सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ की कविताएँ – इकाई-5

(जन्म 9 नवंबर 1936- निधन 10 फरवरी 1975)

सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ का जन्म 9 जनवरी 1936 को वाराणसी के निकट खेवली गाँव में हुआ था।

इनके पिता का नाम शिवनायक पांडे था जो पेशे से एक मुनीम थे। माता रजवंती देवी थी। धूमिल का बचपन संघर्षमय रहा। बारह वर्ष की अवस्था में उनका विवाह मूरत देवी से हुआ। धूमिल गाँव के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हाई स्कूल पास किये। आर्थिक दबाव के कारण वे अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख सके लेकिन उन्होंने स्वाध्याय और पुस्तकालय जाना नहीं छोड़ा। रोजगार की तलाश धूमिल को कोलकाता ले आई। कोलकाता में उन्होंने मजदूर के रूप में लोहा ढोने का काम किया। उनके मित्र तारकनाथ पांडेय उन्हें एक लकड़ी की कंपनी (मेसर्स तलवार ब्रदर्स प्रा० ली०) में नौकरी दिलवा दिए। डेढ़ वर्ष तक नौकरी करने के बाद वे बीमार पड़ जाने के कारण पुनः अपने घर वापस लौट आये। उसके बाद उन्होंने 1958 में प्रथम श्रेणी से विद्युत् में डिप्लोमा किया। आगे चलकर वे पर विद्युत् अनुदेशक के पद पर नियुक्त हो गए।

रचनाएँ: काव्य संग्रह:

संसद से सड़क तक (इसका प्रकाशन धूमिल ने स्वयं किया था)

कल सुनना मुझे (संपादन – राजशेखर)

धूमिल की कविताएँ (संपादन- डॉ शुकदेव)

सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र (संपादन – रत्नशंकर धूमिल के पुत्र)

कविताएँ: मोचीराम, बीस साल बाद, पटकथा, रोटी और संसद, लोहे का स्वाद। सुदामा पाण्डे ‘धूमिल’ को उनकी प्रसिद्ध काव्य ‘कल सुनना मुझे’ के लिए 1979 में ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार उन्हें मरणोपरांत दिया गया था।        

नक्सलबाड़ी: ‘धूमिल’ की यह कविता उनके पहले काव्य संग्रह ‘संसद से सड़क तक’ में प्रकाशित है। संग्रह से पहले 1967 में यह बनारस से निकलने वाली पत्रिका ‘आमुख’ में छपी थी। यही साल नक्सलबाड़ी विद्रोह का साल था। उस समय किसी स्थापित पत्रिका में इस कविता का प्रकाशित होना लगभग असंभव था। भारत की राजनीति में नक्सलबाड़ी की बिस्फोटक हैसियत तब भी थी। आधुनिक कविता के इतिहास में धूमिल साठोत्तरी अराजक विद्रोह से आगे बढ़कर सुसंगत विपक्ष की ओर संक्रमण का प्रतिनिधित्व सबसे बेहतर तरीके से करते है। नक्सलबाड़ी बंगाल का रेल स्टेशन है। वह छोटा सा स्टेशन अचानक देश में विक्षोभ को एक व्यवस्थित दिशा देने वाले केन्द्र का नाम बन गया।  

उत्तर प्रदेश, बिहार और आन्ध्र प्रदेश में नक्सलबाड़ी आन्दोलन का प्रसार हुआ। इस आन्दोलन ने सभी की सोच में परिवर्तन कर दिया। धूमिल ने नक्सलबाड़ी आन्दोलन का पर्याप्त समर्थन किया। उनके काव्य में तत्कालीन राजनीति के प्रति काफी असन्तोष देखने को मिलता है। उसी के फलस्वरूप उन्होंने अपनी कविताओं में नक्सलबाड़ी आन्दोलन के प्रति समर्थन मुखर किया। धूमिल नक्सलबाड़ी के पक्ष में लोगों को खड़ा करना चाहते हैं।

नक्सलबाड़ी कविता में धूमिल ने स्वातन्त्र्योत्तर भारत की उस निराशाजनक परिस्थिति का चित्रण किया है जिसने नक्सलबाड़ी आन्दोलन को जन्म दिया।

नक्सलवाड़ी (कविता)

सहमति…..

