हबीब तनवीर कृत ‘आगरा बाजार’ (नाटक)

हबीब तनवीर जन्म 1 सितम्बर 1923 – 08 जून 2009

हबीब तनवीर कृत ‘आगरा बाजार’ (नाटक) का सम्पूर्ण अध्ययन

हबीब तनवीर का संक्षिप्त जीवनी- हबीब तनवीर का जन्म 1923 को रायपुर में हुआ था। जो अब छत्तीसगढ़ की राजधानी है। हबीब तनवीर के बचपन का नाम हबीब अहमद खान था। उन्हें बचपन से ही कविता लिखने का शौक था। पहले वे ‘छद्दनाम’ नाम से लिखना शुरू किए। बाद में वह उनका पुकार का नाम बन गया। हबीब तनवीर भारत के सबसे मशहूर लेखक, नाट्य निर्देशक, कवि और अभिनेता थे। तनवीर हिन्दुस्तानी रंगमंच के ‘शलाका’ पुरुष थे। उन्होंने लोकधर्मी रंगकर्म को पूरी दुनिया में प्रतिष्ठित किया और भारतीय रंगमंच को एक नया मुहावरा दिया।

कृतियाँ

मुख्य बहुचर्चित नाटक: आगरा बाजार (1954), मिट्टी की गाड़ी (1958), चरणदास चोर (1975)

अन्य नाटक: आगरा बाजार (1954), शतरंज के मोहरे (1954), लाला शोहरत राय (1954), मिट्टी की गाड़ी (1958), गाँव का नाम ससुराल हमार नाम दामाद (1973), हिरमा की अमर कहानी उत्तर रामचरित (1977), पोंगा पण्डित (1990), जिन लाहौर नहीं देख्या (1990), कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना (1993), द ब्रोकन ब्रिज (1995), जहरीली हवा (2002), राज रक्त (2006)

हबीब तनवीर को ‘चरणदास चोर’ नाटक के लिए 1982 में ‘एडिनबर्ग इंटरनेश्नल ड्रामा फेस्टिवल’ में पुरस्कृत किया गया था।

नज़ीर अकबराबादी 18 वीं सदी के भारतीय शायर थे, जिन्हें नज्म का पिता कहा जाता है। उनकी सबसे प्रसिद्ध व्यंग्यात्मक गजल ‘बंजारानामा’ है। वे धर्म-निरपेक्ष व्यक्ति थे। हबीब तनवीर ने ‘नज़ीर अकबराबादी’ को प्रतिष्ठित करने के लिए ही आगरा बाजार नाटक लिखा था।

हबीब तनवीर के शब्दों में- “हिन्दुस्तानी लहजे में बात करने का सलीका आज भी नजीर अकबराबादी से सिखा जा सकता है।” “नजीर फ़कीर और दरवेशों में आज तक मकबूल है”

हबीब तनवीर के शब्दों में- “नजीर राह चलते नज्में कहा करते थे और छोटे पेशे वाले लोग तथा भिखारी अक्सर उनसे नज्मों की फरमाइश किया कतरे थे और वे उनकी बात कभी नहीं टालते।”

हबीब तनवीर के शब्दों में- “ये हकीकत है कि कलाम जिंदा-जावेद है” ड्रामे के अन्दर कलामे- नजीर उस पहलू को उजागर करना चाहता था और उसी को मैने अपना मौजू बनाया” “नजीर उर्दू नज्म के बाबा आदम है।”   

  • आगरा बाजार’ नाटक का रचना काल 1954 है। स्थान आगरा के ‘किनारी बाजार’ का एक ‘चौराहा’। नाटक के दो अंक हैं। नाटक में हास्य रस का प्रयोग अधिक है।
  • हबीब तनवीर ने इस नाटक का दो बार संशोधन (1970 और 1989) भी किया है।
  • इस नाटक का सर्वप्रथम मंचन 14 मार्च 1954 को ‘जामिया मिलिया इस्लामिया’ के कला विभाग के खुले मंच पर किया गया था।
  • इस नाटक का पुस्तक के रूप में प्रकाशन सन् 1954 में ‘आज़ाद किताबघर’ से हुआ था। जिसके दो संशोधित संस्करण सन् 1970 और सन् 1989 में प्रकाशित हुए थे।
  • आगरा बाजार नाटक की रचना हबीब तनवीर ने 18वीं सदी के भारतीय शायर एवं नज्म के पिता कहे जाने वाले नजीर अकबराबादी को प्रतिष्ठित करने के लिए किया।
  • ‘अगरा बाजार’ नाटक हबीब तनवीर की मौलिक नाटक नहीं है। यह नाटक नजीर अकबाराबादी के नज्मों पर आधारित है। ‘मेरे बंद’ रचना ग़ालिब के गजलों पर आधारित है। 

