धर्मवीर भारती कृत ‘अँधा युग’ (नाटक)

धर्मवीर भारती कृत ‘अँधा युग’ (नाटक) का सम्पूर्ण अध्ययन और समीक्षा

धर्मवीर भारती का जीवन परिचय: (जन्म 25 दिसंबर 1926 – 04 सितम्बर 1997)

धर्मवीर भारती का जन्म 25 दिसंबर 1926 को को इलाहबाद के अतरसुइया मुहल्ले में एक कायस्त परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री चिरंजीव लाल वर्मा और माँ का नाम श्री चंदा देवी था। वे आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखक, कवि, नाटककार और सामाजिक विचारक थे। इनके व्यक्तित्व और प्रारम्भिक रचनाओं पर पण्डित माखनलाल चतुर्वेदी के उच्छल और मानसिक स्वच्छंद काव्य संस्कारों का काफ़ी प्रभाव था। इनका पहला काव्य-संग्रह ‘ठंडा लोहा’ और पहली उपन्यास ‘गुनाहों का देवता’ अत्यंत लोकप्रिय हुआ। इसके अतिरिक्त उनका एक और कविता-संग्रह ‘सात गीत वर्ष’ भी प्रकाशित हुआ। लम्बी कविता के क्षेत्र में राधा के चरित्र को लेकर ‘कनुप्रिया’ नामक उनकी कविता अत्यंत प्रसिद्ध हुई। इन्होंने प्रयाग विश्वविधालय में अध्यापन के दौरान ‘हिंदी साहित्य कोश’ के सम्पादन में सहयोग दिया। इन्होंने ‘निकष’ पत्रिका निकाली तथा ‘आलोचना’ पत्रिका का सम्पादन भी किया। उसके बाद वे प्रख्यात साप्ताहिक पत्रिका ‘धर्मयुग’  के संपादक पद को संभालने लगे।

कृतियाँ                           

काव्य रचनाएँ: ठंढा लोहा (1946), अंधा युग (1954), कनुप्रिया (1959), सात गीत (1996),  सपना अभी भी (1993), आद्यन्त (1999) यह मृत्यु के बाद प्रकाशित हुई थी।

कहानी संग्रह: मुर्दों का गाँव (1946), स्वर्ग और पृथ्वी (1949), चाँद और टूटे हुए लोग (1955), बंद गली का आखरी मकान (1969), साँस की कलम से (2000), समस्त कहानियाँ एक साथ

उपन्यास: गुनाहों का देवता (1949), सूरज का सातवा घोड़ा (1952), पहला खत (1991) ग्यारह सपनों का देश (1960) प्रारंभ व समापन।

निबंध: ठेले पर हिमालय (1958), पश्यंती (1969), कहानी अनकही (1970), कुछ चहरे कुछ चिंतन(1995), शब्दिता (1997), साहित्य विचार और स्मृति (2003)

एकांकी व नाटक: नदी प्यासी थी, नीली झील, आवाज़ का नीलाम आदि।

पद्य (गीति) नाटक: अंधा युग (1954) में प्रकाशित हुआ था। सृष्टि का आखरी आदमी (1968)

संस्मरण: कुछ चहरे कुछ चिंतन 1995

आलोचना: प्रगतिवाद, एक समीक्षा, मानव मूल्य और साहित्य।

मुख्य बिन्दु :

  • धर्मवीर भारती का काव्य नाटक अंधा युग भारतीय रंग मंच का एक महत्वपूर्ण नाटक है।
  • धर्मवीर भारती ‘द्वितीय सप्तक’ के कवि थे।
  • ‘अँधा युग’ नाटक का रचनाकाल 1954 ई० है। यह पाँच अंकों का गीतिनाट्य है।
  • अंधा युग का पहली बार प्रसारण ‘आकाशवाणी’ पर हुआ था।
  • यह नाटक ‘वक्ता’ और ‘श्रोता’ की कथा शैली में लिखा गया है।
  • इस नाटक में सशक्त ‘बिम्ब’ योजना और मुक्त ‘छंदों’ की प्रधानता है।  
  • जयशंकर प्रसाद जी का ‘करुणालय’, धर्मवीर भारती’ जी का ‘अंधायुग’ और ‘नीली झील’ ये लोकप्रिय गीतिनाट्य है।
  • इस नाटक की कथावस्तु महाभारत से ली गई है। महाभारत में 18 पर्व और 100 उप-पर्व है। इसमें पहला पर्व ‘आदिपर्व’ और 18वाँ पर्व ‘स्वर्गारोहणपर्व’ है।   
  • इस नाटक में महाभारत के अट्ठारहवें दिन की संध्या से लेकर प्रभास-तीर्थ में कृष्ण की मृत्यु के क्षण तक का वर्णन है।

