माथे की लकीरों को देखते ही, उसने कहा!
ओह! तुम्हारे तो भाग्य ही नही है
कैसे रहोगी? कैसे जियोगी?
खैर!
दुखी होकर भी हमेशा, तुम मुस्कुराती रहोगी
उसे क्या पता, मैं क्या हूँ?
मैं भी मानव हूँ
माथे के लकीरों को,
आत्मशक्ति से
बदल सकती हूँ मैं,
मैं जानती थी, अपने आपको
मन में दर्द था, आत्मशक्ति भी
जो खुद में खुद को देखती थी
हिम्मत थी, मुझमे
जो हारने नही देती थी
कई वर्षो बाद, फिर किसी ने वही शब्द दुहराया
किन्तु ये लकीरें माथे की नहीं,
हाथ की थी, उसने कहा
कुछ दुखी और चिंतित मन से
तुम्हारे तो भाग्य के रेखा ही नहीं है
शब्द वही थे, कानों में गूँजते रहे
मैं कर्मवती रही, सोचती रही
भाग्य तो उनके भी है, जिनके हाथ नहीं है
तो मेरे भाग्य क्यों नहीं?
मन को विश्वास देती रही
गीता के शब्द
‘कर्म प्रधान विश्व करी राखा’
स्मरण करती रही, कर्म करती रही,
आगे बढ़ती रही
वे शब्द भी कानों में गूँजते रहे,
जो माथे और हस्त के लकीरों में थे
चाहे भाग्य की लकीरें हों या नहीं हों
हमारे कर्म ही भाग्य की लकीरें हैं
जो सबकुछ बना सकती हैं।।
Very nice
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धन्यवाद कवल कुमार जी
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