‘आगरा बाजार’ नाटक का मुख्य बिंदु:

  • इस नाटक में सामाजिक और सांस्कृतिक समस्याओं का चित्रण किया गया है ।
  • नाटक में स्थानीय संस्कृति, लोकजीवन और लोकपरम्पराओं का चित्रण है।  
  • पुलिस व्यवस्था के कार्य शैली और व्यापारियों के दर्द का चित्रण है।
  • व्यापारियों का दर्द, इतिहास के फलक पर आधुनिक समस्याओं के रूप में चित्रण किया गया है।  
  • इस नज्म के पितामह नजीर अकबरावादी को प्रतिष्ठित करना था।
  • इस नाटक को जब ओखला में खेला गया था तब 75 आदमी मंच पर आये थे।

नाटक के पात्र:

नाटक में कोई भी पात्र मुख्य भूमिका में नही है। दो अंको के इस नाटक में पात्रों की संख्या बहुत अधिक है।

पहला अंक के पात्र: फ़कीर, लड्डूवाला, तरबूजवाला, बर्फवाला, ककड़ीवाला, पानवाला, मदारीवाला, बर्तनवाला, अजनबी, शायर, हमजोली, कनमैलिया (कान साफ़ करने वाला), तजकिरानवीस (वृतांत लिखनेवाला), ग्राहक, लड़का, करीमन, चमेली, करीमन (हिजड़ा), चमेली (हिजड़ा), नवासी (नजीर की नवासी)। इस नवासी को लेकर हबीब तनवीर ने कहा है कि यही नवासी विलायती बेगम थी। जिससे नजीर के विषय में बहुत सारी बातों का पता चलता है। तमाशबीन इत्यादि अनेक पात्र है।

दूसरे अंक का पात्र: पतंगवाला, अंधा भिखारी, हमीद (एक बालक), बेनी प्रसाद, होली गाने वाले, पहला सिपाही, दूसरा सिपाही, तबलची और सारंगियां हैं।

पात्रों की संख्या अधिकता के कारण नाटकीय तत्व विधान त्रुटिपूर्ण प्रतीत होता है।

आगरा बाजार नाटक का कथानक:

आगरा बाज़ार नाटक एक ऐसे ककड़ी बेचने वाले की कहानी है, जिसकी ककड़ी कोई भी नहीं खरीदता है। जब वह अपना ककड़ी नजीर अकबराबादी की कविताओं का वाचन करते हुए बेचता है तब उसकी ककड़ियाँ बिकने लगती है।

नाटक का आरम्भ दो फकीर ‘शहर शोआब’ (नगर की दुर्दशा का वर्णन करने वाली) गाते हुए प्रवेश करता है। एक फ़कीर कफनी पहने हुए एक हाथ में कश्कोल (भिक्षा पात्र) और तस्बीह (जपने की माला) और दूसरे फ़कीर के एक हाथ में डंडा और लोहे का कड़ा है। दोनों नज्म पढ़ते  और ताल पर कड़े बजाते हुए बाहर चले जाते है। यह नजीर की कविता है। इस कविता में नगर के दुर्दशा का वर्णन है।

नाटक फकीरों के गीत से शुरू होता है, जिसमे आगरा के बाजार की झलक है।

सर्राफ़, बनिये, जौहरी और सेठ-साहूकार

देते थे सबको नकद, सो खाते हैं उद्धार

बाजारे में उड़े है पड़ी खाक बेशुमार 

बैठे हैं यूं दुकानों में अपनी दुकानदार

जैसे कि चोर बैठे हों कैदी कतारबंद….

