(जन्म:29 मार्च 1913 – मृत्यु 20 फ़रवरी 1985)
भवानीप्रसाद मिश्र का जन्म मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के टिगरिया गाँव में 29 मार्च 1913 को हुआ था।
- पिता का नाम: पं० सीताराम मिश्र था।
- वे शिक्षा विभाग में अधिकारी और साहित्य प्रेमी थे।
- भवानीप्रसाद की प्रारम्भिक शिक्षा: नरसिंहपुर और जबलपुर में हुआ।
- हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ थी।
- भवानीप्रसाद मिश्र 1946 से 1950 तक महिलाश्रम, वर्धा में शिक्षक के पद पर रहे।
- 1952 से 1955 तक वे हैदराबाद में ‘कल्पना’ मासिक पत्रिका का संपादन किया।
- 1956 से 1958 तक उन्होंने आकाशवाणी में संचालन का कार्य किया।
- वे ‘गांधी प्रतिष्ठान’, ‘गांधी स्मारक निधि’ और ‘सर्व सेवा संघ’ से जुड़े रहे।
- हाई स्कूल पास करने से पहले भवानीप्रसाद मिश्र की कविताएँ ‘हिन्दू पंच’ नामक पत्रिका में प्रकाशित हो चूकी थी।
- 1940 में वे ‘दूसरे तार सप्तक’ के हिन्दी कवियों के साथ जुड़ गए।
- गांधी विचारधारा के इस कवि की आपातकाल में लिखी गई कविताएँ ‘त्रिकाल संध्या’ के नाम से प्रकाशित हुई।
- इनका प्रथम संग्रह गीत-फरोश नई शैली, नई उद्भावनाओं और नये पाठ प्रवाह के कारण अत्यंत लोकप्रिय हुई।
- उन्हें ‘कविता का गांधी’ भी कहा गया है।
रचनाएँ: कविता सग्रह:
गीत-फरोश (1956), चकित है दुःख (1968), अँधेरी कविताएँ (1968), गान्धी पंचशती (1969), बुनी हुई रस्सी (1971), खुशबू के शिलालेख (1973), व्यक्तिगत (1974) परिवर्तन जिए (1976), अनाम तुम आते हो (1976), इदम् न मम् (1977), त्रिकाल सन्ध्या (1978), कालजयी (खंडकाव्य) (1978), शरीर कविता: फासले और फूल (1980), मानसरोवर दिन (1981), सम्प्रति (1982), नीली रेखा तक (1984) और सन्नाटा।
बाल कविताएँ: तुर्कों के खेल
संस्मरण: जिन्होंने मुझे रचा
निबंध संग्रह: कुछ नीति कुछ राजनीति
1972 में उन्हें ‘बुनी हुई रस्सी’ के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।
उन्होंने ताल ठोककर कवियों को नसीहत दिया था- “जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख।”
गीत-फ़रोश (कविता)
यह कविता गीत के रूप में लिखा गया है। इसमें एक नया प्रवाह और नया भाव-बोध है। यह कविता कवि कर्म के प्रति समाज और स्वयं कवि के बदलते हुए दृष्टिकोण को उजागर करती है। व्यंग्य के साथ-साथ इसमें वस्तु स्थिति का मार्मिक निरूपण भी है। गीत-फ़रोश कविता में कवि ने अपनी फ़िल्मी दुनिया में बिताये गए समय को याद करके गीतों का विक्रेता बन जाने की बिडम्बना को मार्मिकता के साथ कविता में नया रूप में ढाला है।
कवि ने अपने कविता की पृष्ठ भूमि के विषय में स्वयं कहा है- “यह गीत-फ़रोश शीर्षक कविता हँसाने वाली मैने बहुत तकलीफ से लिखी थी। मैं पैसे को महत्व नहीं देता लेकिन पैसा बीच-बीच में अपना महत्व स्वयं प्रतिष्ठित करा लेता है। मुझे अपनी बहन की शादी करनी थी। पैसा मेरे पास नहीं था। तब मैंने कलकते में बन रही फिल्म के लिए गीत लिखे। गीत अच्छे लिखे गए लेकिन मुझे दुःख इस बात का था कि मैंने पैसे लेकर गीत लिखे।