‘अँधा युग’ नाटक का उद्देश्य:

नाटक में धर्मवीर भारती जी ने पौराणिक कथा के माध्यम से आधुनिक भाव बोध का रूपान्तरण किया है। आज के विघटित मानव मूल्यों की समस्या को नाटक में प्रमुखता से स्थान दिया है। नाटककार ने युद्ध की समस्या और उसके विध्वंशकारी परिणाम, भाई-भतीजावाद, धर्म-अधर्म आदर्श-यथार्थ आदि जीवन सत्यों को मुखरित किया है।

नाटक के आरम्भ में ही धर्मवीर भारती जी ने स्वयं कहा है: 

युध्दोंपरांत,

यह अँधा युग अवतरित हुआ,

जिसमे स्थितियाँ, मनोवृतियाँ, आत्माएँ सब विकृत हैं

है एक बहुत पतली डोरी मर्यादा की

पर वह भी उलझी है दोनों ही पक्षों में

सिर्फ कृष्ण में साहस है सुलझाने का

वह है भविष्य का रक्षक, वह है अनासक्त

पर शेष अधिकतर हैं अंधे

पथभ्रष्ट, आत्म्हारा, विगलित

अपने अंदर की अन्धगुफाओं के वासी

यह कथा उन्ही आधों की है;

या कथा ज्योति की है अंधों के माध्यम से

डॉ० नागेंद्र जी ने ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ में लिखा है- “इस कथा को चुनने का मूल प्रयोजन युद्ध जन्य वर्तमानकालीनता को प्रासंगिकता देना है। किंतु इसकी उपलब्धि केवल वर्तमानता के कारण नहीं है, बल्कि जब-जब युद्ध होगा ऐसी ही अवसादपूर्ण त्रासद स्थितियाँ उत्पन्न होंगी और विघटित मूल्यों के सन्दर्भ में मनुष्य को नए मूल्यों की तलाश करनी होगी।”

प्रो० वासुदेव सिंह ने ‘हिन्दी साहित्य का समीक्षात्मक इतिहास’ में लिखा है- “लेखक ने महाभारत के कथानक के आधार पर युद्ध से उत्पन्न समस्याओं का चित्रण किया है।”

डॉ० नगेंद्र के शब्दों में- “अँधा युग एक सशक्त आधुनिक त्रासदी है; और प्रभु के मृत्यु के बाद तो त्रासद परिवेश और गहरा हो जाता है। वस्तुतः यह तनावों का नाटक है, संघर्ष का नहीं; और नाटकीयता तनावों में ही होती है।”         

‘अँधा युग’ नाटक की कथावस्तु पाँच भागों में विभाजित है और रचित कृति आठ भागों में रचित  है जिसके बीच में अंतराल है।

अंकों का विवरण और स्थान

इस नाटक में पांच अंक और आठ भाग हैं। स्थापना, अंतराल और समापन ये तीनों अंक नहीं है।

1. स्थापना (अंधा युग)

2. प्रथम अंक (कौरवी नगरी)

3. दूसरा अंक (पशु का उदय)

4. तीसरा अंक (अश्वस्थामा का अर्धसत्य)

5. अंतराल (पंख, पहिया और पट्टियाँ )

6. चौथा अंक ( गांधारी का शाप)

7. पंचम अंक (विजय एक क्रमिक आत्महत्या)

8. समापन (प्रभु की मृत्यु)

नाटक के पात्र: नाटक में कुल सोलह (16) पात्र हैं। जिसमे पन्द्रह पुरुष पात्र और एक स्त्री पात्र है।

अश्वस्थामा: गुरु द्रोणाचार्य का पुत्र, दुर्योधन का मित्र, कृष्ण से शत्रुता का संबंध।

कृष्ण: पौराणिक कथा से भिन्न मानवीय रूप में चित्रण, नाटक का केंद्रीय नायक।

गांधारी: धृतराष्ट्र की पत्नी और कौरवों की माँ

धृतराष्ट्र: जन्म के अंधे हैं। पुत्र मोह के कारण सत्ता को अविवेकी पुत्र को सौपना चाहते हैं। एक पुत्र मोह में अंधा पिता।

