कोई नहीं समस्या जिसका, समाधान न हो योग से,
सतयुग में वापसी हो सकती है, योग के प्रयोग से
प्रस्तावना- प्राकृतिक चिकित्सा, चिकित्सा के साथ एक जीवन पद्धति भी है। जिसमे प्राकृतिक विधि-विधानों के द्वारा मानव के शरीर में होने वाले रोगों का उपचार किया जाता है। यह चिकित्सा पद्धति आज की सभी चिकित्सा पद्धतियों से पुराना है। प्राकृतिक चिकित्सा के अंतर्गत अनेक पद्धतियाँ हैं जैसे- जल चिकित्सा, होमियोपैथी, सूर्य चिकित्सा, एक्यूपंचर, एक्यूप्रेसर, मृदा चिकित्सा आदि। प्राकृतिक चकित्सा के प्रचलन में विश्व की कई चिकित्सा पद्धतियों का योगदान है जैसे भारत का ‘आयुर्वेद’ तथा यूरोप का ‘नेचर क्योर’। प्राकृतिक चिकित्सा का उद्भव प्रकृति के ही पाँच तत्वों आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी के द्वारा हुआ है। हमारा शरीर भी इन प्रकृति के पांच तत्वों से ही मिलकर बना है।
तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में भी लिखा है-
“क्षिति जल पावक गगन समीरा, पञ्च तत्व से बना शरीरा ।”
यदि इस चिकित्सा पद्धति को हम सबसे प्राचीन और सभी चिकित्सा प्रणालियों की जननी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास मानव सभ्यता के बराबर ही पुराना है। मानव सभ्यता के उद्भव के साथ ही मानव ने प्राकृतिक चिकित्सा का उपयोग करना शुरू कर दिया होगा। प्राकृतिक चिकित्सा का सबसे पुराना प्रमाण वैदिक साहित्य में पाया गया था। वैदिक सभ्यता में वृक्षों की पूजा और प्राकृतिक संसाधनों के चिकित्सीय उपयोग में महत्वपूर्ण बदलाव हुए। यह सभ्यता आर्यों के द्वारा विकसित हुई थी। सबसे पहले आर्यों ने ही वृक्षों और प्रकृति में प्रद्दत प्राकृतिक संसाधनों के चिकित्सीय महत्व का आविष्कार किया। आयुर्वेद के ज्ञान से परिचय आर्यों की ही देन हैं। ‘आयुर्वेद’ (आयु:+वेद = आयुर्वेद) इसका शाब्दिक अर्थ होता है ‘बढ़ती उम्र के साथ स्वस्थ्य जीवन जीने का ज्ञान’। इसका वर्णन पौराणिक ग्रंथों वेदों में मिलता है, वैदिक काल के बाद पौराणिक काल में भी यह चिकित्सा पद्धति प्रचलित थी। दूसरी और तीसरी शताब्दी ई० पूर्व में कुछ ग्रन्थ प्राकृतिक चिकित्सा पर लिखे गए थे। चरक संहिता आयुर्वेद पर लिखी गई एक महत्वूर्ण पुस्तक है जिसमे आयुर्वेद के साथ-साथ प्राकृतिक चिकित्सा का भी उल्लेख मिलता है। यह पुस्तक बीस (20) अध्यायों में विभाजित है और एक सौ बीस (120) खण्डों में व्यवस्थित है। प्राचीन भारतीय इतिहास में कुछ अन्य प्राकृतिक चिकित्सा के विद्वानों का भी वर्णन मिलता है। जिसमे मुख्य रूप से ‘सुश्रुत’ और ‘धन्वंतरी’ का नाम आता है। उसी तरह आधुनिक भारत के इतिहास में गाँधी जी भी उन महत्वपूर्ण व्यक्तियों में से थे, जिन्हें राजनीति, दर्शन और सामाज सुधार के साथ–साथ प्राकृतिक चिकित्सा का भी ज्ञान था। वे प्राकृतिक चिकित्सा और योग पर विश्वास करते थे। यही नहीं वे स्वयं और परिवार के सदस्यों पर भी प्राकृतिक चिकित्सा के नुस्कों को अपनाया करते थे। गाँधी जी प्रख्यात उद्द्योगपति घनश्याम बिड़ला के भी प्राकृतिक चिकित्सक थे। योग और प्राकृतिक चिकित्सक डॉ ओमप्रकाश आनंद के अनुसार घनश्यामदास बिड़ला महात्मा गाँधी को एक सफल और प्राकृतिक चिकित्सक मानते थे। बिड़ला जी के अनुसार उन्हें बार-बार जुकाम हो जाया करता था और हाजमा भी खराब रहता था। गाँधी जी के प्राकृतिक चिकित्सा से उन्हें स्वस्थ होने में बहुत मदद मिली। गाँधी जी के विचार के अनुसार जिस व्यक्ति के पास स्वस्थ शरीर, स्वस्थ दिमाग और स्वस्थ भावनाएँ होती है, वही स्वस्थ व्यक्ति है। गाँधी जी को इस ओर प्रेरित करने की प्रथम पाठशाला उनका परिवार ही था।
