचित है। यह एक लम्बी कविता है। यह कविता ‘पल्लव’ नामक काव्य संग्रह में संकलित है। परिवर्तन कविता को समालोचकों ने एक ‘ग्रैंड महाकाव्य’ कहा है। स्वयं पंत जी ने इसे पल्लव काल की प्रतिनिधि रचना मानते हैं।
परिवर्तन को कवि ने जीवन का शाश्वत सत्य माना है। यहाँ सबकुछ परिवर्तनशील है। इसमें परिवर्तन के कोमल और कठोर दोनों रूपों का चित्रण है। परिवर्तन को रोकने की क्षमता किसी में भी नहीं है।
भाग-1
आज कहाँ वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
भूतियों का दिगंत-छबि-जाल,
ज्योति-चुम्बित जगती का भाल?
राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार?
स्वर्ग की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार!
प्रसूनों के शाश्वत-शृंगार,
(स्वर्ण-भृंगों के गंध-विहार)
गूंज उठते थे बारंबार,
सृष्टि के प्रथमोद्गार!
नग्न-सुंदरता थी सुकुमार,
ॠध्दि औ’ सिध्दि अपार!
अये, विश्व का स्वर्ण-स्वप्न, संसृति का प्रथम-प्रभात,
कहाँ वह सत्य, वेद-विख्यात?
दुरित, दु:ख, दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित जरा-मरण-भ्रू-पात!
भाग-2
हाय! अब मिथ्या-बात!
आज तो सौरभ का मधुमास
शिशिर में भरता सुनी-साँस!
वही मधुऋतु की गुन्जित-डाल
झुकी थी जो यौवन के भार,
अकिन्चंता में निज तत्काल
सिगार उठती,-जीवन है भार!
आज पावास-नद के उद्गार
काल के बनते चिन्ह-काल;
प्रातः का सोने का संसार
जला देती संध्या की ज्वाल!
अखिल यौवन के रंग-उभार
हड्डियों के हिलते कंकाल;
कचों के चिकने, काले व्याल
केंचुली, काँस, सिवार;
गूंजते हैं सब के दिन-चार,
सभी फिर हाहाकार!
भाग-3
आज बचपन का कोमल-गात
जरा सा पीला-पात !
चार-दिन सुखद चाँदनी-रात,
और फिर अंधकार, आज्ञात !
शिशिर-सा झर नयनों का नीर
झुलस देता गालों के फूल!
प्रणय का चुम्बन छोड़ अधीर
अधार जाते अधरों को भूल!
मृदुल-होठों का हिमजल-हास
सरल-भोंहो का शरदाकाश
घेर लेते घन, घिर गम्भीर!
शून्य साँसों का विधुर-वियोग
छुड़ाता अधर-मधुर-संयोग;
मिलन के पल केवल दो, चार,
विरह के कल्प अपार !
अरे, वे अपलक चार-नयन
आठ-आँसूं रोते निरुपाय;
उठे-रोओं के आलिंगन
कसक उठते काँटों-से हाय!
भाग-4
किसी को सोने के सुख-साज
मिल गए यदि ऋण भी कुछ आज;
चका लेता दुःख कल ही व्याज,
काल को नहीं किसी की लाज!
वुपुल मणि-रत्नों का छवि-जाल,
इंद्रधनुष की-सी छटा विशाल-
विभव की विद्युत्-ज्वाल
चमक, जाती है छिप तत्काल;
मोतियों-जड़ी ओस की डार
हिला जाता चुपचाप बयार!
भाग-5
खोलता इधर जन्म लोचन,
मूँदती उधर मृत्यु क्षण, क्षण;
अभी उत्सव औ’ हास-उल्लास,
अभी अवसाद, अश्रु, उच्छावास!
अचिरता देख जगत की आप
शून्य भरता समीर निःश्वास,
डालता पातों पर चुपचाप
ओस के आँसू नीलाकाश;
सिसक उठता समुंद्र का मन,
सिहर उठते उडगन!
भाग-6
अहे निष्ठुर परिवर्तन !
तुम्हारा ही तांडव नर्तन
विश्व का करुण विवर्तन !
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान, पतन !
अहे वासुकि सहस्र फन !
लक्ष्य अलक्षित चरण तुम्हारे चिन्ह निरंतर
छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर !
शत-शत फेनोच्छ्वासित, स्फीत फुतकार भयंकर
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर !
मृत्यु तुम्हारा गरल दंत, कंचुक कल्पान्तर ,
अखिल विश्व की विवर
वक्र कुंडल
दिग्मंडल !
भाग-7
अह दुर्जेय विश्वजित !