नहीं, यह समकालीन शब्द नहीं है

इसे बालिग़ों के बीच चालू मत करो’

—जंगल से जिरह करने के बाद

उसके साथियों ने उसे समझाया कि भूख

का इलाज नींद के पास है !

मगर इस बात से वह सहमत नहीं था

विरोध के लिए सही शब्द टटोलते हुए

उसने पाया कि वह अपनी ज़ुबान

सहुआइन की जांघ पर भूल आया है;

फिर भी हकलाते हुए उसने कहा—

‘मुझे अपनी कविताओं के लिए

दूसरे प्रजातंत्र की तलाश है’,

सहसा तुम कहोगे और फिर एक दिन—

पेट के इशारे पर

प्रजातंत्र से बाहर आकर

वाजिब ग़ुस्से के साथ अपने चेहरे से

कूदोगे

और अपने ही घूँसे पर

गिर पड़ोगे।

क्या मैंने ग़लत कहा? आख़िरकार

इस ख़ाली पेट के सिवा

तुम्हारे पास वह कौन-सी सुरक्षित

जगह है, जहाँ खड़े होकर

तुम अपने दाहिने हाथ की

साज़िश के ख़िलाफ़ लड़ोगे?

यह एक खुला हुआ सच है कि आदमी—

दाएँ हाथ की नैतिकता से

इस क़दर मजबूर होता है

कि तमाम उम्र गुज़र जाती है मगर गाँड

सिर्फ बायाँ हाथ धोता है।

और अब तो हवा भी बुझ चुकी है

और सारे इश्तिहार उतार लिए गए हैं

जिनमें कल आदमी—

अकाल था। वक़्त के

फ़ालतू हिस्से में

छोड़ी गई फ़ालतू कहानियाँ

देश-प्रेम के हिज्जे भूल चुकी हैं,

और वह सड़क—

समझौता बन गई है

जिस पर खड़े होकर

कल तुम ने संसद को

बाहर आने के लिए आवाज़ दी थी

नहीं, अब वहाँ कोई नहीं है

मतलब की इबारत से होकर

सब के सब व्यवस्था के पक्ष में

चले गए हैं। लेखपाल की

भाषा के लम्बे सुनसान में

जहाँ पालो और बंजर का फ़र्क़

मिट चुका है चन्द खेत

हथकड़ी पहने खड़े हैं।

और विपक्ष में—

सिर्फ़ कविता है।

सिर्फ़ हज्जाम की खुली हुई ‘क़िस्मत’ में एक उस्तुरा—

चमक रहा है।

सिर्फ़ भंगी का एक झाड़ू हिल रहा है

नागरिकता का हक़ हलाल करती हुई

गंदगी के ख़िलाफ़

और तुम हो विपक्ष में

बेकारी और नींद से परेशान।

और एक जंगल है—

मतदान के बाद ख़ून में अँधेरा

पछींटता हुआ।

(जंगल मुख़बिर है)

उसकी आँखों में

चमकता हुआ भाईचारा

किसी भी रोज़ तुम्हारे चेहरे की हरियाली को

बेमुरव्वत चाट सकता है।

ख़बरदार!

उसने तुम्हारे परिवार को

नफ़रत के उस मुक़ाम पर ला खड़ा किया है

कि कल तुम्हारा सबसे छोटा लड़का भी

तुम्हारे पड़ोसी का गला

अचानक,

अपनी स्लेट से काट सकता है।

क्या मैंने ग़लत कहा?

आखिरकार….. आखिरकार…..