कृतवर्मा: कृतवर्मा युद्ध के बाद भी जीवित रहते हैं। कौरवों के तरफ से लड़ने वाला एक महारथी।

संजय: व्यास द्वारा दिव्यदृष्टि प्राप्त करके महाभारत युद्ध का आँखों देखा वृतांत धृतराष्ट्र को सुनाते हैं।

वृद्ध याचक: (ज्योतिष) काल्पनिक पात्र है कौरव की विजय की भविष्यवाणी करना कृष्ण के आने के कारण भविष्यवाणी झूठा हो जाना और अश्वस्थामा द्वारा मृत्यु प्राप्त होना।

प्रहरी-1: काल्पनिका पात्र

प्रहरी-2 काल्पनिक पात्र

व्यास: मुनिवर जिन्होंने संजय को दिव्यदृष्टि दिया था।

विदुर: गांधीवादी पात्र, कृष्ण भक्त, कुशल राजनीतिज्ञ।

युधिष्ठिर: पाण्डवों में सबसे बड़े भ्राता धर्मराज के नाम से जाना जाता है।  

कृपाचार्य: राजगुरु

युयुत्सु: धृतराष्ट्र का अंतिम (101) पुत्र जो पांडाओं के तरफ से युद्ध लड़ता है और वह युद्ध में बच जाता है।

गूंगा भिखारी: ( एक घायल सिपाही, जो युद्ध में बच जाता है और गूंगा हो जाता है)

बलराम: कृष्ण के बड़े भाई जो कौरव के तरफ से युद्ध करते हैं।

अन्धा युग का विषय-वस्तु:

‘अँधा युग’ नाटक में धर्मवीर भारती ने पौराणिक कथा के माध्यम से आधुनिक भावबोध को स्थापित किया है।

इस नाटक में अमर्यादित और अनैतिक आचरण का विरोध दिखाई देता है। इस संबंध में विदुर ने एक जगह कहा है। विदूर- “मर्यादा मत तोड़ों तोड़ी हुई मर्यादा कुचले हुए अजगर सी गुन्जालिका में कौरव-वंश को लपेट कर सुखी लकड़ी-सा तोड़ डालेगी।”

इस नाटक में कर्मयोग का संदेश दिखाई देता है। एक वृद्ध याचक कहता है- “जब कोई भी मनुष्य अनासक्त होकर चुनौती देता है इतिहास को उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है।”

इस नाटक में युद्ध की विभीषिका का चित्रण दिखाई देता है। इसमें युधिष्ठिर के नजर में विजय तिल-तिल कर फलीभूत होने वाला आत्मघात है। युधिष्ठिर कहते हैं- “विजय क्या है? एक लम्बा और धीमा और तिल-तिल कर फलीभूत होने वाला आत्मघात है।”

इस नाटक में युद्ध के उपरांत होने वाले विनाशकारी प्रभाव का चित्रण किया गया है। कवि ने विनाश के माध्यम से सृजन को रेखांकित किया है, वे कहते हैं,नाटककार- “यह कथा उन्हीं अंधों की है, या काठ ज्योति की अंधों के माध्यम से।”

इस नाटक में मानवीय त्रासदी का वर्णन है। इस नाटक में कहा गया है – “उस दिन जो अँधा युग अवतरित हुआ जग पर बीतता नहीं रह-रहकर दोहराता है हर क्षण होती है प्रभु की मृत्यु कहीं न कहीं हर क्षण अंधियारा गहरा होता है।” 

इस नाटक में कर्म और अस्तित्व के सिद्धांत का समावेश भी दिखाया गया है। इस नाटक में संजय निष्क्रियता का अनुभव करते हुए कहते हैं – “मैं तो निष्क्रिय होता जाता हूँ क्रमशः अर्थ अपने अस्तित्व का।”