परिचय: प्राकृतिक चिकित्सा का आधार होता है, रोग-प्रतिरोधक क्षमता का संवर्धन करना। कुदरत के कानून को पालन करने से रोग-प्रतिरोधक शक्ति में तेजी से वृद्धि होती है। यही शक्ति हमारे शरीर के रोगों को दूर करने में सहायत करती है। प्राचीन भारत में भारतीय चिकित्सा पद्धति का विकास हुआ। सिंधु घाटी सभ्यता के इतिहास में सबसे पहले चिकित्सा पद्धति के विषय में जानकारी मिलती है। सिंधु घाटी के लोग दवा बनाने के लिए पौधों, जड़ी-बूटियों, पशु उत्पादों और खनिजों आदि का प्रयोग करते थे। साक्ष्य इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं कि सिंधु सभ्यता के लोग शिलाजीत के उपयोग से परिचित थे। वे विभिन्न रोगों के उपचार में इस दवा का प्रयोग करते थे। इस तरह भारतीय उप-महाद्वीप में प्राकृतिक चिकित्सा का उदय हुआ। यह पद्धति एक वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति है। आधुनिक युग में डॉ० ईसाक जेनिग्स ने अमेरिका में 1788 में प्राकृतिक चिकित्सा का उपयोग आरम्भ कर दिया था। ‘नेचुरोपैथी’ शब्द का शुरुआत 1895 में जॉन स्कील द्वारा की गई थी। बेनेडिक्स वासना को अमेरिकी प्राकृतिक चिकित्सा के पिता के रूप में माना जाता है।
महात्मा गाँधी को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान के लिए जाना जाता है। उन्होंने अपने विचारों और कार्यों में कोई भी अंतर नहीं किया। इसलिए उन्हें प्रयोगात्मक वैज्ञानिक के रूप में जाना जाता है। उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘सत्य के प्रयोग में’ लिखा है कि उनके जीवन में विभन्न मुद्दों और उनके प्रयोग उनके विचार पर दृष्टिपात करती है।
प्राकृतिक चिकित्सा का अर्थ और परिभाषा: प्राकृतिक चिकित्सा, प्रकृति पर आधारित चिकित्सा को कहते हैं। यह पद्धति चिकित्सा की एक ऐसी रचनात्मक विधि है जिसका लक्ष्य प्रकृति में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध तत्वों के उचित इस्तेमाल के द्वारा रोग के मूल कारण को समाप्त करना है। यह न केवल चिकित्सा पद्धति है बल्कि मानव शरीर में उपस्थित आतंरिक महत्वपूर्ण शक्तियों या प्राकृतिक तत्वों के अनुरूप एक जीवन-शैली है। प्राकृतिक चिकित्सा पंच तत्व पर आधारित चिकित्सा पद्धति है। इसके अंतर्गत प्रकृति के पंच तत्वों का प्रयोग करके चिकित्सा की जाती है। इन पाँच तत्वों से ही शरीर का निर्माण हुआ है। इन तत्वों के असंतुलन होने से रोग या विकृति उत्पन्न होती है और संतुलन बनाकर रखने से रोग या विकृति दूर होते हैं। कुदरत के कानून का पालन करने से रोग प्रतिरोधक शक्ति में वृद्धि होती है जो रोगों को दूर करने में हमारी सहायता करती है।
परिभाषाएँ:
लुईस कुने के शब्दों में- “प्राकृतिक प्रणाली जिसका कि चिकित्सा के रूप में उपयोग करते हैं तथा जो दूसरी पद्धतियों से गुण में बहुत अच्छी है, बिना औषधि या ऑपरेशन के उपचार की आधार की शिक्षा है।”