इस एक ही नज्म से आगरा के बाजार का पूरा माहौल सामने आ जाता है। जिसमे किसी भी व्यापारी का कोई सामान नहीं बिक रहा है। रोजी की मार है और भयानक मंदी है। बाजार में विभिन्न प्रकार के चरित्र हैं। ककड़ी बेचनेवाला, पान बेचने वाला, लड्डू बेचने वाला किताब बेचने वाला, एक उदयीमान कवि, एक ईर्ष्यालु कवि, एक ईमानदार आलोचक, नजीर का प्रशंसक, एक तवायफ, नाजी की नज्मों को गाने वाला एक युवक, होली खेलने वालों का दल, पुलिस का आदमी, पतंगवाला इस बाजार में सब आते हैं। यहाँ उत्सव भी मनाये जाते है। ये सभी पात्र किसी न किसी तरह से नजीर से जुड़े हुए हैं। इन पात्रों के संवादों से ही नजीर की छवि बनती है। यह भी दिखता है कि शहर में अदब के लोग जहां नजीर को हिकारत से देखते है। वही मदारी, तवायाफ़, ककड़ी वाले ने उनकी शायरी को कंठ दिया है।

बाजार में सभी दुकानदार कुछ-कुछ बोलकर अपना-अपना सामान बेचने का प्रयास करते है। परन्तु सभी दुकानदारों की स्थिति एक जैसी है। इनमे से किसी का भी सामान नहीं बिक रहा है। मदारी आता है। बंदर का नाच दिखाता है। सभी दुकानदार अपना सामान बेचने के लिए आवाजें लगाते हैं। इसी बीच मदारीवाला, ककड़ीवाला पर क्रोधित होकर कहता है। तुम्हारे ककड़ी बेचने के कारण सभी लोग चले गए। जिससे हमें भी कुछ नहीं मिला। इसी बात से आपस में लड्डूवाला, तरबूजवाला, ककड़ीवाला और मदारी वाला के बीच कुछ कहा सुनी हो जाता है। इसी बीच नाटक में फ़कीर आता है। वह नज्म गाने लगता है। फ़कीर का नज्म सुनकर ककड़ीवाला के दिमाग में एक बात आती है। वह सोचता है, क्यों न हम भी फ़कीर की तरह नज्म गाकर ककड़ी बेचेने का प्रयास करे। जिससे लोग आकर्षित होकर ककड़ी खरीदने के लिए आए। नाटक में एक शायर हमजोली के साथ किताब वाले के पास आता है। वह शायरी करता है। हमजोली भी उसका साथ देता है।

शायर कहता है- “दिल्ली में आज भीख भी मिलती नहीं उन्हें,

  था कल तलक दिमाग जिन्हें ताजो-तख़्त का।”

किताब वाला कहता है, वाह! वाह! वाह! सुभान अल्लाह। इसी तरह की बातें चलती रहती है। उसी समय वृतांत लिखने वाला किताब की दूकान पर आता है। दूकान पर बैठकर वह सबसे बातें करने लगता है। ककड़ी वाले ने शायर और हमजोली से कहा, कुछ नज्म हमारे ककड़ी पर भी लिख दीजिए। लेकिन उन लोगों ने इनकार कर उसे नजीर के पास जाने का सलाह दिया था। यहाँ पर शायर, तजकिरानवीस से कहता है। यह गरीब सुबह से आपकी राह तक रहा है कि आप आये तो आपसे दो चार शायर अपनी ककड़ी पर लिखवाये, लेकिन आपने उसकी बात का जवाब नहीं दिया। तजकिरानवीस कहता है, मैं ऐसे वैसे से बात करके अपनी जुबान नहीं खराब करना चाहता। किताब वाला कहता है, क्या मियाँ, आप भी मीरसाहब के नक्से कदम पर चल रहें हैं। उसके बाद ये चारों मिलकर किताबवाला, हमजोली, शायर और तजकिरानवीस की लम्बी शेरो-शायरी होती है। इस शेरों शायरी के चर्चा के दौरान ये सभी नजीर अकबराबादी के शेरो-शायरी को उपेक्षित करते हैं। नजीर अकबराबादी इस नाटक में कहीं भी पात्र के रूप में नहीं है। सिर्फ नाटक में उनका नाम लिया गया है।

