नमस्कार का मीठा फल

‘नमस्कार’ या ‘प्रणाम’ करना ‘संस्कार’ और ‘सम्मान’ दोनों है। प्रणाम एक यौगिक और मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया भी है। भारत में दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार और प्रणाम करने की परम्परा रही है। नमस्कार करने से सामने वाला व्यक्ति अपने आप विनम्र हो जाता है। ‘नमस्कार’ ‘नमः’ धातु से बना है। नमः का अर्थ होता है ‘नमन करना’ या ‘झुकना’। संस्कृत के सुभाषितानि में कहा गया है-

अभिवादनशीलस्य   नित्यं   वृध्योपसेविन:।

चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुविद्या यशो बलम्।।

अथार्त जो व्यक्ति अपने से बड़ों को रोज प्रणाम करता है, उस व्यक्ति के आयु, विद्या, यश और बल में वृद्धि होती है। गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में लिखा है-

प्रातःकाल उठिकय रघुनाथा, मात-पिता नवावही माथा।  

एक दोहे के अनुसार-

चार मिले  चौसठ  खिले, मिले  बीस कर जोड़।

सज्जन से सज्जन मिले, तो बिंहसे सात करोड़।।

अथार्त जब दो व्यक्ति आपस में मिलकर दोनों एक दूसरे को देखते हैं तब उनकी दो-दो आँखें मिलकर चार आँखें हो जाती है। दोनों के मुस्कुराने से उनके बत्तीस-बत्तीस दांते मिलकर चौसठ दाँते खिल उठते हैं। दोनों के हाथ जोड़ने से दस-दस उँगलियाँ यानी बीस उंगलियाँ मिलते है। दोनों के आपस में मिलने से साढ़े तीन-तीन करोड़ रोम मिलकर सात करोड़ रोम मिलकर प्रफुल्लित हो जाते हैं। वास्तव में नमस्कार को चाहे आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखा जाए या वैज्ञानिक दृष्टिकोण से यह दोनों दृष्टि से लाभप्रद ही है। नमस्कार हम निश्चित रूप से उस व्यक्ति को ही करते हैं जो किसी न किसी मामले में हमसे श्रेष्ठ है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जब हम किसी को नमस्कार करते हैं। उस समय हमारे दोनों हाथ स्वतः ही जुड़कर हृदय के पास पहुँच जाता है। हमारा सिर स्वतः झुक जाता है। हमारे प्रत्येक हाथ में पाँच उगलियाँ है। एक हाथ कि पाँच अंगुलियाँ हमारे पाँचों ज्ञानेन्द्रियों और दूसरे हाथ की पाँच अंगुलियाँ हमारे पाँचों कामेन्द्रियों का धोतक है। अतः जब पांचों ज्ञानेन्द्रियों और पाँचों कामेन्द्रियाँ आपस में मिलती हैं। तब परिणाम शून्य हो जाता है। इस प्रकार दोनों हथेलियों पर दबाव पड़ने के कारण हमारे शरीर का रक्तसंचार नियमित हो जाता है। साथ ही साथ जुड़े हुए हाथ हृदय के पास जाकर हृदयचक्र को नियंत्रित करता है। जिससे शरीर का रक्तचाप संतुलित हो जाता है। अतः इन क्रियाओं के दौरान हमारा शरीर शांत और शून्य हो जाता है। उस दशा में हम खुद को शून्य मानकर अपना सिर झुका कर अपने आप को सामने वाले को समर्पित कर देते हैं। इसके परिणामस्वरूप सामने वाला व्यक्ति इतना भावविभोर हो जाता है कि वह निःसंकोच अपना सर्वश्व आप पर न्योछावर कर देता है। जिससे दोनों में समानता और समरूपता स्थापित होती है। तब दिल से हीन भावना निकल जाती है। अतः प्रथम नमस्कार अपनी ओर से ही करनी चाहिए। बड़ों को प्रणाम तथा नमस्कार करने से आयु में वृद्धि होती है और शुभ कार्य फलदायक होता है। हमेशा फूलों की तरह मुस्कुराते रहिये कभी अपने लिए और कभी अपनों के लिए। सदा खुश रहिये और खुशियाँ बाँटते रहिए।

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.