मोचीराम:  इस कविता में कवि ने मोचीराम के माध्यम से अपने विचारों की अभिव्यक्ति की है। कवि कहते हैं कि आदमी को अपनी सीमा एवं दायरा मालूम होना चाहिए। मोचीराम का जो काम है वह अपना काम बखूबी कर रहा है। उसकी फटेहाल जिंदगी में कुछ भी नया नहीं हुआ है। वह जहाँ था वहीं है, यही उसकी सीमा है।

धूमिल साधारण आदमियों के पास सिर्फ दया और करुणा लेकर नहीं उपस्थित होते बल्कि उनके रोजमर्रा के संघर्ष का साक्षी बनते हैं। उनकी विचार दृष्टि एवं बुनियादी लोगों के प्रति उनकी भावात्मक क्रिया-प्रतिक्रिया को भी अंकित करती है। मोचीराम कविता में एक मोची के माध्यम से धूमिल एक साथ समाज के कई बुराइयों पर चोट करते हैं। एक ओर तो वे जाती और वर्ण व्यवस्था पर चोट करते हैं तो दूसरी ओर मध्यम वर्ग के झूठे आत्म-गौरव और दिखावे की प्रवृत्ति को भी नंगा करते हैं। साथ ही इसमें समाज के एक निचले स्तर के व्यक्ति का ऊहापोह को भी दिखाया गया है।
     

‘मोचीराम’ कविता में मोचीराम के बड़प्पन को और उसकी जीवन को ऑकने वाली सूक्ष्म दृष्टि को उसकी शब्दावली में अंकित करते हुए कहते हैं कि-


“बाबूजी!सच कहूँ-मेरी निगाह में
 न कोई छोटा है
 न कोई बड़ा है
 मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जूता है
 जो मेरे सामने,
 मरम्मत के लिए खड़ा है।”

इस कविता के द्वारा धूमिल ने यह जताने की कोशिश की है कि कविता तथाकथित सभ्य और बुद्धिजीवी वर्ग की बपौती नहीं है और न ही कविता की भाषा पर किसी खास वर्ग का अधिकार है। ऐसा लिखते हुए वे कविता को छंद, लय और अलंकृत भाषा के प्रयोग के बंधनों से मुक्त करने की वकालत करते हुए दिखाई देते हैं। मोचीराम अलग-अलग आदमियों की नियति एवं प्रकृति का खुलासा करते हैं। मोचीराम आज की भाग-दौड़ और अहंकार को बिम्बित करता है। मोचीराम अपनी जिजीविषा, संघर्ष चेतना और आदमीयता का बयान करता है। धूमिल इस कविता के माध्यम से हर स्थिति और परिस्थिति में एक अदद आदमी के शख्सियत और स्वाभिमान को तलाशने की चेष्टा करते हैं।

मोचीराम (कविता)

राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे
क्षण-भर टटोला
और फिर
जैसे पतियाये हुये स्वर में
वह हँसते हुये बोला-
बाबूजी सच कहूँ-मेरी निगाह में
न कोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिये, हर आदमी एक जोड़ी जूता है
जो मेरे सामने
मरम्मत के लिये खड़ा है।

और असल बात तो यह है
कि वह चाहे जो है
जैसा है,जहाँ कहीं है
आजकल
कोई आदमी जूते की नाप से
बाहर नहीं है
फिर भी मुझे ख्याल है रहता है
कि पेशेवर हाथों और फटे जूतों के बीच
कहीं न कहीं एक आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं,
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है।

यहाँ तरह-तरह के जूते आते हैं
और आदमी की अलग-अलग ‘नवैयत’
बतलाते हैं
सबकी अपनी-अपनी शक्ल है
अपनी-अपनी शैली है
मसलन एक जूता है:
जूता क्या है-चकतियों की थैली है
इसे एक आदमी पहनता है
जिसे चेचक ने चुग लिया है
उस पर उम्मीद को तरह देती हुई हँसी है
जैसे ‘टेलीफ़ून’ के खम्भे पर
कोई पतंग फँसी है
और खड़खड़ा रही है।
‘बाबूजी! इस पर पैसा क्यों फूँकते हो?’
मैं कहना चाहता हूँ
मगर मेरी आवाज़ लड़खड़ा रही है
मैं महसूस करता हूँ-भीतर से
एक आवाज़ आती है-’कैसे आदमी हो
अपनी जाति पर थूकते हो।’
आप यकीन करें,उस समय
मैं चकतियों की जगह आँखें टाँकता हूँ
और पेशे में पड़े हुये आदमी को
बड़ी मुश्किल से निबाहता हूँ।