इसी बीच बाजार में एक तरफ से हिन्दू टोली बलदेव का मेला शीर्षक वाली नज्म गाती हुई बाएँ तरफ से घुसती है। दूसरे तरफ से सिख्खों की टोली मदह गुरुनानक की कविता गाती हुई घूसती है- “हैं कहते नानक शाह जिन्हें वह पुरे हैं आगाह गुरु,

            वो कामिल रहबर जग में है, यूँ रौशन जैसे माह गुरु।”

हिन्दू टोली भी गाना गाते हैं – “क्या वह दिलबर कोई नवेला है, नाथ है कहीं वह चेला है।”

ये टोलियाँ गाती हुई चली जाती हैं।

तजकिरानवीस किताब वाला से कहता है। क्या ज़माना आ गया है देखिये की कुतुबखानों में फ़ारसी की किताबें अनका (गायब) हो रही है। नश्र भी उर्दू में ही लिखी जाती है, फिर कोई क्या तजकिरा लिखे और किसलिए? किताबवाला कहता है, खूब याद आया मिया नजीर के एक शाहगिर्द हाल ही में मेरे पास आए उनकी नज्म लेकर उन्होंने कहा, क्या मैं अपनी रसूक से उसकी साया (प्रकाशित) करवा सकता हूँ? अब भला बताइए कौन पढ़ेगा मिया नजीर का कलाम? यहाँ पर फिर से एक बार नजीर को उपेक्षित किया जाता है।

इसी बीच यहाँ पर करीमन और चमेली दोनों हिजड़े बाजार में आते हैं।  दोनों कृष्ण के ऊपर गीत गाते है- “ऐसा था बाँसुरी का बजैया का बालपन क्या-क्या कहूँ

मैं किशन कन्हैया का बालपन।”

इसी बीच में दारोगा आता है। दारोगा वहाँ पर बैठे लोगों से झगड़े के विषय में पूछता है। यहाँ पर दंगा-फसाद क्यों और किस बात को लेकर हुआ था? यह कहकर दारोगा सभी दुकानदारों पर एक-एक रुपया का जुर्माना लगा देता है। दारोगा बेनजीर के पास जाता है। इधर नजीर की नवासी दूकान पर आकर कहती है। चाचा नाना ने आम का अचार मंगाया है। पंसारी उससे पूछता है। कहा है, मियाँ नजीर शहर में अँधेरा हो रहा है। उनसे कहो इस जुल्म पर भी एक कविता लिखे। बैठे बिठाए हमलोगों पर एक रूपया का जुर्माना हो गया है।  यह कहकर पंसारी अचार दे देता है। नजीर की नवासी अचार लेकर चली जाती है। बाद में फिर नवासी आकर पंसारी से कहती है। यह पढ़ लीजिए। पंसारी कहता है, सुनों मियाँ नजीर ने नई नज्म भेजी है। पंसारी नज्म पढ़ता है-            “फिर गर्म हुआ आंके बाजार चूहों का,

हमने भी किया ख्वान्चा तैयार चूहों का।

सर-पाँव कुचल-कूटके दो-चार चूहों का,

जल्दी से कचूमर-सा किया चार चूहों का।

ज़ोर मज़ेदार है अचार चूहों का!

वास्तव में पंसारी ने जो अचार दिया था, उसमे चूहा मरा हुआ था। जब पंसारी खोलकर उसे देखता है। तब उसमे से एक मरा हुआ चूहा निकलता है। यह देखकर सभी लोग वहाँ हँसने लगते हैं। नजीर इस तरह के नज्म लिखते हैं। वहाँ पर बैठे किताब वाले के साथ सभी लोग इस नज्म को सुनकर हँसने और उनका मजाक उड़ाते हैं। किताब वाला कहता है, ताज्जुब तो इस बात की है कि मियाँ नजीर शरीफ घराने के आदमी हैं। जाहिल और गदागर (भिखाड़ी) की चीजे गाते फिरते हैं। यहाँ उन्हें अपना ना सही अपने खानदान वालों की इज्जत का तो ख़याल रखना ही चाहिए। तजकिरानवीस कहता है, साहब जिस शक्स की तमाम उम्र पतंग बाजी करने, मेले-ठेलों की सैर करने, आवारा गर्दी और कामारबाजी (जुआ) में गुजारी हो उसे क्या शर्म हया। तब  शायर कहता है, सुना है अहदे शबाब में यह आलम था कि बाजार के लौंडों के साथ गाते बजाते और कोठों के चक्कर लगाते थे। होली के दिनों में बकायदा रंग खेलते और हर रस्म में शरीक होते थे। अब शाम हो गई है। कोठे पर महफ़िल जमने लगी है। बेनजीर का बाजार सजने लगा है। वहाँ पर सोहादा आता है। इसी बीच तमाशबीन भी आ जाता है, और महफ़िल जम जाती है। यहाँ नज्म शुरू हो जाता है। बीच में दारोगा आता है। दारोगा बेनजीर के साथ मुलाक़ात करना चाहता है किन्तु बेनजीर मना कर देती है। क्योंकि वह पहले से ही किसी सौदा को टाइम दे देती है। यहाँ बेनजीर के कल आने के लिए कहने पर सहमती भरते हुए दारोगा चला जाता है।

