भारतेंदु हरिश्चंद्र कृत ‘भारत-दुर्दशा’ (नाटक) Bhartendu Harishchndra, ‘Bharat-Durdasha’ (Drama)

भारतेंदु हरिश्चंद्र कृत ‘भारत-दुर्दशा’ (नाटक) Bhartendu Harishchndra, ‘Bharat-Durdasha’ (Drama)  सम्पूर्ण अध्ययन और  विशलेषण

भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय- भारतेंदु हरिश्चंद्र आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह कहे जाते हैं। इनका मूल नाम हरिश्चंद्र था। ‘भारतेन्दु’ इनकी उपाधि थी। इनका जन्म 9 सितम्बर 1850 को काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। इनके पिता गोपालदास कवि थे। वे ‘गिरिधरदास’ उपनाम से कविता लिखा करते थे। भारतेंदु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। पंद्रह वर्ष की अवस्था से ही उन्होंने साहित्य सेवा प्रारम्भ कर दी थी। हिन्दी पत्रकारिता, नाटक और काव्य के क्षेत्र में उनका बहुमूल्य योगदान रहा। अठारह वर्ष के उम्र में ही उन्होंने ‘कविवचनसुधा’ नामक पत्रिका निकाली। जिसमे उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएँ छपती थी। बीस वर्ष की अवस्था में उन्हें ‘ऑनरेरी मजिस्ट्रेट’ बनाया गया और वे आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक के रूप में प्रतिष्ठित हुए। हिन्दी में नाटकों का प्रारम्भ भारतेंदु हरिश्चंद्र से माना जाता है। उन्होंने 1868 में ‘कविवचनसुधा’ 1873 में ‘हरिश्चंद्र चन्द्रिका’ और 1874 में स्त्री शिक्षा के लिए ‘बाला बोधिनी’ नामक पत्रिकाएँ निकाली। उनकी लोकप्रियता से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने 1880 में उन्हें ‘भारतेंदु’ (भारत का चन्द्रमा) उपाधि प्रदान किया। भारतेंदु जी को वृहद् साहित्यिक योगदान के कारण ही 1857 से 1900 तक के काल को ‘भारतेंदु युग’ के नाम से जाना जाता है।

भारतेंदु की प्रमुख कृतियाँ

मौलिक नाटक

वैदिक हिंसा हिंसा न भवति (1873, प्रहसन)

सत्य हरिश्चंद्र (1875, नाटक)

श्री चन्द्रावल (1876, नाटिका),

विषस्य विषमौषधम् (1876, भाण)

भारत दुर्दशा (1880 ब्रजरत्नाकर के अनुसार 1876, नाट्य रासक)

नीलदेवी (1881, ऐतिहासिक गीति रूपक)

अंधेर नगरी (1881, प्रहसन)

प्रेमजोगिनी (1874, प्रथम अंक में चार गर्भांक, नाटिका)

सती प्रताप (1883, अपूर्ण केवल चार दृश्य, गीतिरूपक, बाबू राधाकृष्णदास ने पूर्ण किया)

अनुदित नाट्य रचनाएँ

विधासुन्दर (1868), संस्कृत नाटक, ‘चौरपंचाशिका’ का यातिन्द्रमोहन ठाकुर कृत बांग्ला का हिन्दी अनुवाद)

पाखण्ड विडम्बन (कृष्ण मिश्र द्वारा कृत ‘प्रबंधचंद्रोदय’ नाटक के तृतीय अंक का अनुवाद)

धनंजय विजय (1873, व्यायोग, कांचन कवि द्वारा कृत संस्कृत नाटक का अनुवाद)

कर्पुर मंजरी (1875, सट्टक, राजशेखर कवि द्वारा कृत प्राकृत नाटक का अनुवाद)

भारत जननी (1877, नाट्य गीत, बांग्ला के ‘भारतमाता’ के हिन्दी अनुवाद पर आधारित)

मुद्राराक्षस (1878, विशाखदत के संस्कृत नाटक का अनुवाद)

दुर्लभ बंधू (1880 , शेक्सपियर के ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ का अनुवाद)

काव्य कृतियाँ- भक्तसर्वस्व (1870) प्रेममालिका (1871) प्रेममाधुरी (1875) प्रेम-तरंग (1877) उतरार्द्ध भक्तमाल (1876-77) प्रेम-प्रलाप (1877) होली (1878) राग-संग्रह (1880) वर्षा विनोद (1880)  मधुमुकुल (1881) विनय प्रेम पचास (1881) फूलों का गुच्छा- खड़ीबोली काव्य (1882) प्रेम फुलवारी (1883) कृष्णचरित्र (1883) दानलीला, तन्मय लीला, नये जमाने के मुकरी, सुमनांजलि, बन्दर सभा (हास्य व्यंग) बकरी विलाप (हास्य व्यंग)

निबंध- नाटक, कालचक्र (जर्नल), लेवी प्राण लेवी, भारतवर्षोउन्नति कैसे हो सकती? कश्मीर कुसुम, जातीय संगीत, संगीत सार, हिन्दी भाषा, स्वर्ग में विचार सभा।