महात्मा गाँधी के शब्दों में- “प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से रोग मिट जाने के साथ ही रोगी के लिए ऐसी जीवन पद्धति का आरम्भ होता है जिसमे पुनः रोग के लिए कोई गुंजाईश ही नहीं रहती है।”
पं० श्री राम शर्मा आचार्य के शब्दों में- “प्राकृतिक चिकित्सा का अर्थ है प्राकृतिक पदार्थों विशेषतः प्रकृति के पाँच मूल तत्वों द्वारा स्वस्थ्य और रोग निवारक उपाय करना।”
हिपोक्रेटस के शब्दों में- “प्रकृति ही रोग मिटाती है, डॉक्टर नहीं। अतः यह कहा जा सकता है कि प्राकृतिक चिकित्सा रोगों को दबाती नहीं वरन उसे जड़ से ख़त्म करने में सक्षम है।”
विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O.) के अनुसार- “शरीर को मात्र रोगों से बचाकर रखना अथवा अशक्त नहीं होना ही स्वास्थ्य नहीं है अपितु स्वास्थ्य से अभिप्राय सम्पूर्ण भौतिक, मानसिक एवं सामाजिक अवस्था में स्वस्थ रहने से है।”
मानव स्वास्थ्य और गांधी के विचार तथा आधुनिक चिकित्सा की आलोचना: गांधी जी के अनुसार आमतौर पर वह व्यक्ति सुखी और स्वास्थ्य है जो अच्छा खाता है और आगे बढ़ता है तथा डॉक्टर के पास नहीं जाता है। उसे ही स्वास्थ्य व्यक्ति माना जाता है। लेकिन वे इस परिभाषा से पूर्ण सहमत नहीं थे। गांधी जी ने स्वास्थ्य के साथ मन और शरीर के एकीकरण पर जोड़ दिया। गांधी जी ने स्वास्थ्य को शरीर से जोड़ते हुए कहा कि, कोई भी व्यक्ति जिसका चरित्र शुद्ध नहीं है, उसे वास्तव में स्वस्थ्य नहीं कहा जा सकता है।’ गांधी जी ने 1909 ई० में एक पुस्तक लिखी जो ‘हिन्द स्वराज’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। उसमे उन्होंने उल्लेख किया था कि उन्हें चिकित्सा पेशे से बहुत प्यार था और वे डॉक्टर बनना चाहते थे। बाद में उनका नजरिया बदल गया। गांधी जी का विचार था कि राजनीतिक लाभ पाने के लिए अंग्रेज चिकित्सकों ने भारत में अपने पेशे का इस्तेमाल किया। गांधी जी ने आधुनिक चकित्सा पेशे की आलोचना करते हुए कहा कि आधुनिक डॉक्टरों ने भारत को कंगाल कर दिया है उनके अनुसार हकीम आधुनिक डॉक्टरों से बेहतर थे। उन्होंने आधुनिक अस्पतालों को पाप के प्रचारक के रूप में और यूरोपीय डॉक्टरों को दुनिया के सबसे बुरे डॉक्टरों के रूप में देखा। क्योंकि यूरोपीय डॉक्टर जीव हत्या (वैज्ञानिक अनुसंधान के उद्देश्य से जीवित जानवरों पर ओपरेशन करने का अभ्यास) करते थे। गांधी जी ने आधुनिक डॉक्टरों की आलोचना की क्योंकि उनके अनुसार, लोग डॉक्टर बनते हैं, लोगों की सेवा करने के लिए नहीं बल्कि सम्मान पाने और अमीर बनने के लिए।1
महात्मा गाँधी तथा प्राकृतिक चिकित्सा: हम सभी जानते हैं कि बच्चों का प्रथम पाठशाला उसका परिवार होता है। बालक सर्वप्रथम अपने परिवार के सदस्यों से ही सीखता है। गाँधी जी ने भी अपनी माता पुतली बाई से ही संयम, सेवा, मितव्यता, सहनशीलता, उपवास आदि सीखा था। उन्होंने अपनी बचपन की इन्हीं शिक्षाओं पर चलकर देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी अपनी इस विचारधारा को अपने जीवन से अलग नहीं होने दिया। गाँधी जी को
भारतीय परम्पराओं पर विश्वास था। उन्होंने भारतीय परम्पराओं के बारे में बहुत पढ़ा था। इसलिए मानव शरीर के बारे में उनकी समझ भारतीय चिकित्सा परंपरा के पारंपरिक विश्वास में निहित थी।