यहाँ फिर फ़कीर आते हैं और एक नज्म गाते हैं-

“पैसे ही का अमीर के दिल में ख्याल है,

पैसे ही का फ़कीर भी करता सवाल है।

पैसे ही रंग-रूप है, पैसे ही माल है

पैसे न हो तो आदमी चर्खे की माल है।”

यहीं पर नाटक का पहला अंक समाप्त हो जाता है।

दूसरा अंक:

नाटक के दूसरे अंक में फ़कीर बंजारानामा गाते हुए आते हैं –

“टुक हिर्सो-हवा को छोड़ मियाँ, मत देस-विदेस फिर मारा।

कज्जाक अजल का लूटे है दिन-रात बजाकर नक्कारा।

क्या बधिया, भैस, बैल, शूटर क्या गोई, पल्ला सरभारा।

क्या गेहूँ, चावल, मोठ, मटर, क्या आग धुआं क्या अंगारा।

सब ठाठ पड़ा रह जावेगा, जब लाद चलेगा बंजारा।”       

फ़कीर गाते हुए चले जाते हैं। सुबह हो गई है। कुछ दुकानदार आ गये हैं। कुछ दुकानदार अपनी दूकान खोल रहें हैं। फेरी वाले आवाज लगा रहे हैं। किताबवाले का भी दूकान खुल गया है। किताब की दूकान पर शायर आता है। किताब वाला शायर से कहता है। चौधरी गंगाप्रसाद साहब ने कुछ और कहा आप से शायर कहता है। उन्होंने इशारे में बात कही, मैं समझ गया था कि यह मौक़ा मुनासिब नहीं है। असल में शायर की यह इच्छा थी कि उसकी एक किताब छप कर प्रकाशित हो जाए और उसकी कुछ पेशगी किताब वाला दे दे। तब किताब वाले ने उसे चौधरी गंगा प्रसाद साहब के पास शायर को भेज दिया था। मेरे पास सामर्थ नहीं है। आप चौधरी गंगाप्रसाद के पास चले जाइये। वे आपके शायर के कायल हैं। शायद वे आपकी कुछ मदद करें। लेकिन उन्होंने भी इनकार कर दिया था। इसी बीच पतंग वाला एक तोता का पिंजरा हाथ में लेकर गुनगुनाते हुए आता है और अपनी दूकान खोलकर गुनगुनाता है।

