अब तक के हुए शोधों के अनुसार हिन्दी साहित्य में लघु कथा का उद्भव 19वीं शताब्दी के आठवां दशक से माना जाता है। उस समय यह विधा लघुकथा के नाम से नहीं जानी जाती थी। सन् 1875 ई० में आधुनिक हिन्दी के जन्मदाता बाबू भारतेंदु हरिश्चंद्र जी के द्वारा रचित ‘परिहासिनी’ नाम के कृति में छोटी-छोटी व्यंग्य कथाओं के दर्शन होते थे। इसके साथ ही खलील जिब्रान के भी धीर-गंभीर और पैनी कथाओं का उल्लेख किया जा सकता है। भारतेंदु जी की धारा अधिक विकसित नहीं हो सकी, किन्तु खलील जिब्रान की इस धारा को कई कथाकारों ने जाने अनजाने में अपना योगदान देकर इस विधा के महत्व को सिद्ध किया।
ऐसा माना जाता है कि कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ जी ने लघु कथाओं की शुरुआत की थी।
लेखक लघुकथा
कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’: आकाश के तारे धरती के फूल (1952)
रावी: मेरे कथागुरु का कहना है (1958) भाग-1, (1961) भाग दो
जगदीश चंद्र मिश्र: मौत की खोज, उड़ते हुए पंख (1959)
लक्ष्मीचंद जैन: कागज की किश्तियाँ (1960)
रामनारायण उपाध्याय: नाक का सवाल (1983)
हरिशंकर परसाई: लघुकथा रचनावली (दो भागों में 1985)
विष्णु प्रभाकर: नैतिक भावबोध की कथाएँ (…)
रत्न कुमार सांभरिया: बाँग और अन्य लघु कथाएँ (1996), प्रतिनिधि लघु कथा शतक (2012 दलित लेखक)
बलराम: विश्व लघुकथा कोश, भारतीय लघुकथा कोश, हिन्दी लघुकथा कोश (…)कालीचरण प्रेमी: कीले (लघुकथाएँ)