एक समय की बात है। गाँधी जी जब अफ्रीका में रहते थे। उस समय वे कब्ज से बहुत पीड़ित थे। कब्ज दूर करने के लिए उन्हें कोई न कोई चूर्ण या दवा लेनी ही पड़ती थी। वे कब्ज की इन दवाओं को खा-खाकर तंग आ चुके थे। उस समय उन्होंने अफ्रीका में ही रहने वाले एक अंग्रेज मित्र से सलाह लिया। उस अंग्रेज ने गाँधी जी को प्राकृतिक चिकित्सा के जनक लुई कूने की पुस्तक ‘द न्यू साइंस ऑफ हीलिंग’ और जुस्ट की पुस्तक ‘रिटर्न टू नेचर’ पढ़ने को दिया। इन दोनों पुस्तकों का अध्ययन करके गाँधी जी स्वास्थ्य सबंधी प्राकृतिक दलीलों से बहुत ही प्रभावित हुए। उन्होंने पुस्तक में वर्णित प्राकृतिक चिकित्सा की विधियाँ – ठंढ घर्षण, कटि स्नान, मेहन स्नान, और पेडू पर मिट्टी की पट्टी आदि छोटे-छोटे प्रयोग स्वयं पर करना शुरू कर दिए। कालांतर में गाँधी जी प्राकृतिक चिकित्सा के जानकार बन गए और उन्होंने इस चिकित्सा के प्रचार-प्रसार के महत्व पर जोर दिया। इस कारण 2 अक्तूबर को महात्मा गाँधी की जयंती के दिन प्राकृतिक चकित्सा दिवस भी मनाया जाता है। आयुष मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय प्राकृतिक संस्थान (एन आई एन) पुणे, पुरवा में ऑल इण्डिया ‘नेचर क्योर फाउन्डेसन ट्रस्ट’ का गढ़ था। इसकी स्थापना महात्मा गाँधी ने वर्ष 1945 में की थी। इस संस्थान में महात्मा गाँधी के द्वारा दिए गए उनके योगदान के प्रति कृतज्ञता की भावना से गाँधी जी की 150वीं जयंती मनाई गई।
गाँधी जी योग और प्राकृतिक चिकित्सा दोनों पर बहुत भरोसा करते थे। वे अपने आहार में भी इस बात का ध्यान रखते थे कि उनका आहार शुद्ध और सात्विक हो। इसके लिए वे बिना मिलावट वाले कुदरती स्वाद और गुणों को बरकरार रखने वाले आहार को पसंद करते थे। दक्षिण अफ्रीका में फिनिक्स फोम का प्रयोग उस पद्धति का ही नतीजा था जिसे आज ऑरगेनिक खेती का नाम दिया जा रहा है। वे भारत में प्राकृतिक चिकत्सा की शुरुआत करने वाले पहले शख्स थे। आज से सौ वर्ष पहले गाँधी जी ने भोजन के इन गुणों से प्रभावित होकर अपने अनुयायियों को खाने की सलाह दी थी जो आज के युग में छोटे किसानों की आजीविका के लिए बहुत ज़रूरी है। कंद, मूल, फल को श्रेष्ठ समझने वाले बापू का आहार आज आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरा है। अपने स्वास्थय को लेकर बापू से सलाह लेने वालों को वे इसे ही अपनाने के लिए सलाह देते थे।
गाँधी जी कहते थे कि शरीर में स्वयं ऐसे गुण हैं कि वह अपनी सफाई कर लेता है इसलिए जब हम बीमार पड़ते हैं तो शरीर अपनी स्वच्छता की क्रिया शुरू कर देता है। उनका कहना था कि मैं प्रकृति के उपचार और उपवास पर भरोसा करता हूँ। हाइड्रोपैथी और एनिमा प्राकृतिक उपचार है इसलिए वे हमेशा फलों के जूस को प्राथमिकता देते थे। विशेषकर संतरे के जूस को।
गाँधी जी के अनुसार- “पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश मानव शरीर को उचित मात्रा में इन सभी तत्वों की आवश्यकता होती है यदि इसमें से कोई भी तत्व इसके नियत अनुपात से कम हो जाता है तो वह बिमारी का कारण बन जाता है। गाँधी जी ने कहा था कि पेट मानव शरीर का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह एक मिनट के लिए भी बंद हो जाएगा तो पूरा शरीर गिर जाएगा उन्होंने शरीर में पेट, हृदय, फेफड़ा, रक्त और नाड़ी के कार्यों को समझाया।2