नवाते शत सुरवर नरनाथ
तुम्हारे इन्द्रासन-तल माथ;
घूमते शत-शत भाग्य अनाथ,
सतत रथ के चक्रों के साथ !
तुम नृशंस से जगती पर चढ़ अनियंत्रित ,
करते हो संसृति को उत्पीड़न, पद-मर्दित ,
नग्न नगर कर, भग्न भवन,प्रतिमाएँ खंडित
हर लेते हों विभव,कला,कौशल चिर संचित !
आधि, व्याधि, बहुवृष्टि, वात, उत्पात, अमंगल
वह्नि, बाढ़, भूकम्प–तुम्हारे विपुल सैन्य दल;
अहे निरंकुश ! पदाघात से जिनके विह्वल
हिल-हिल उठता है टलमल
पद दलित धरातल !
भाग-8
जगत का अविरत ह्रतकंपन
तुम्हारा ही भय -सूचन ;
निखिल पलकों का मौन पतन
तुम्हारा ही आमंत्रण !
विपुल वासना विकच विश्व का मानस-शतदल
छान रहे तुम,कुटिल काल-कृमि-से घुस पल-पल;
तुम्हीं स्वेद-सिंचित संसृति के स्वर्ण-शस्य-दल
दलमल देते, वर्षोपल बन, वांछित कृषिफल !
अये ,सतत ध्वनि स्पंदित जगती का दिग्मंडल
नैश गगन-सा सकल
तुम्हारा हीं समाधिस्थल !
भाग-9
काल का अकरुण–भृकुटी-विलास
तुम्हारा ही परिहास;
विश्व का अश्रु-पूर्ण इतिहास
तुम्हारा ही इतिहास !
एक कठोर-कटाक्ष तुम्हारा अखिल-प्रलयकार
समर छेड़ देता निर्मम-संसृति मे निर्भर;
भूमि चूम जाते अभ्र-ध्वज-सौंध, श्रृंगवर,
नष्ट-भ्रष्ट साम्राज्य-भूति के मेघाडम्बर !
अयं एक रोमांच तुम्हारा दिग्भू-कम्पन,
गिर-गिर पड़ते भीत-पक्षि-पोतों से उडगन;
आलोड़ित-अम्बुधि फेनोंन्नत कर शत-शत फन,
मुग्ध-भुजंगम-सा, इंगित पर करता नर्तन !
दिक्-पिंजर में बद्ध, गजाधिप-सा विनतानन,
वाताहत हो गगन
आर्त करता गुरु-गर्जन !
भाग-10
जगत की शत-कातर-चीत्कार
बोधतीं वधिर! तुम्हारे कान !
अश्रु श्रोतों की अगणित-धार
सिंचातीं उर-पाषाण !
अरे क्षण क्षण सौ सौ निःस्वास
छा रहे जगती का आकाश !
चतुर्दिक घहर-घहर आक्रांति
ग्रस्त करती सुख-शान्ति!
भाग-11
हाय री दुर्बल-भ्रान्ति !
कहाँ नश्वर-जगती में शान्ति?
सृष्टि ही का तात्पर्य अशान्ति !
जगत अविरत-जीवन-संग्राम,
स्वप्न है यहाँ विराम !
एक सौ वर्ष, नगर-उपवन,
एक सौ वर्ष विजन-वन !
यही तो है असार-संसार,
सृजन सिंचन, संहार !
रत्न-दीपावलि, मन्त्रोच्चार ;
उलुकों के कल भग्न-विहार,
झिल्लियों की झनकार!
दिवस-निशि का यह विश्व-विशाल
मेघ-मारुत का माया-जाल!
भाग-12
अरे, देखो इस पार—
दिवस की आभा में साकार
दिगम्बर, सहस रहा संसार!
हाय ! जग के करतार !!
प्रात ही तो कहलाई मात,
पयोधर वने उरोज उदार,
मधुर उर-इच्छा को अज्ञात
प्रथम ही मिला मृदुल-आकर;
छिन गया हाय ! गोद का बाल,
गड़ी है विणा वाल की नाल !
अभी तो मुकुट बँधाथा माँथ,
हुए कल ही हल्दी के हाथ ;
खुले भी न थे लाज के बोल,
खिले भी चुम्बन-शून्य कपोल;
हाय !रुक गया यहीं संसार
बना सिन्दूर अँगार !
वात-हत-लतिका वह सुकुमार
पड़ी है छिन्नाधार !!
भाग-13
कांपता उधर दैन्य नुरुपाय,
रज्जु-सा, छिद्रों का कृश काय !
न उर में गृह का तनिक दुलार,
उदर ही में दानों का भार !
भूँकता सिड़ी शिशिर का श्रान
चीरता हरे ! अचीर शरीर;
न अधरों में स्वर, तन में प्राण,
न नयनों ही में नीर !