गीत लिखने के बाद पैसा मिले यह बात अलग है लेकिन मुझे कोई कहे कि इतने पैसे दूंगा तुम गीत लिख दो, यह स्थिति मुझे नापसंद था। मैं समझता हूँ कि आदमी के जो साधना का विषय है वह उसकी जीविका का विषय नहीं होना चाहिए फिर कविता तो अपनी इच्छा से लिखी जाने वाली चीज है। इस तकलीफदेह पृष्ठभूमि में लिखी गई ‘गीत-फ़रोश’ है।” दूसरे सप्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है, “मैंने अपनी कविता में प्रायः वही लिखा है जो मेरी ठीक पकड़ में आ गया है। दूर से कौड़ी लाने की महत्वाकांक्षा भी मैंने कभी नहीं की।”
‘गीत-फ़रोश’ कविता कवि की उस टीस को प्रकट करती है जहाँ कवियों ने अपनी काव्यात्मकता को फिल्म जगत के पूंजीवादी समाज को बेचा और जिनकी तीखी आलोचना हुई थी। भवानीप्रसाद मिश्र ने गीत-फ़रोश कविता में यही बताया है कि हम तो गीत बेच रहे हैं, लोगों ने तो अपना ईमान तक बेच दिया है। यह कविता वर्तमान समय में एक कवि एक साहित्यकार की पीड़ा को दर्शाती है। वह अपनी रचना, साधारण वस्तुओं की भांति बाजार में बेचने को विवश है। इस कविता में कवि के व्यक्तिगत पीड़ा की अभिव्यक्ति है
गीत-फ़रोश (कविता)
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ !
जी, माल देखिए, दाम बताऊँगा,
बेकाम नहीं है, काम बताऊँगा,
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने,
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने,
यह गीत, सख्त सरदर्द भुलाएगा,
यह गीत पिया को पास बुलाएगा !
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको;
पर बाद-बाद में अक्ल जगी मुझको,
जी, लोगों ने तो बेच दिये ईमान,
जी, आप न हों सुन कर ज्यादा हैरान –
मैं सोच-समझकर आखिर
अपने गीत बेचता हूँ,
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ !
यह गीत सुबह का है, गाकर देखें,
यह गीत गजब का है, ढाकर देखे,
यह गीत जरा सूने में लिक्खा था,
यह गीत वहाँ पूने में लिक्खा था,
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है,
यह गीत बढ़ाए से बढ़ जाता है !
यह गीत भूख और प्यास भगाता है,
जी, यह मसान में भूख जगाता है,
यह गीत भुवाली की है हवा हुजूर,
यह गीत तपेदिक की है दवा हुजूर,
जी, और गीत भी हैं, दिखलाता हूँ,
जी, सुनना चाहें आप तो गाता हूँ !
जी, छंद और बे-छंद पसंद करें,
जी, अमर गीत और ये जो तुरत मरें !
ना, बुरा मानने की इसमें क्या बात,
मैं पास रखे हूँ कलम और दावात
इनमें से भाएँ नहीं, नए लिख दूँ,
मैं नए पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ,
जी हाँ, हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ !
जी गीत जनम का लिखूँ, मरण का लिखूँ,
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरण का लिखूँ,
यह गीत रेशमी है, यह खादी का,
यह गीत पित्त का है, यह बादी का !
कुछ और डिजायन भी हैं, यह इल्मी,
यह लीजे चलती चीज नई, फिल्मी,
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत !
यह दुकान से घर जाने का गीत !
जी नहीं दिल्लगी की इस में क्या बात,
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात,
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत,
जी रूठ-रुठ कर मन जाते है गीत,
जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ,
गाहक की मर्जी, अच्छा, जाता हूँ,
मैं बिलकुल अंतिम और दिखाता हूँ,
या भीतर जा कर पूछ आइए, आप,
है गीत बेचना वैसे बिलकुल पाप
क्या करूँ मगर लाचार हार कर
गीत बेचता हूँ।
जी हाँ हुजूर, मैं गीत बेचता हूँ,
मैं तरह-तरह के गीत बेचता हूँ,
मैं किसिम-किसिम के गीत बेचता हूँ !