एक जूता और है जिससे पैर को
‘नाँघकर’ एक आदमी निकलता है
सैर को
न वह अक्लमन्द है
न वक्त का पाबन्द है
उसकी आँखों में लालच है
हाथों में घड़ी है
उसे जाना कहीं नहीं है
मगर चेहरे पर
बड़ी हड़बड़ी है
वह कोई बनिया है
या बिसाती है
मगर रोब ऐसा कि हिटलर का नाती है
‘इशे बाँद्धो, उशे काट्टो, हियाँ ठोक्को, वहाँ पीट्टो
घिस्सा दो, अइशा चमकाओ, जूत्ते को ऐना बनाओ

…ओफ्फ़! बड़ी गर्मी है’
रुमाल से हवा करता है,
मौसम के नाम पर बिसूरता है
सड़क पर ‘आतियों-जातियों’ को
बानर की तरह घूरता है
गरज़ यह कि घण्टे भर खटवाता है
मगर नामा देते वक्त
साफ ‘नट’ जाता है
शरीफों को लूटते हो’ वह गुर्राता है
और कुछ सिक्के फेंककर
आगे बढ़ जाता है
अचानक चिंहुककर सड़क से उछलता है
और पटरी पर चढ़ जाता है
चोट जब पेशे पर पड़ती है
तो कहीं-न-कहीं एक चोर कील
दबी रह जाती है
जो मौका पाकर उभरती है
और अँगुली में गड़ती है।

मगर इसका मतलब यह नहीं है
कि मुझे कोई ग़लतफ़हमी है
मुझे हर वक्त यह खयाल रहता है कि जूते
और पेशे के बीच
कहीं-न-कहीं एक अदद आदमी है
जिस पर टाँके पड़ते हैं
जो जूते से झाँकती हुई अँगुली की चोट
छाती पर
हथौड़े की तरह सहता है
और बाबूजी! असल बात तो यह है कि ज़िन्दा रहने के पीछे
अगर सही तर्क नहीं है
तो रामनामी बेंचकर या रण्डियों की
दलाली करके रोज़ी कमाने में
कोई फर्क नहीं है
और यही वह जगह है जहाँ हर आदमी
अपने पेशे से छूटकर
भीड़ का टमकता हुआ हिस्सा बन जाता है

सभी लोगों की तरह
भाष़ा उसे काटती है
मौसम सताता है
अब आप इस बसन्त को ही लो,
यह दिन को ताँत की तरह तानता है
पेड़ों पर लाल-लाल पत्तों के हजा़रों सुखतल्ले
धूप में, सीझने के लिये लटकाता है
सच कहता हूँ-उस समय
राँपी की मूठ को हाथ में सँभालना
मुश्किल हो जाता है
आँख कहीं जाती है
हाथ कहीं जाता है
मन किसी झुँझलाये हुये बच्चे-सा
काम पर आने से बार-बार इन्कार करता है
लगता है कि चमड़े की शराफ़त के पीछे
कोई जंगल है जो आदमी पर
पेड़ से वार करता है

और यह चौकने की नहीं, सोचने की बात है
मगर जो जिन्दगी को किताब से नापता है
जो असलियत और अनुभव के बीच
खून के किसी कमजा़त मौके पर कायर है
वह बड़ी आसानी से कह सकता है
कि यार! तू मोची नहीं, शायर है
असल में वह एक दिलचस्प ग़लतफ़हमी का
शिकार है
जो वह सोचता कि पेशा एक जाति है
और भाषा पर
आदमी का नहीं, किसी जाति का अधिकार है
जबकि असलियत है यह है कि आग
सबको जलाती है सच्चाई
सबसे होकर गुज़रती है

कुछ हैं जिन्हें शब्द मिल चुके हैं
कुछ हैं जो अक्षरों के आगे अन्धे हैं
वे हर अन्याय को चुपचाप सहते हैं
और पेट की आग से डरते हैं
जबकि मैं जानता हूँ कि ‘इन्कार से भरी हुई एक चीख़’
और ‘एक समझदार चुप’
दोनों का मतलब एक है-
भविष्य गढ़ने में ,’चुप’ और ‘चीख’