प्रथम अंक- कौरव नगरी

इस अंक के आरम्भ में कथा गायन के रूप में महाभारत के युद्ध में कौरव और पाण्डव के द्वारा किये गए अमर्यादित आचरण और व्यवहार का उल्लेख किया गया है। युद्ध के अंतिम दिन और संध्या का समय है। दो प्रहरी कौरव के महलों में घूमते हुए राज्य-नाश और कुल नाश का बोध करते हुए बातचीत कर रहे हैं। अचानक इन्हें कुरुक्षेत्र की दिशा में असंख्य उड़ते हुए गिद्धों का समूह दिखाई देता है, जो अपशगुन सूचक का प्रतीत होता है। उसी समय विदूर प्रवेश करते हैं। वे घटनाओं की जानकारी के लिए संजय की प्रतीक्षा करते हैं। विदूर अन्तःपुर में गांधारी और धृतराष्ट्र के पास पहुँचकर कौरवों के द्वारा किये गए अमर्यादित और अनैतिक आचरण के लिए धृतराष्ट्र का ध्यान आकृष्ट करते हैं। तब धृतराष्ट्र पहली बार यह स्वीकार करते हैं कि जन्मांध होने के कारण वे मर्यादाओं का पालन करने में असफल रहे हैं। विदूर उन्हें समझाते हुए कहते हैं कि उनका ज्ञान व्यक्तिनिष्ठ नहीं होकर भगवान कृष्ण के प्रति अर्पित होता तो किसी भी प्रकार की आशंका नहीं रहती। यह सब सुनकर गांधारी आवेश में आकर कृष्ण को धोखेबाज और मर्यादा का हत्यारा घोषित करती है। इसी बीच जयकार करता हुआ वृद्ध याचक प्रवेश करता है। यह वही ज्योतिषी है, जिसने बहुत पहले कौरवों के विजयी होने की भविष्यवाणी की थी। भविष्यवाणी के गलत होने का कारण वह कृष्ण को मानता है। जिन्होंने अपने अनाशक्त कर्म से नक्षत्रों की गति को मोड़ दिया। इस अंक के अंत में दोनों प्रहरी के कथागायन में कौरव नगरी के सूनेपन को दर्शाया गया है।

दूसरा अंक- पशु का उदय

इस अंक में संजय कृतवर्मा को अर्जुन द्वारा किये गए कौरवों के विनाश का समाचार सुनाता है। संजय कृतवर्मा को भीम के साथ हुए गदा युद्ध में दुर्योधन के घायल होने की सूचना देता है। उसी समय टूटे हुए धनुष को लेकर अश्वस्थामा प्रवेश करता है। वह पाण्डवों द्वारा छलपूर्वक किए गए पिता द्रोणाचार्य के वध से विक्षुप्त होने के कारण पाण्डवों के वध की प्रतिज्ञा करता है। तभी वन मार्ग से आता हुआ संजय दिखाई पड़ता है। और वह उसका गला दबोच देता है। तभी कृपाचार्य और कृतवर्मा लपककर संजय को अश्वस्थामा से मुक्त कराते है। इसी समय अश्वस्थामा को कौरव नगरी से लौटता हुआ भविष्य वक्ता याचक दिखाई पड़ता है, जिसका अश्वस्थामा तत्काल वध कर देता है। अश्वस्थामा और कृतवर्मा को सोने का आदेश देकर कृपाचार्य स्वयं पहरा देने लगते हैं।

तीसरा अंक- अश्वस्थामा का अर्धसत्य

     ‘कथागायन’ के माध्यम से युद्धक्षेत्र से लौटती हुई कौरव दल का उल्लेख किया जाता है, जिसमे केवल बूढ़े घायल और बौने ही शेष रह गए थे। हारी हुई घायल सेना के साथ आये युयुत्सु को देखकर नगरवासी भयभीत हो जाते हैं। युयुत्सु पाण्डव-पक्ष की ओर से लड़ने के कारण आत्मग्लानी से ग्रस्त दिखाई देता है। तभी गांधारी युयुत्सु पर कठोर व्यंग्य करती है। उसी समय  संजय गदा युद्ध में दुर्योधन की पराजय का समाचार लाते हैं। अश्वस्थामा कृपाचार्य को बताता है कि भीम ने गदा युद्ध में अधर्मपूर्वक दुर्योधन की जंघा पर प्रहारकिया जो गदा युद्ध के नियमों के विरुद्ध है। वह आवेश में आकर पाण्डवों के वध की प्रतिज्ञा करता है। कृपाचार्य अश्वस्थामा को कौरव दल के सेनापति पद पर नियुक्त करते हैं। कृतवर्मा और कृपाचार्य को सोने का आदेश देकर सेनापति अश्वस्थामा स्वयं पहरा देने लगता है। तभी रात्रि के सन्नाटे में उसे वृक्ष पर एक उल्लू दिखाई पड़ता है जो सोये हुए कौवे पर आक्रमण करता है तथा उसका वध करके नाचने लगता है। इस प्रसंग से प्रेरित होकर अश्वस्थामा पाण्डवोंके वध की योजना मन में लेकर पाण्डव शिविर की ओर प्रस्थान करता है।