भाग-14
सकल रोओं से हाथ पसार
लूटता इधर लोभ गृह द्वार;
उधर वामन डग स्नेच्छाचार
नापत जगती का विस्तार !
टिड्डियों-सा छा अत्याचार
चाट जाता संसार !
भाग-15
बजा लोहे के दंत कठोर
नाचाती हिंसा जिह्वा लोल;
भृकुटि के कुण्डल वक्र मरोर
फुहुँकता अन्ध-रोष फन खोल !
लालची-गीधों से दिन रात
नोचते रोग-शोक नित गात,
अस्थि-पंज्जर का दैत्य दुकाल
निगल जाता निज बाल !
भाग-16
बहा नर-शोणित मुसलधार,
रुण्ड-मुंडों घिर की बौछार,
प्रलय-घन-सा भीमाकार
गरजता है दिगन्त-संहार;
छंड खर-शस्त्रों की झंकार
महाभारत गाता संसार !
कोटि मनुजों के निहत अकाल,
नयन-मणियों से जटिल कराल
अरे, दिग्गज-सिंहासन-जाल
अखिल मृत-देशों के कंकाल;
मोतियों के तारक-लड़-हार
आँसुओं के श्रृंगार !
भाग-17
रुधिर के हैं जगती के प्रात,
चितनल के ये सायंकाल;
शून्य-निःश्वासों के आकाश,
आँसुओं के ये सिंधु विशाल;
यहाँ सुख सरसों, शोक सुमेरु;
अरे, जग है जग का कंगाल !!
वृथा रे, ये अरण्य-चीत्कार,
शान्ति सुख है उसपार !
भाग-18
आह भीषण-उद्गार !-
नित्य का यह अनित्य-नर्तन
विवर्तन जग, जग व्यावर्तन,
अचीर में चिर का अन्वेषण
विश्व का तत्वपूर्ण-दर्शन !
अतल से एक अकूल उमंग
सृष्टि की उठती तरल-तरँग,
उमड़ शत-शत बुदबुद-संसार
बूड़ जाते निस्सार !
बना सैकत के तट अतिवात
गिरा देती अज्ञात !
भाग-19
एक छवि के असंख्य-उडगन,
एक ही सब में स्पंदन;
एक छवि के विभात में लीन,
एक विधि के आधीन !
एक ही लोल-लहर के छोर
उभय सुख दुःख, निशि-भोर,
इन्हीं से पूर्ण त्रिगुण-संसार,
सृजन ही है, संसार !
मूँदती नया मृत्यु की रात
खोलती नव जीवन की प्रात,
शिशिर की सर्व-प्रलयकर-वात
बीज बोती अज्ञात !
मान-कुसुमों की मृदु-मुस्कान
फलों में फलती फिर अलमान,
महत है, अरे, आत्म-बलिदान,
जगत केवल आदान-प्रदान !
भाग-20
एक ही तो असीम-उल्लास
विश्व में पाता विविधाभास;
तरल-जलनिधि में हरित-विलास,
शांत-अम्बर में नील-विकाश;
वही उर-उर में प्रेमोच्छावास,
काव्य में रस, कुसुमों में वास;
अचल-तारक-पलकों में हास,
लोल-लहरों में लास !
विविध-द्रव्यों में विविध प्रकार
एक ही मर्म-मधुर झंकार !
भाग-21
वही प्रज्ञा का सत्य-स्वरुप
हृदय में बनता प्रणय-अपार;
लोचनों में लावण्य-अनूप,
लोक-सेवा में शिव-आविकार;
स्वरों ध्वनित मधुर, सुकुमार
सत्य ही प्रेमोद्गार;
दिव्य-सौंदर्य, स्नेह-साकार,
भावनामय संसार !
भाग-22
स्वीय कर्मों ही के अनुसार
एक गुण फलता विविध प्रकार;
कहीं राखी बनता सुकुमार,
कही बेड़ी का भार !
भाग-23
कामनाओं के विविध प्रहार
छेड़ जगती के उर के तार
जागाते जीवन की झंकार
रुफूर्ती करते संचार;
चूम सुख दुःख के पुलिन अपार
छलकती ज्ञानामृत की धार !
पिघल होठों का हिलना, हास
दृगों को देता जीवन दान,
वेदना ही में तपकर प्राण
दमक, दिखलाते स्वर्ण हुलास !
तरसते हैं हम आठोंयाम,
इसी से सुख अति सरस, प्रकाम;
झेलते निशि दिन का संग्राम,
इसी से जय अभिराम;
अलभ है इष्ट, अतः अनमोल,
साधना ही जीवन का मोल !
