‘संत गुरुनानक देवजी’ का हिन्दी साहित्य को योगदान

भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णिम काल कहा जाता है। हिन्दी साहित्य में गुरुनानक निर्गुण धारा के ज्ञानश्रयी शाखा से संबंधित थे। भक्तिकाल के साहित्य का उद्देश्य सर्वउत्थान था। उनकी कृति के संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ में लिखा है कि भक्तिभाव से पूर्ण होकर वे जो भजन गाया करते थे, उनका संग्रह (संवत् 1661) ‘ग्रंथ साहब’ में किया गया है।”

(आचार्य रामचंद्र शुक्ल (2013) हिन्दी साहित्य का इतिहास (पुनर्मुद्रण संस्करण) इलाहाबाद लोकभारती प्रकाशन पृ० 55)

हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल का समय मानवीय सरोकारों से जुड़ा हुआ था। तत्कालीन परिस्थितियों के फलस्वरूप भक्ति से प्रेरित होकर कवियों के वाणी में लोकमंगल की भावना थी। यह समय ऐसा था जब देश में अनेक प्रकार की भक्ति धाराएँ अस्तित्व में आ रही थी। जिससे विभन्न प्रकार के साधना पद्धतियों हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, बौद्ध, जैन, शैव आदि का जन्म हुआ। सभी धार्मिक सिद्धांतों के प्रतिपादन के लिए तत्पर थे। मुगलों के आक्रमण और अत्याचार से त्रस्त होकर जनता के पास सिर्फ धर्म ही एक मात्र सहारा था। जिस रास्ते पर चलकर वे मोक्ष प्राप्त करना चाहते थे। ऐसी अवस्था में सभी धार्मिक संप्रदाय के लोग अपना-अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए समाज में अनेक बाहरी आडम्बरों और कर्मकाण्डों को जन्म दे रहे थे। धर्म के नाम पर समाज अनेक प्रकार के रुढियों के चपेट में आ गया था। अज्ञानता वश मानव धार्मिक आडम्बरों, कुरीतियों के रुढियों को ही सत्यकर्म समझने लगा। अनेक धर्मों और संप्रदायों के बीच पारस्परिक भेद बढ़ते जा रहे थे। हिन्दुओं में भी मतभेद बढ़ते जा रहा था। जातियों-उपजातियों के बीच छुआछूत की भावना अधिक बढ़ गई थी। मानव-मानव में तिरस्कार की भयावह स्थिति उत्पन्न हो गई थी। मुसलमान भी कई वर्गो में बंट गए थे। जो एक दूसरे को भिन्न समझते थे।

समाज के हर क्षेत्र में अराजकता फैला हुआ था। लोगों में आपसी मतभेद और वैमनस्य बढ़ता जा रहा था, जिसके कारण मानवता का दिन प्रतिदिन ह्रास हो रहा था। इस तरह की बिकट परिस्थितयों को देखकर गुरुनानक जी बहुत दुखी हुए। इस समस्या के समाधान के लिए संतों और कवियों ने अपने काव्य को माध्यम बनाया। काव्य के माध्यम से मानव जीवन में फैले हुए सामाजिक कुरीतियों और आडम्बरों को दूर करने का प्रयास किया। गुरुनानक देव जी का साहित्य ज्ञानमार्गी और प्रेममार्गी संत धारा का अस्त्र था।

डॉ नागेन्द्र के अनुसार- “ईश्वर और मनुष्य के बीच संबंध स्थापित करने में धर्म महत्वपूर्ण माध्यम था। जाती देशकाल, कूल और परिस्थितियों से निरपेक्ष होकर नैतिक दायित्व का निर्वाह करना धर्म है।”

            (हिन्दी साहित्य का इतिहास नई दिल्ली: नेशनल पब्लिशिंग हाउस, (2011) प.स.92)