यात्रा वृतांत- सरयूपार कि यात्रा, लखनऊ

कहानी- अद्भुत अपूर्व स्वप्न

उपन्यास- पूर्णप्रकाश, चंद्रप्रभा

आत्मकथा- एक कहानी- कुछ आपबीती, कुछ जग बीती

भारतेंदु हरिश्चंद्र कृत ‘भारत-दुर्दशा’ (नाटक) का मुख्य बिंदु

  • भारत दुर्दशा नाटक की रचना 1880 में भारतेंदु हरिश्चन्द्र द्वारा की गई थी।
  • यह राष्ट्रीय चेतना का पहला हिन्दी नाटक है।
  • इस नाटक को मानवीकरण करते हुए प्रतीकात्मक ढ़ंग से प्रयोग किया गया है।
  • भारतेंदु जी ने अपने इस नाटक को ‘नाट्य-रासक’ मानते है।
  • यह नाटक वीर, श्रृंगार और करुण रस पर आधारित है।    
  • इस नाटक में भारतेंदु जी ने प्रतीकों के माध्यम से तत्कालीन स्थिति का वर्णन किया है।
  • वे भारतीयों से भारत की दुर्दशा पर रोने और इस दुर्दशा का अंत करने का आह्वान करते है।
  • वे ब्रिटिश राज और भारत के आपसी कलह को इस दुर्दशा का कारण मानते है।    

रामविलास शर्मा के शब्दों में- “भारत दुर्दशा में उन्होंने (भारतेंदु जी) पढ़े-लिखे लोगों को भी अकेले कुछ कर सकने में असहाय दिखलाया है।”

पात्र परिचय- योगी, भारत, भारत-भाग्य, आशा बुद्धिजीवी वर्ग नाटक के पाँचवा अंक (किताब खाना) सभापति बंगाली, महाराष्ट्रीय, एडिटर, कवि, एक देशी महाशय, दूसरा देशी महाशय

विलेन में- भारत-दुर्दैव, निर्लज्जता, सत्यानाश, फौजदार, रोग, आलस्य, अन्धकार और डिसलॉयलटी

नाटक का कथानक

इस नाटक में भारत मुख्य पात्र है। इस प्रतीकात्मक नाटक में भारतेंदु ने भारत की दुर्दशा के सभी पक्षों को काल्पनिक प्रतीकों के माध्यम से स्पष्ट किया है। वह कहता है- “दीन बना मैं इधर-उधर डोलता फिरता हूँ, दीवारों से अपना माथा टकराता हुआ। जैसे-जैसे दिन बीतते जाते हैं। मेरी विपदा भी बढती जाती है।… हे नाथ मेरी रक्षा करो, मुझे उबारो।” कोऊ नहिं पकरत मेरो हाथ बीस कोटि सूत होत फिरत मैं हा हा होए अनाथ। अंत में वह मुर्छित हो जाता है।

प्रथम अंक- स्थान बीथी एक योगी मंगलाचरण गाते हुए प्रवेश करता है। “रोअहू सब मिलिकै आवहु भारत भाई। हा हा! भारत दुर्दशा न देखी जाई।” वह अपने गीत में भारत के प्राचीन वैभव का गुणगान करते हुए वर्तमान दशा पर दुःख प्रकट करता है और भारत के दुर्दशा के कारणों पर प्रकाश डालता है।

दूसरा दृश्य- दूसरेअंक में दीन भारत बिलख-बिलख कर अपनी दुर्दशा का वर्णन करके मुर्छित होता है। उसी अवस्था में निर्लज्जता और आशा उसे उठाकर ले जाती हैं।

तीसरा दृश्य- तीसरे अंक में भारत दुर्दैव भारत की दुर्दशा और अपनी सफलता पर प्रसन्न होता है।

चौथा दृश्य- चौथे अंक में पुनः भारत दुर्दैव रोग, आलस्य, मदिरा, अहंकार आदि की सहायता से भारत की रही सही दशा को भी नष्ट करने की योजना बनाता है।

पाँचवा अंक- पाँचवें अंक में सात सभ्यों की कमिटी भारत दुर्दैव से भारत की रक्षा के उपायों पर विचार करती है। उसी समय ‘डिसलॉयलटी’ प्रवेश कर सबको गिरफ्तार कर ले जाती है।

छठा अंक- छठे अंक में भारत भाग्य मुर्छित भारत को जगाने का प्रयत्न करता है। वह उसे प्राचीन गौरव की स्मृति दिलाता है। अंग्रेजी राज्य में उन्नति की संभावनाओं पर प्रकाश डालता है। जब उधर से भी उसकी आशा नष्ट हो जाती है, तब वह अंत में निराश होकर सीने में कटार मार लेता है।

      नाटक का प्रमुख उद्देश्य है, तत्कालीन भारत की दुर्दशा को दिखाना एवं दुर्दशा के कारणों को कम कर दुर्दशा करने वालों का यथार्थ चित्र उपस्थित करना। व्यंग्य इस नाटक का प्रधान गुण है। समाज व्यवस्था, धर्म व्यवस्था, सरकारी व्यवस्था, देशवासियों तथा समाज सुधारकों सभी पर तीखे व्यंग्य दिखाई देते हैं इसमें भारतेंदु जी की राज भक्ति तथा भारत का धन विदेश जाने की चिंता साफ-साफ नजर आती है-“अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी। पैधन विदेश चलि जात  इहै अति ख्वारी”

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