गाँधी जी ने इस बात पर अधिक जोर दिया था कि हमें अपने शरीर के बारे में पर्याप्त जानकारी होनी चाहिए। उनके अनुसार, मानव अपनी गतिविधियों को दस इन्द्रियों की सहायता प्राप्त करके, मन के द्वारा अपने दिनचर्या को नियंत्रित करता है। उन्होंने इन्द्रियों को दो भागों में विभाजित किया- पहले पाँच इंद्रियाँ हैं – हाथ, मुँह, दांत गुदा और गुप्तांग और दूसरे पाँच इंद्रियाँ हैं- नाक, जीभ, आँख, कान और त्वचा। उन्होंने मन को शरीर के मुख्य कार्य-अंग के रूप में स्वीकार किया। उन्होंने हवा, पानी और भोजन के महत्व के बारे में बताया।
गाँधी जी ने शुद्ध हवा को ग्रहण करने पर जोर दिया ताकि शरीर में उचित ऑक्सीजन पहुँच सके। उन्होंने प्रतिदिन पाँच लीटर पानी पिने का सुझाव दिया। भोजन को उन्होंने तीन श्रेणियों में शाकाहारी, मांसाहारी और मिश्रित में विभाजित किया। उन्होंने नशा करने से मना किया क्योंकि नशा हमारे दिमाग की असंतुलित कर देता है।3
प्रकृति मानव-जीवन के लिए वरदान है। इसके सभी तत्व किसी न किसी रूप में प्राणी-जीवन के लिए परमोपयोगी हैं। प्रकृति के साथ में रहने के कारण वैदिक ऋषि प्रकृति के सभी तत्वों में विद्यमान गुण-अवगुण शक्तियों से भलीभांति परिचित थे। इसलिए वे विभिन्न प्रकार के रोगों का उपचार वनस्पति औषधियों से करते थे। अथर्ववेद का साक्षात संबंध आयुर्वेद से होने के कारण ऋषियों ने भी रोगादि के निवारण के लिए अनेक प्रकार की चिकित्सा प्रणाली को अपनाया। उनमें से प्राकृतिक चकित्सा सर्वाधिक सुलभ थी। ‘अथर्ववेद’ में उपलब्ध साक्ष्यों से यह ज्ञात होता है कि उस समय के जन इस चिकित्सा पद्धति के अंतर्गत जल, सूर्य, रश्मि, वायु, प्राणायाम, मिट्टी और यज्ञादि द्वारा मानव-जीवन के उपचार को सुखमय बनाते थे।
वायु चिकित्सा: मानव जीवन का आधार प्राण-वायु है। जीवन के सभी क्रियाएँ एवं शरीर में शक्ति स्फूर्ति उत्साह आदि प्राण पर ही निर्भर करता है। आकाश, पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि इन पाँचों तत्वों में वायु सबसे अधिक आवश्यक तत्व है। जल जीवन है, तो वायु प्राणियों के प्राण हैं। शरीर के विभिन्न अंगों में विचरण करने और विभिन्न प्रकार के कार्य संपादित करने के आधार पर वायु के पाँच प्रकार को प्रधान माने गए हैं – प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान। इन पाँचों प्रधान प्रकारों के अतिरिक्त वेद व्यास जी ने शिव और अग्निपुराण में शरीर संचालन के लिए पाँच और भेदों को स्पष्ट किया है वे हैं – नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, और धनंजय। ये दस प्रकार के वायु शरीर के विभिन्न अंगों को ऊर्जा एवं गतिशीलता प्रदान करती है तथा उन्हें दोषमुक्त करती है। ‘प्राण’ और ‘अपान’ वायु के निरोध द्वारा रोगों के उपचार पर बल देती है।4
जल चिकित्सा: (Hydropahty) ऋग्वेद और अथर्ववेद में जल चिकित्सा को महत्वपूर्ण चिकित्सा प्रणाली के रूप में देखा जाता था। जल चिकत्सा अनेक रोगों की चिकित्सा करने की एक निश्चित पद्धति है। इसके अंतर्गत उष्ण तौलिया से स्वेदन, कटि स्नान, फुट स्नान परिषेक, वाष्प स्नान, कुंजल, नेति आदि का प्रयोग वात जन्य रोग, उदर रोग, और अल्पपित आदि रोगों में किया जाता है। जल जीवन के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना सांस लेने के लिए वायु। हमारे शरीर में 70 प्रतिशत भाग जल है। शरीर को रोग मुक्त रखने के लिए जल अपने आप में एक महत्वपूर्ण औषधि है। जल के द्वारा कई रोगों को दूर किया जा सकता है।