गुरुनानक जी का जन्म संवतˎ 1526 (सनˎ1469) कार्तिक पूर्णिमा के दिन तिलवंडी गाँव के जिला लाहौर के हिन्दू परिवार में हुआ था। इनके पिता कालूचंद खन्नी, जिला लाहौर, तहसील- शरकपुर के तिलवंडी नगर के सूबा बूलार पठान के करिंदा थे। इनकी माता का नाम तृप्ता था। नानक बाल्यावस्था से ही अत्यंत साधू स्वभाव के थे। संवत् 1545 में इनका विवाह गुरदासपुर के मूलचंद खत्री की कन्या सुलक्षणी से हुआ। सुलक्षणी से दो पुत्र हुए। श्रीचंद और लक्ष्मीचंद। श्रीचंद आगे चलकर ‘उदासी’ संप्रदाय के प्रवर्तक हुए।

एक बार इनके पिता ने इन्हें व्यवसाय करने के लिए कुछ धन दिया, जिसे इन्होंने साधुओं और गरीबों में बाँट दिया। पंजाब में मुसलमान बहुत दिनों से बसे हुए थे, जिसके फलस्वरूप वहाँ धीरे-धीरे उनका कट्टरवाद प्रबल हो रहा था। लोग बहुत से देवी देवताओं की उपासना की अपेक्षा एक ईश्वर की उपासना को महत्व और सभ्यता का चिन्ह समझने लगे थे। शास्त्रों के पठन-पाठन का क्रम मुसलामानों के प्रभाव से उठ गया था। जिससे धर्म और उपासना के गूढ़ तत्व को समझने की शक्ति नहीं रह गई थी। बहुत से लोग जबरदस्ती मुसलमान बनाए जा रहे थे और कुछ लोग शौक से भी मुसलमान बन जाते थे।

सिक्ख धर्म की स्थापना सोलहवीं शाताब्दी के आरम्भ में गुरुनानाक देव जी के द्वारा की गई थी। ज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने देश के लगभग अनेक भागों में यात्रा किया और मक्का तथा बग़दाद भी गए। उनका प्रमुख उपदेश था ईश्वर एक है, उसी ने सबको बनाया है। हिंदू, मुस्लिम सभी एक ही ईश्वर के संतान हैं। ईश्वर के लिए सभी एक समान हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ईश्वर सत्य है। मनुष्य को अच्छे कार्य करना चाहिए ताकि परमात्मा के दरवार में जाकर उसे लज्जित नहीं होना पड़े। गुरुनानक जी ने अपने एक सबद में कहा है-

“पण्डित वाचही पोथिय न बूझहि बीचार।।

आन को मती दे चलही माइआ का बामारू।।

कहनी झूठी जगु भवै रहणी सबहु सुखारु।।6।। (आदि ग्रंथ, प० स० 55)

अथार्त- पण्डित पोथी और शास्त्र पढ़ते हैं, किन्तु विचार को नहीं समझते हैं। दूसरों को वे उपदेश देते हैं जिससे उनका माया का व्यापार चलता है। उनकी कथनी झूठी है। वे संसार में भटकते रहते हैं। उन्हें सबद सार का कोई ज्ञान नहीं है। वे वाद-विवाद में पड़े रहते हैं।

कई बार तो इतिहास पढ़कर मन को बहुत दुःख पहुँचता है। लोग परमात्मा के बानाये हुए मंदिरों को गिराने के लिए तत्पर रहते हैं। कबीर दास जी कहते है-

“हिन्दू कहत हैं राम हमारा, मुसल्मान रहमान।

आपस में दोऊ लड़ मरत हैं, मरण कोई न जाना।।” (कबीर शब्दावली, भाग 1 प० स० 44)

इतिहास गवाह है कि इन धर्म-स्थानों को लेकर कितने युद्ध और झगड़े हुए हैं। अगर फिर भी कोई किसी से नफरत करता है तो इसका मतलब वह परमात्मा से नफरत करता है। कबीर साहब भी यह उपदेश देते हैं –