अंतराल: पंख, पहिये और पट्टियाँ

नाटक में तीसरे अंक के बाद अंतराल है ‘पंख, पहिये और पट्टियाँ’ यहाँ अस्वस्थामा के द्वारा मारे गए वृद्ध याचक की प्रेतात्मा प्रवेश करती है। युयुत्सु, संजय, विदूर आदि पात्र प्रेतात्मा के पीछे खड़े होकर अपनी-अपनी आतंरिक असंगति से उत्पन्न पीड़ा को व्यक्त करने लगते हैं। पाण्डव शिविर के द्वार पर एक विशालकाय दानव पुरुष के रूप में महादेव शिव अश्वस्थामा को शिविर में प्रवेश करने से रोकते दिखलाई देते हैं।

चौथा अंक- गांधारी का शाप

      इस अंक में आशुतोष महादेव अश्वस्थामा से प्रसन्न होकर उसे पाण्डव शिविर में प्रवेश करने की अनुमति देते हैं। कृपाचार्य के मुख से अश्वस्थामा द्वारा की गई पाण्डवों की विनाश लीला का वर्णन सुनकर गांधारी प्रसन्न होती हैं, किन्तु इसी बीच दुर्योधन की मृत्यु हो जाती है। यह समाचार सुनकर गांधारी मुर्छित हो जाती है। इस अंक के बीच में दिए गए कथा गायन में कौरव और वीरों का तर्पण करने लिए युद्ध भूमि की तरफ प्रस्थान करते हुए युयुत्सु, धृतराष्ट्र, संजय आदि का उल्लेख है। अर्जुन के बाणों से घायल अश्वस्थामा ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करता है। कृष्ण के कहने पर अर्जुन अश्वस्थामा के ब्रह्मास्त्र को काटने के लिए अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करते हैं, किन्तु व्यास के कहने पर वे उसे वापस लौटा लेते हैं।

                   अश्वस्थामा का ब्रहमास्त्र उतरा के गर्भ पर गिरता है किन्तु कृष्ण शिशु को जीवित करने का आश्वासन देते हैं और अश्वस्थामा को शाप देते है कि वह पीप घावों से युक्त शरीर वाले दुर्गम स्थानों पर भटकता रहेगा। उधर गांधारी युद्ध भूमि में दुर्योधन के अस्थि-पंजर को देखकर कृष्ण को शाप देती है, तुम स्वयं अपने वंश को विनाश करके किसी साधारण व्याध के हाथ मारे जाओगे”

पाँचवा अंक- एक क्रमिक हत्या

       इस अंक में कथानायक पाण्डव-राज्य की स्थापना का उल्लेख है। युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हो गया है। भीम के कटु वचनों से मर्माहत होकर धृतराष्ट्र तथा गांधारी वन चले जाते हैं। युयुत्सु अपमानित होकर भाले से आत्महत्या का प्रयास करता है, किन्तु सफल नहीं होता है। कुन्ती, गांधारी, धृतराष्ट्र भीषण दावाग्नि में भस्म हो जाते हैं।

समापान- प्रभु की मृत्यु

       अंतिम अंक के बाद समापन होता है। इसका शीर्षक प्रभु की मृत्यु दिया गया है। झाड़ी के पीछे से निकलकर जरा नाम का व्याध कृष्ण के बाएँ पैर पर मृग का मुख समझकर बाण चला देता है। अश्वस्थामा प्रभु के शरीर से बहते हुए पीप से भरे नील रक्त को देख कर प्रसन्न होता है। उसे लगता है जैसे प्रभु ने अपने रक्त से उसकी ही पीड़ा को व्यक्त किया हो। उसके मन में प्रभु के प्रति आस्था का उदय होता है। व्याध के कथन से स्पष्ट होता है कि अंधे युग में प्रभु का अंश निष्क्रिय (संजय) आत्मघाती (युयुत्सु) और विगलित रहेगा तथा उनका दूसरा अंश मानव मन के उस मंगलकारी वक्त में निवास करेगा जो ध्वंसों पर नूतन निर्माण करेगा। नूतन सृजन, निर्भयता, साहस और मर्यादायुक्त आचरण में प्रभु बार-बार जीवित हो उठेंगे।

“अँधा युग केवल महाभारत की कथा का एक मात्र अंश नहीं होकर, मानव के अंतर जगत को अभिव्यक्ति देते हुए युद्ध की विभीषिका दिखाने वाली रचना है”   

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