सेबस्टियन नीप: सेबस्टियन नीप ने जल चिकित्सा पर अनेकों प्रयोग और आविष्कार किये। इन्होंने जल चिकित्सा का प्रयोग कर बड़ी सफलता प्राप्त की। इन्होने पैंतालिस वर्षों तक एक स्वस्थ्य गृह का संचालन किया तथा उसके द्वारा अनेकों लोगों को सफलता पूर्वक प्रशिक्षित किया। इनके नाम से जर्मनी में एक नील स्टोर्स है जहाँ जड़ी-बूटियों, तेल, साबुन तथा स्नान सम्बंधी आवश्यक वस्तुएँ तथा स्वास्थ्यप्रद प्राकृतिक भोजनों का प्रदर्शन किया जाता है। इन्होंने सन् 1857 ई० में जल चिकित्सा पर “My Water Cure” नामक पुस्तक लिखी जिसका हिंदी रूपान्तर ‘जल चिकित्सा’ के नाम से आरोग्य मंदिर, गोरखपुर से प्रकाशित हुआ।
सूर्य चिकित्सा: सूर्य के प्रकाश में सात रंगों का समावेश होता है। इन सात रंगों के द्वारा चिकित्सा की जाती है। सूर्य किरण चिकित्सा के अनुसार अलग-अलग रंगों के अलग-अलग गुण होते हैं। लालरंग उत्तेजना और निलारंग शक्ति पैदा करता है। इन रंगों का लाभ लेने के लिए रंगीन बोतलों में आठ-नौ घंटे तक सूर्य के रौशनी में पानी रखने के बाद सेवन किया जाता है। हमारा शरीर रासायनिक तत्वों से बना है और रंग एक रासायनिक मिश्रण है। मनुष्य जितना अधिक सूर्य के संपर्क में रहेगा उतना ही अधिक स्वस्थ रहेगा।
अर्नाल्ड रिक्की: अर्नाल्ड रिक्की एक व्यापारी थे। वे व्यापारी होते हुए भी प्राकृतिक चिकित्सा पर विश्वास करते थे। वे इस चिकित्सा से प्रभावित होकर व्यापार छोड़कर प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में आ गए। उन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में अध्ययन से वायु चिकित्सा और धुप चिकित्सा को जोड़ दिया। बाद में इन्होंने सन् 1848 ई० में आस्ट्रिया में धुप और वायु का एक सेनेटोरियम स्थापित किया जो संसार का प्रथम प्राकृतिक चिकित्सा भवन बना।
मिट्टी चिकित्सा: प्राकृतिक चिकित्सा में मिट्टी का प्रयोग कई रोगों के निवारण के लिए किया जाता हैं। नई वैज्ञानिक शोध से भी यह प्रमाणित हो चूका है कि मिट्टी चिकित्सा से शरीर तरो ताजा और उर्जावान हो जाता है। चर्म रोग और घावों को ठीक करने में मिट्टी चिकित्सा अधिक उपयोगी साबित हुई है। मृदा स्नान (मड बाथ) रोगों से मुक्ति का अच्छा उपाय है। मिट्टी कैसी भी हो जिस क्षेत्र में जैसी मिट्टी हो वहि उपयुक्त है। मिट्टी जमीन से 2-3 फुट नीचे की होनी चाहिए एक बार प्रयोग किया हुए मिट्टी का दूबारा प्रयोग नहीं करना चाहिए। मिट्टी में ताप संतुलन के गुण होते है जिसके कारण उसमे सर्दी और गर्मी दोनों को सोखने का गुण होता है मिट्टी गर्मी को सोखकर ठण्डक और ठण्डक को सोखकर गर्मी प्रदान करता है जो चिकित्सा के लिए बहुत ही उपयोगी होता है।
एडोल्फ रिक्ली जर्मनी के रहने वाले थे। इनके द्वारा मिट्टी चिकित्सा का विकाश तथा प्रयोग करने के बाद इसकी उपयोगिता और महत्ता को माना जाने लगा। इन्होंने मिट्टी के अनेकों प्रयोग कर रोगों की चिकित्सा की। इनके द्वारा ही मालिस की क्रिया का जन्म भी हुआ। इन्होंने महत्वपूर्ण पुस्तक “Return to nature” लिखी जो आज संसार में सुप्रसिद्ध है।