“अव्वल अल्लाह नूर उपाय कुदरत के सभ बंदे।

एक नूर ते सब जग उपज्या कौन भले को मंदे।। (आदिग्रंथ’ प० स० 1349)

गुरु नानक संत थे। उन्होंने राजा, प्रजा, पण्डित, मुर्ख, अनपढ़, हिंदू, मुसलमान सभी के लिए सुकृत अथवा नेक की कमाई के नियम पर जोर दिए हैं। गुरुनानक देव जी ने स्वयं वर्षों तक दौलत खां लोदी के मोदीखाने में सच्चाई तथा इमानदारी के साथ काम किया था। उन्होंने इस कमाई से खुले दिल से गरीबों और अनाथों की मदद किया। बाद में वे करतारपुर जो अभी पाकिस्तान में है, वहाँ चले गये। वहाँ उन्होंने खेती किया और खुद की नेक कमाई पर गुजारा करते हुए जरुरतमंदों की भी सहायता करने का आदर्श स्थापित किया है। उन्होंने कहा है-

“गुर पीर सदाए मंगण जाय। ता कै मूल न लगीए पाए।

घाल खाए किछ हत्थों देय। नानक राह पछानै सेय।” (आदि ग्रन्थ म० 1, प० स० 1245)

नानक की वाणी ने हमेशा मनुष्य को मानवता का संदेश दिया है। साथ ही साथ उसे समाज में जीवन यापन करने के लिए नैतिकता की भी शिक्षा दी है। इसके प्राण में एकत्व, सहानुभूति, सहयोग, करुणा और मानव प्रेम है। यह आदमी से आदमी को जोड़ने का कार्य करता है।     मरदाना जी गुरुनानक के शिष्य कैसे बने यह कहानी गुरुनानक जी के बचपन से जुडी हुई है। एक दिन गुरु नानक देव जी घूमते-घूमते किसी दूसरे मोहल्ले में चले गए। उस मोहल्ले के एक घर से रोने की आवाज आ रही थी। नानक रोने की आवाज सुनकर घर के अन्दर चले गए। उन्होंने देखा कि एक औरत अपने गोद में बच्चा लेकर विलाप कर रही थी। उन्होंने उसके रोने का कारण पूछा। औरत ने कहा मैं अपने और इस बच्चे के भाग्य पर रो रही हूँ। यह कहीं और जन्म लेता तो शायद कुछ दिन जिन्दा रहता किन्तु मेरे कोख में जन्म लेने से यह नहीं जिएगा। गुरुनानक जी ने कहा, आपको कैसे पता कि यह नहीं जिएगा? औरत ने कहा इसके पहले मेरे जितने बच्चे हुए कोई भी नहीं बचा है। उसकी बात सुनकर गुरुनानक पालथी मारकर बैठ गए और बोले आप इसे मेरी गोद में दे दो। उसने बच्चे को गुरुनानक जी के गोद में दे दिया। बच्चे को गोद में लेकर गुरुनानांक बोले इसे तो मर जाना है। तुम इस बालक को मुझे दे दो। बच्चे ने हाँ भर दिया। नानक ने बच्चे का नाम पूछा। उसकी माँ बोली- इसे तो मर जाना है। इसलिए मैं मरजाना कह कर बुलाती हूँ। गुरुनानक बोले अब यह मेरा हो गया है। अब इसका नाम मैं रखता हूँ। आज से इसका नाम ‘मरदाना’ होगा। (मरदाना का अर्थ है जो नहीं मरता) वे बच्चे को लौटाते हुए बोले मैं इसे आपके हवाले करता हूँ। जब मुझे जरुरत होगी इसे ले जाऊँगा। यही मरदाना आगे चलकर गुरु नानक जी का प्रिय मित्र बना। मरदाना पूरी उम्र गुरुनानक देव जी के सेवा में गुजार दिए। गुरुनानक के साथ मरदाना का नाम हमेशा के लिए जुड़ गया।

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