- कविता में कवि के व्यक्तिगत पीड़ा की अभिव्यक्ति है।
- कविता में उपभोक्तावादी युग की विसंगतियां हैं।
- कवि ने समाज की स्थिति पर करारा व्यंग्य किया है।
- वह गांधी और सर्वोदय के प्रति निष्ठावान रहे हैं और उन मूल्यों के विपरीत कोई समझौता नहीं करते हैं।
- पंडित भवानी प्रसाद मिश्र आधुनिक हिंदी कविता के मूर्धन्य कवि हैं।
सतपुड़ा के घने जंगल (कविता)
कवि भवानीप्रसाद मिश्र प्रकृति प्रेमी कवि थे। उनका प्रकृति चित्रण बहुत ही सुंदर और कलात्मक है उन्होंने आकाश, समुंद्र, पृथ्वी, बादल, फूल नदी, पक्षी आदि का चित्रण किया है।
सतपुड़ा के घने जंगल।
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
झाड ऊँचे और नीचे,
चुप खड़े हैं आँख मीचे,
घास चुप है, कास चुप है
मूक शाल, पलाश चुप है।
बन सके तो धँसो इनमें,
धँस न पाती हवा जिनमें,
सतपुड़ा के घने जंगल
ऊँघते अनमने जंगल।
सड़े पत्ते, गले पत्ते,
हरे पत्ते, जले पत्ते,
वन्य पथ को ढँक रहे-से
पंक-दल मे पले पत्ते।
चलो इन पर चल सको तो,
दलो इनको दल सको तो,
ये घिनोने, घने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
अटपटी-उलझी लताऐं,
डालियों को खींच खाऐं,
पैर को पकड़ें अचानक,
प्राण को कस लें कपाऐं।
सांप सी काली लताऐं
बला की पाली लताऐं
लताओं के बने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
मकड़ियों के जाल मुँह पर,
और सर के बाल मुँह पर
मच्छरों के दंश वाले,
दाग काले-लाल मुँह पर,
वात- झन्झा वहन करते,
चलो इतना सहन करते,
कष्ट से ये सने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल|
अजगरों से भरे जंगल।
अगम, गति से परे जंगल
सात-सात पहाड़ वाले,
बड़े छोटे झाड़ वाले,
शेर वाले बाघ वाले,
गरज और दहाड़ वाले,
कम्प से कनकने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल।
इन वनों के खूब भीतर,
चार मुर्गे, चार तीतर
पाल कर निश्चिन्त बैठे,
विजनवन के बीच बैठे,
झोंपडी पर फ़ूंस डाले
गोंड तगड़े और काले।
जब कि होली पास आती,
सरसराती घास गाती,
और महुए से लपकती,
मत्त करती बास आती,
गूंज उठते ढोल इनके,
गीत इनके, बोल इनके
सतपुड़ा के घने जंगल
नींद मे डूबे हुए से
उँघते अनमने जंगल।
जागते अँगड़ाइयों में,
खोह-खड्डों खाइयों में,
घास पागल, कास पागल,
शाल और पलाश पागल,
लता पागल, वात पागल,
डाल पागल, पात पागल
मत्त मुर्गे और तीतर,
इन वनों के खूब भीतर।
क्षितिज तक फ़ैला हुआ सा,
मृत्यु तक मैला हुआ सा,
क्षुब्ध, काली लहर वाला
मथित, उत्थित जहर वाला,
मेरु वाला, शेष वाला
शम्भु और सुरेश वाला
एक सागर जानते हो,
उसे कैसा मानते हो?
ठीक वैसे घने जंगल,
नींद मे डूबे हुए से
ऊँघते अनमने जंगल|
धँसो इनमें डर नहीं है,
मौत का यह घर नहीं है,
उतर कर बहते अनेकों,
कल-कथा कहते अनेकों,
नदी, निर्झर और नाले,
इन वनों ने गोद पाले।
लाख पंछी सौ हिरन-दल,
चाँद के कितने किरन दल,
झूमते बन-फ़ूल, फ़लियाँ,
खिल रहीं अज्ञात कलियाँ,
हरित दूर्वा, रक्त किसलय,
पूत, पावन, पूर्ण रसमय
सतपुड़ा के घने जंगल,
लताओं के बने जंगल।