वस्ति (enima): यह वह क्रिया है, इसमें गुदामार्ग, मूत्रमार्ग, अपत्यमार्ग, व्रण मुख आदि से औषधि युक्त विभिन्न द्रव पदार्थो को शरीर में प्रवेश कराया जाता है। इसके दो प्रकार हैं वाह्य वस्ति और आतंरिक वस्ति।
उपवास: गाँधी जी ने अपने जीवन में उपवास को भी बहुत महत्व दिया था। उपवास शरीर को शुद्ध करने की एक विधि है। उपवास रखने से शरीर की प्रतिरक्षा तंत्र मजबूत होती है। इससे पाचन तंत्र पर साकारात्मक प्रभाव पड़ता है। डॉ अग्रवाल के शब्दों में- उपवास शरीर के सिस्टम को साफ़ करता है। स्वास्थ्य बेहतर, अच्छी नींद, पाचन तंत्र को आराम मिलने से शारीरिक कार्य प्रणालियाँ संतुलित हो जाती हैं जिससे मानसिक स्वास्थ्य में सुधार होता है।”
आर्नाल्ड एहरेट: डॉ अर्नाल्ड भी प्रसिद्ध चिकित्सको में से है। ये जर्मनी के रहने वाले थे परन्तु इनका कार्यक्षेत्र अमेरिका था। इन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा के फलाहार और उपवास की पद्धति पर अधिक जोर दिया तथा बड़े-बड़े रोगों को केवल आहार तथा उपवास के द्वारा भगाते थे। इन्होंने कई पुस्तकें लिखी जिनमे से इनकी दो पुस्तकें अधिक प्रसिद्ध है- “Rational Fasting” और “Mucusless Diet Healing system।”
आधुनिक समाज और समय में प्राकृतिक चिकित्सा की प्रासंगिकता:
आधुनिक समय में चिकित्सा विज्ञान के विकास के साथ-साथ नयी-नयी बीमारियाँ भी उत्पन्न हो रही हैं। यदि इन बीमारियों का अवलोकन किया जाए तो हमें यह पता चलता है कि ये बीमारियाँ हमारे आज के समय में दिनचर्या में हो रहे परिवर्तनों के कारण बढ़ रहा है। टाइम्स ऑफ इण्डिया जनवरी 20, 2018 के अनुसार भारत प्रतिवर्ष अपनी कुल घरेलू उत्पादन का एक प्रतिशत स्वास्थय पर खर्चा करता है। भारत एक कृषि प्रधान देश है। आज भी यहाँ कुल जनसंख्याँ का एक बड़ा भाग गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजारते हैं। इस अवस्था में लोगों के लिए उचित स्वास्थ्य सुविधाओं को प्राप्त करना बहुत ही कठिन होता है। इस अवस्था में आज भी प्राकृतिक चिकित्सा बहुत सस्ती और विश्वास जनक है। इस अवस्था में यदि प्राकृतिक चिकित्सा को बढ़ावा दिया जाए तो अधिक से अधिक फायदा मिलेगा और लोगों का विश्वास भी बढ़ेगा।
गाँधी जी ने भी प्राकृतिक चिकित्सा का इसीलिए समर्थन किया था क्योंकि यह चिकित्सा व्यवस्था प्राकृतिक संसाधनों के द्वारा किया जता है। आज के समय में पूर्ण रूप से स्वस्थ्य लोगों की संख्या बहुत ही कम हो गई है। यह सब जीवन चर्या में हो रहे कई तरह के बदलाव से जुड़ा है। जैसे- खान-पान, रहन-सहन, देर से सोना, देर से उठना विभिन्न प्रकार के मानसिक दबाव के कारण आदि। इसप्रकार मानव कई प्रकार के नए रोगों को निमंत्रण दे रहा है। आज के समय में शारीरिक रोगों से अधिक मानसिक रोगों ने मनुष्य को प्रभावित किया है, जिसका परिणाम है मनुष्यों में घबराहट, भय, शोक, चिंता आदि फलस्वरूप मनुष्य अपने जीवन को जी पाने में असमर्थ महसूस कर रहा है। मानसिक रोगों का एक महत्वपूर्ण कारण कहीं न कहीं शारीरिक रोग भी है। हमेशा से यह कहा जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मष्तिष्क का वाश होता है। अतः शरीर को रोग मुक्त रखना अति आवश्यक है। प्राचीन समय में हमारे पूर्वजों और ऋषि-मुनियों ने स्वयं संयमित जीवन जीते हुए प्राकृतिक नियमों के अनुसार जीवन जीने की प्रेरणा दी है। वास्तव में यदि मनुष्य प्राकृतिक नियमों से अपना जीवन जीना प्रारंभ कर दे तो उपचार की आवश्यकता बहुत कम या नहीं के बराबर पड़ेगा।5