अपनी-अपनी जगह एक ही किस्म से
अपना-अपना फ़र्ज अदा करते हैं।

अकाल दर्शन (कविता)

अकाल दर्शन कविता में कवि प्रश्न करता है- भूख कौन उपजाता है? चतुर आदमी जबाव दिए बगैर बेतहाशा होकर बढ़ती आबादी की ओर इशारा करता है। कवि इस कविता के माध्यम से उन लोगों को तलाशता है जो देश के जंगल में भेड़िया की तरह लोगों को खा रहे हैं और शोषित उन्हीं की जय-जयकार करने में जुटे हुए हैं।    

अकाल दर्शन (कविता)

भूख कौन उपजाता है :
वह इरादा जो तरह देता है
या वह घृणा जो आँखों पर पट्टी बाँधकर
हमें घास की सट्टी मे छोड़ आती है?

उस चालाक आदमी ने मेरी बात का उत्तर
नहीं दिया।
उसने गलियों और सड़कों और घरों में
बाढ़ की तरह फैले हुए बच्चों की ओर इशारा किया
और हँसने लगा।

मैंने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा –
‘बच्चे तो बेकारी के दिनों की बरकत हैं’
इससे वे भी सहमत हैं
जो हमारी हालत पर तरस खाकर, खाने के लिए
रसद देते हैं।
उनका कहना है कि बच्चे
हमें बसन्त बुनने में मदद देते हैं।

लेकिन यही वे भूलते हैं
दरअस्ल, पेड़ों पर बच्चे नहीं
हमारे अपराध फूलते हैं
मगर उस चालाक आदमी ने मेरी किसी बात का उत्तर
नहीं दिया और हँसता रहा – हँसता रहा – हँसता रहा
फिर जल्दी से हाथ छुड़ाकर
‘जनता के हित में’ स्थानांतरित
हो गया।

मैंने खुद को समझाया – यार!
उस जगह खाली हाथ जाने से इस तरह
क्यों झिझकते हो?
क्या तुम्हें किसी का सामना करना है?
तुम वहाँ कुआँ झाँकते आदमी की
सिर्फ़ पीठ देख सकते हो।

और सहसा मैंने पाया कि मैं खुद अपने सवालों के
सामने खड़ा हूँ और
उस मुहावरे को समझ गया हूँ
जो आज़ादी और गांधी के नाम पर चल रहा है
जिससे न भूख मिट रही है, न मौसम
बदल रहा है।
लोग बिलबिला रहे हैं (पेड़ों को नंगा करते हुए)
पत्ते और छाल
खा रहे हैं
मर रहे हैं, दान
कर रहे हैं।
जलसों-जुलूसों में भीड़ की पूरी ईमानदारी से
हिस्सा ले रहे हैं और
अकाल को सोहर की तरह गा रहे हैं।
झुलसे हुए चेहरों पर कोई चेतावनी नहीं है।

मैंने जब उनसे कहा कि देश शासन और राशन…
उन्होंने मुझे टोक दिया है।
अक्सर ये मुझे अपराध के असली मुकाम पर
अँगुली रखने से मना करते हैं।
जिनका आधे से ज़्यादा शरीर
भेड़ियों ने खा लिया है
वे इस जंगल की सराहना करते हैं –
‘भारतवर्ष नदियों का देश है।’

बेशक यह ख्याल ही उनका हत्यारा है।
यह दूसरी बात है कि इस बार
उन्हें पानी ने मारा है।

मगर वे हैं कि असलियत नहीं समझते।
अनाज में छिपे उस आदमी की नीयत
नहीं समझते
जो पूरे समुदाय से
अपनी गिज़ा वसूल करता है –
कभी ‘गाय’ से
कभी ‘हाय’ से

‘यह सब कैसे होता है’ मैं उसे समझाता हूँ
मैं उन्हें समझाता हूँ –
यह कौनसा प्रजातान्त्रिक नुस्खा है
कि जिस उम्र में
मेरी माँ का चेहरा
झुर्रियों की झोली बन गया है
उसी उम्र की मेरी पड़ौस की महिला
के चेहरे पर
मेरी प्रेमिका के चेहरे-सा
लोच है।