पतंगवाला- “कुछ वार पैतरे हैं, कुछ पार पैतरे हैं।

    इस आगरे में क्या-क्या ऐ यार पैतरे है।

हामिद एक बच्चा है। वह पतंग की दूकान पर जाता है। वह पतंग वाले से कहता है, कल कहाँ गायब हो गए थे। पतंग वाला बताते हुए कहता है। मैं तैराकी का मेला देखने गया था। हामिद उससे पतंग खरीदकर जाने लगता है। तभी किताब वाला उसे पकड़कर कुछ सुनाने के लिए कहता है। हामिद बड़े ही सुरीले ढ़ंग से एक गजल सुनाता है। उसकी गजल सुनने के लिए सभी दुकानदार अपना दूकान छोड़कर उसके पास आ जाते हैं। राहगीर रुक जाते हैं। किताब के दूकान वाले के पास बैठा शायर कहता है। यह मियाँ नजीर की गजल है। हमजोली कहता है। भाई क्या कहने है, हमें मियाँ नजीर की इस कलाम की खबर नहीं थी। ताजकिरानवीस भी वहा बैठा हुआ था। उसे बुरा लगता है और वह वहाँ से झुंझलाकर चला जाता है। हामिद अभी गा ही रहा था कि किताब वाला कहता है। बस करो मियाँ, और भीड़ को देखकर कहता है। आप सब यहाँ क्यों जमा हुए हैं? साहब! यहाँ कोई मदारी का खेल हो रहा है या प्रसाद बट रहा है। किताब वाले की बात सुनकर सभी वहाँ से चले जाते हैं। वहाँ सन्नाटा छा जाता है। किताब वाले के पास से शायर और हमजोली भी चल देते हैं। हामिद भी जाने लगता है। पतंगवाला हामिद को बुलाकर कहता है, सुनों मियाँ, पहले क्यों नहीं बताया यार कि तुम्हें मियाँ नजीर की कलाम याद है। हामिद कहता है। मैं तो पतंग खरीदने आया था। साहब शेर सुनाने के गरज से मैं नहीं आया था। पतंग वाला कहता है। अरे यार मगर यह तो जानते हो, कितनी पुरानी याद है। अल्लाह है हमारे मियाँ नजीर। उनका कलाम सुनाना था तो हमारी दूकान पर बैठकर सुनाते। वहाँ सेर पढ़कर उनको भी बेईज्जत किया और हमें भी। हामिद से पतंग वाला बहुत सारे नज्मों को सुनाने के लिए कहता है। हामिद भी रह रहकर नजीर के नज्मों को सुनाता है। बहुत सारे लोग वहाँ पर जमा हो जाते हैं। उसमे खोमचे वाला भी शामिल हो जाता है। फिर एक अँधा भिखारी कटोरा लेकर एक औरत के साथ आता है। और वह भी गाता है।

अँधा भिखाड़ी- “पहले नाँव गणेश का लीजे सीस नवाए,

जैसे कारज सिद्ध हो सदा महूरत लाये …. …

ख़ुशी रहे दिन-रात वह, कभी न हो दिलगीर,

महिमा उसकी भी रहे, जिसका नाम ‘नजीर।’

इसी समय होली गाने वाले भी आते है।

वे गाने लगते है- “हो नाच रंगीली परियों का,

   बैठे हो गुलरु रंग भरे…कुछ भीगी तानें होली की,

   कुछ नाज़ो-अदा के ढ़ंग भरे…  ….. ….!

पतंग वाला कहता है, सुन लिया बेनी प्रसाद होली के मौके पर इससे बेहतर नज्म और क्या हो सकती है। अब नाटक में दो सिपाही आते हैं। वह बेनजीर के कोठे के पास खड़ा होकर इंतज़ार करते हैं कि मजनू निकले तो उसे उठाकर वह ले जाए। क्योकि दारोगा जी ने उन्हें बुलाया था। इसी बीच  मदारी भी आता है। वह भी अपने नज्मे गाता है। इसके बाद ककड़ी वाला आता है। और पतंग वाले से कहता है, ये मियाँ हजरत नजीर कहाँ रहते हैं। मुझे उनसे अपने ककड़ी के ऊपर कुछ शेरों-शायरी लिखवानी है। पतंग वाला नजीर का पता बता देता है। ककड़ी वाला नजीर के पता पर पहुँच जाता है।

गंगा प्रसाद जो बड़े दूकान वाले हैं। वे पतंग वाले के दूकान पर आते हैं और उससे कहते हैं कि मैं तो अब उर्दू फ़ारसी की किताबों से पार पा लिया। मैंने फैसला किया है कि दिल्ली से अंग्रेजी जबान में एक अखबार साया करू। मैं आपसे यही कहने आया हूँ कि आप भी यह धंधा छोड़ दीजिये और अखबार रसायल के काम में लग जाइये। नया ज़माना है नए जमाने के मुताबिक़ रबिस इक्त्यार कीजिए। किताब वाले और गंगा प्रसाद के बीच लम्बी बातें होती है। किताब वाले को गंगा प्रसाद समय देकर चले जाते हैं। इधर बेनजीर के कोठे से सोहदा नीचे उतरता है। सिपाही सोहादा को पकड़ लेते हैं। उसे कहते हैं। कल यहाँ तुमने फसाद करवाया था। इसलिए चल साहब ने बुलाया है। ककड़ी वाला दाखिल होता है। उसका चेहरा खिला हुआ है। होठों पर गाना है। उसके पीछे बच्चे शोर मचाते हुए एक कतार में अन्दर आते हैं। अब वह गा-गाकर ककड़ी बेचता है।