भाग-24
बिना दुःख के सब सुख निस्सार,
बिना आँसू के जीवन भार;
दीन दुर्बल है रे संसार,
इसी से दया, क्षमा औ प्यार !
भाग-25
आज का दुःख, काल का आह्लाद,
और कल का सुख, आज विषाद;
समस्या स्वप्न गूढ़ संसार,
पूर्ति जिसकी उसपार
जगत जीवन का अर्थ विकास,
मृत्यु गति-क्रम का हास !
भाग-26
हमारे काम न अपने काम,
नहीं हम, जो हम ज्ञात;
अरे, निज छाया में उपनाम
छिपे है हम अपरूप;
गंवाने आये हैं अज्ञात
गंवाकर पाते स्वीय स्वरुप !
भाग-27
जगत की सुन्दरता का चाँद
सजा लांछन को भी अवदात,
सुहाता बदल, बदल, दिनरातम,
नवलता हो जग का अहलाद !
भाग-28
स्वर्ण शैशव स्वप्नों का जाल,
मंजरित यौवन, सरस रसाल;
प्रौढ़ता, छाया वट सुविशाल,
स्थविरता, नीरव सायंकाल;
वही विस्मय का शिशु नादान
रूप पर मंडरा, बन गुंजार,
प्रणय से बिंध, बंध, चुन-चुन सार,
मधुर जीवन का मधु कर पान;
साध अपना मधुमय-संसार
डुबा देता निज तन, मन, प्राण !
एक बचपन ही में अनजान
जागते, सोते, हम दिनरात;
वृद्ध बालक फिर एक प्रभात
देखता नव्य स्वप्न अज्ञात;
मूँद प्राचीन मरण,
खोल नवल जीवन !
भाग-29
विश्वमय हे परिवर्तन !
अतल से उमड़ अकूल, अपार
मेघ-से विपुलाकर,
दिशावधि में पल विविध प्रकार
अतल में मिलते तुन अविकार।
अहे अनिर्वचनीय ! रूप पर भव्य, भयंकर,
इंद्रजाल सा तुम अनंत में रचते सुंदर;
गरज-गरज, हँस-हँस, चढ़ गिर, छ ढा भू अंबर,
करते जगती को अजस्त्र जीवन से उर्वर;
अखिल विश्व की आशाओं का इन्द्रचाप वर
अहे तुम्हारी भीम मृकुटि पर
अटका निर्भर !
भाग-30
एक औ बहु के बीच अजान
घूमते तुम नित चक्र सामान,
जगत के उर में छोड़ महान
गहन चिन्हों में ज्ञान।
परिवर्तित कर अगणित नूतन दृश्य निरंतर,
अभिनय करते विश्व मंच पर तुम मायाकार !
जहाँ हास के अधर, अश्रु के नयन करुणतर
पाठ सीखते संकेतों में प्रकट, अगोचर;
शिक्षास्थल यह विश्व मंच, तुम नायक नटवर,
प्रकृति नर्तकी सुघर
अखिल में व्याप्त सूत्रधार !
भाग-31
हमारे निज सुख, दुःख, निःश्वास
तुम्हें केवल परिहास;
तुम्हारी ही विधि पर विश्वास
हमारा चिर-आश्वास !
ऐ अनन्त- हृत्कंप ! अविरत-तुम्हारा स्पंदन
सृष्टि-शिराओं में संचारित करता जीवन;
खोल जगत के शत शत नक्षत्रों-से लोचन,
भेदन करते अन्धकार तुम जग का क्षण, क्षण;
सत्य तुम्हारी राज-यष्टि, सन्मुख नत त्रिभुवन,
भूप अकिंचन,
अटल-शास्ति नित करते पालन !
भाग-32
तुम्हारा ही अशंग व्यापार,
हमारा भ्रम, मिथ्याहंकार;
तुम्हीं में निराकार साकार,
मृत्यु जीवन सब एकाकार !
अहं महाम्बुधि ! लहरों-से शत लोक, चराचर,
क्रीड़ा करते सतत तुम्हारे स्फीतवक्ष पर;
तुंग-तरंगों-से शत युग, शत शत कल्पान्तर
उगल, महोदर में विलिन करते तुम सत्वर;
शत-सहस्त्र रवि-शशि, असंख्य गृह, उपग्रह, उडगन,
जलते, बुझते हैं स्फुलिंग-से तुम में तत्क्षण;
अचिर विश्व में अखिल-दिशावधि, कर्म, वचन, मन,
तुम्हीं चिरंतन अहे विवर्तन-ही विवर्तन !
Sir very very thankful🙏🙏🙏🙏🙏🙏 sir meri aapse gujarish hai ki uphe adistent profesar ke liye matter provaet krvane ka ksht kre aapki mhana kripa hogi 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
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