भारत में प्राकृतिक चिकित्सा आधुनिक काल में लुई कुने की प्रसिद्ध पुस्तक ‘New science of healing’ के भारतीय भाषा में अनुवाद के बाद आरम्भ हुआ। इस पुस्तक का कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। जिसके फलस्वरूप कई लोग कुने की चिकित्सा विधियों में रूचि लेने लगे। गांधी जी प्राकृतिक चिकित्सा के अनुयायी थे। वे एडोल्फ जस्ट की प्रसिद्ध पुस्तक ‘Return to nature’ से बहुत प्रभावित थे। गांधी जी स्वयं पर प्राकृतिक चिकित्सा के प्रयोग के साथ अपने आश्रमवासियों को भी इसकी जानकारी देते थे। गांधी जी अच्छे स्वास्थय के लिए भारत में प्रथम प्राकृतिक चिकित्सालय की स्थापना ‘उरुली काँचन’ नामक स्थान पर किए जो अभी तक निर्वाध गति से चल रहा है। उन्होंने भारत में प्राकृतिक चिकित्सा के एक नए दौर का सूत्रपात किया।
गांधी जी ने प्राकृतिक चिकित्सा को राम नाम के साथ जोड़ा इनके कारण कई लोग इस पद्धति के साथ जुड़े और इसके प्रचार-प्रसार में अपना जीवन लगा दिया। इनमे से कृष्ण स्वरुप क्षत्रिय, विनोबा भावे, डॉ० लक्ष्मी नारायण चौधरी, जानकी शरण वर्मा, डॉ० कुल्रंजन मुखर्जी, डॉ ओंकार नाथ आदि थे। इन सभी प्राकृतिक चिकित्सकों ने प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
गीता में भी श्रीकृष्ण ने एक स्थान पर कहा है- “योग: कर्मसु कौशलम्” अथार्त योग से कर्मों में कुशलता आती है। इसप्रकार योग करके स्वस्थ मन और स्वस्थ तन रखते हुए अपने कार्य कौशल में प्रवीणता लाई जा सकती है।
निष्कर्ष: आधुनिक चिकित्सा के क्षेत्र में कई प्रकार की चिकित्साओं का उपयोग किया जाता है जैसे- जल चिकित्सा, कीचड़ चिकित्सा, ताप चिकित्सा, संगीत चिकित्सा, सूर्य चिकित्सा, आदि। कई विदेशी कम्पनियाँ भारत में इन उपचारों के नाम पर अपना व्यवसाय कर रही हैं। अगर हम प्राचीन भारतीय चिकित्सा के इतिहास को देखें, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उपचार के इन तरीकों को प्राचीन समय में जीवन-शैली के रूप में इस्तेमाल किया गया था। प्राचीन भारतीय आयुर्वेदिक और प्राकृतिक चिकित्सक जैसे चरक, सुश्रुत और धन्वंतरी आदि ने लोगों के उपचार के लिए इन प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग किया। उन्होंने कभी भी इन साधनों को व्यवसाय का विषय नहीं बनाया।
गाँधी जी ने आधुनिक काल में प्राकृतिक चिकित्सा के प्रयोग को नई दिशा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उन्होंने अपने विभिन्न लेखों और भाषणों के माध्यम से प्राकृतिक चिकित्सा पर अपना दृष्टिकोण समझाया है। उन्होंने केवल प्राकृतिक चिकित्सा पर लिखा ही नहीं बल्कि अपने आश्रम में इसका प्रयोग भी किया। उन्होंने शरीर और मन दोनों को समान महत्व दिया। इससे उनकी आत्मा को बल मिला। गाँधी जी ने रामनाम को सबसे सत्य और उच्च प्राकृतिक उपचार के रूप में पाया। रामनाम से उनका किसी सम्प्रदाय को महत्वपूर्ण और दूसरे सम्प्रदाय को हीन देखने का विचार नहीं था। गाँधी जी के लिए तो सब भगवान् एक सामान हैं। गाँधी जे ने रामायण को भगवान् राम से अधिक प्रभावी बनाया।6
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