ककड़ी वाला- “क्या प्यारी-प्यारी मीठी और पतली-पतलियाँ है,

गन्ने की पारियां है, रेशम की तकलियाँ है,

फरहाद की निगाहें, शीरीं की हँसलियाँ है,

मजनू की सर्द आहें, लैला की उँगलियाँ है

क्या ख़ूब नर्मो-नाजुक इस आगरे की ककड़ी,

और जिसमे ख़स काफ़िर इस कंदरे की ककड़ी …. …!

इस तरह वह गा-गाकर ककड़ी बेचता है। उसकी ककड़ी खूब बिकती है। इस तरह तरबूज वाला लड्डू वाला भी गाते हुए आते हैं। दारोगा जी बेनजीर के कोठे पर पहुँचते हैं। वहाँ पर तबलची और सारंगिया भी हैं। उन दोनों से दारोगा बेनजीर के बारे में पूछते हैं। तब तक बेनजीर आ जाती है, और कहती है। मुझे अपना वादा याद है। दारोगा कहता है, मैं सुबह-सुबह इसलिए आ गया की हो सकता है आपके पास और कोई आ जाए और फिर मुझे वापस कर दे। दरोगा और बेनजीर बाते करते हैं। इसी बीच फ़कीर आदमीनामा गाते हुए बाजार में प्रवेश करते है। और  सभी लोग इस कोरस में शामिल होकर गाते है।

कोरस- “दुनिया में बादशह है सो भी आदमी,

और मुफलिसों-गदा है सो है वह भी आदमी

जरदार, बे-नवा है सो है वह भी आदमी

टुकड़े चबा रहा है, सो वह भी आदमी

नेमत जो खा रहा सो वह भी आदमी… …  

यां आदमी को जान को वारे है आदमी

और आदमी की तेग से मारे है आदमी

पगड़ी भी आदमी की उतारे है आदमी

चिल्ला के आदमी को उतारे है आदमी

और सुन के दौड़ता है सो है वह भी आदमी… ..!

जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं के इन पहलुओं के साथ मानव जीवन की अनिवार्य नियति को यह नाटक संकेत करता है। “सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा” जीवन के मुश्किलों के बीच यह नाटक जीवन के उन रंगों को भी पकड़ता है जो मनुष्य के जीवन में रंग भरते हैं। हबीब के द्वारा इस बाजार की तुलना भारतेंदु जी के नाटक ‘अंधेर नगरी’ के साथ किया जा सकता है। हबीब ने उन्नीसवीं सदी के आगरा बाजार का यथार्थ चित्रण करने की कोशिश की है जबकि भारतेंदु ने उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के एक प्रतीकात्मक बाजार की संरचना किया है। आगरा बाजार के बाजार में मंदी है, जहाँ कुछ नहीं बिकता है, जबकि ‘अंधेर नगरी’ के बाजार में सबकुछ बिकाऊ है।              

निष्कर्ष: हबीब तनवीर द्वारा लिखा जाने वाले यह नाटक हिन्दी नाट्य साहित्य के इतिहास में अपना एक विशिष्ट और महत्वपूर्ण स्थान रखता है। नज़ीर अकबराबादी के नज्मों, उनके जीवन और उनके परिवेश पर आधारित होते हुए भी यह नाटक तात्कालीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक स्थिति का यथार्थ चित्रण प्रस्तुत करता है।

हबीब तनवीर ने इस नाटक में आम आदमी की जिंदगी की वास्तविक स्थिति को उसके समूचे परिवेश के साथ चित्रित किया है। हबीब तनवीर नाटकों को आम जनमानस से जोड़ने के पक्ष में थे। अतः उन्होंने लोक संस्कृति, लोकजीवन में रच बस कर एक अलग दृष्टि को विकसित करने का प्रयास किया है। आगरा बाजार उसी नई दृष्टि का परिणाम है।  

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