वे चुपचाप सुनते हैं।
उनकी आँखों में विरक्ति है :
पछतावा है;
संकोच है
या क्या है कुछ पता नहीं चलता।
वे इस कदर पस्त हैं :

कि तटस्थ हैं।
और मैं सोचने लगता हूँ कि इस देश में
एकता युद्ध की और दया
अकाल की पूंजी है।
क्रान्ति –
यहाँ के असंख्य लोगों के लिए
किसी अबोध बच्चे के –
हाथों की जूजी है।

रोटी और संसद: इस कविता का संकलन कवि ने ‘संसद से सड़क’ तक काव्य संग्रह में किया है। इसका प्रकाशन 1972 में हुआ था। इस कविता में धूमिल ने रोटी की समस्या पर अपनी चिन्ता प्रकट की है। ‘कल सुनना मुझे’ काव्य संग्रह की सबसे छोटी किन्तु महत्वपूर्ण कविता ‘रोटी और संसद’ है। स्वतंत्र भारत में प्रमुख समस्या गरीबी थी। गरीबी के कारण ही सामाजिक विषमता बढ़ती गई। गरीब और अधिक गरीब होता गया और पूंजीपति वर्ग सत्ता और शासन की बागडोर अपने हाथ में लेकर गरीबों की रोटी तक छीनता गया। इसी कारण आम आदमी रोटी-रोटी के लिए तड़पता रहा। गरीबों की रोटी छीनने वाला वर्ग मतलब तीसरा आदमी। कवि ने इसी तीसरे आदमी की तलाश के लिए प्रतीकात्मक रूप में ‘रोटी और संसद’ कविता लिखी है।

“एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूं यह तीसरा आदमी कौन है?
मेरे देश की संसद मौन है।।”

जिस तरह मुक्तिबोध फैंटेसी का प्रयोग करने में सिद्धहस्त हैं, उसी तरह धूमिल भाषा के भेदसपन में गम्भीर सत्य को प्रत्यक्ष कर देने की कला में सिद्धहस्त हैं। उनकी कविताओं में शब्दों का कोशीय अर्थ उतना महत्व नहीं रखता जितना उसका सामाजिक अर्थ महत्वपूर्ण है। अपने व्यापक भाव-बोध एवं नवीन रचना शिल्प के कारण 1970 के बाद उभरने वाले कवियों में धूमिल क्रान्तिकारी कवि के रूप में अपनी खास पहचान बनाते हैं।।

रोटी और संसद (कविता)

– सुदामा पाण्डेय ‘धूमिल’

एक आदमी
रोटी बेलता है
एक आदमी रोटी खाता है
एक तीसरा आदमी भी है
जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है
वह सिर्फ़ रोटी से खेलता है
मैं पूछता हूँ –
‘यह तीसरा आदमी कौन है ?’
मेरे देश की संसद मौन है

    धूमिल का पहला काव्य संग्रह 1972 में “संसद से सड़क तक” छपा था जो काफी चर्चित हुआ। “कल सुनना मुझे” काव्य संग्रह पर इन्हें 1979 में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ भी मिल चुका है। इसके अतिरिक्त इनका अन्य संग्रह “सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र” भी काफी चर्चित हुआ। 1970 के बाद हिन्दी कविता के क्षेत्र में अपनी तल्ख आवाज एवं नये मुहावरे के साथ जो कवि धूमकेतु की तरह उभरा उसका नाम धूमिल था। धूमिल ऐसे रचनाकार हैं, जिन्होंने दिनकर की तरह यह आह्वान नहीं किया है कि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। बल्कि जनता की ओर से चुने गये सांसदों से निर्मित संसद को अपने शब्दों के नुकीले हथियार से आहत करते हैं। प्रजातंत्र पर धारदार कविताएँ लिखने की अगुवाई धूमिल ने ही की थी। देश की हालत ही यह है कि हिन्दुस्तान के नक्शे पर गाय ने गोवर कर दिया है। झंडे को ही प्रतीक बनाकर धूमिल सवाल करते हैं—

क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है?

जिन्हें एक पहिया ढोता है या इसका कोई खास मतलब होता है?

2 thoughts on “सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ की कविताएँ – इकाई-5”

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