खुद्बुदी चिरैया

प्रकृति का हर प्राणी, हर जीव प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में एक दूसरे पर निर्भर हैं। हमारे देश में पक्षियों की बहुत सारी प्रजातियाँ पाई जाती है। गौरया उनमे एक छोटी सी चिड़िया है। यह एक घरेलू चिड़िया है। जहाँ लोग रहते है, वही पर यह नन्हीं चिड़िया रहना पसंद करती है। गौरया मानव के द्वारा बनाए हुए घरों के आस-पास ही रहना पसंद करती है। गाँव-कस्बों, खेतों खलिहानों के आस-पास यह बहुतायत में दिखाई देती हैं। आजकल तो शहरों या गांवों में हर जगह ऊँची-ऊँची इमारतें और छोटी-छोटी दुकानों की जगह बड़ी-बड़ी मॉले बनने लगी है। इन ऊँची-ऊँची इमारतों और बड़ी-बड़ी मॉलों ने अब इस नन्हीं सी गौरया के लिए जगह ही कहाँ छोड़ा है? आज यह छोटी सी गौरया अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है।

यूरोप में तो गौरेया संरक्षण-चिंता का विषय बन गया है। ब्रिटेन में भी इसे रेड लिस्ट में शामिल कर लिया गया है। भारत में भी अब पक्षी वैज्ञानिकों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों से गौरया की संख्या में काफी गिरावट आई है। इनकी घटती हुई संख्या को अगर हमने गंभीरता से नहीं लिया तो आने वाले समय में यह छोटी सी गौरया हमसे बहुत दूर चली जायेगी। पेड़ों की कटाई और हानिकारक कीटनाशकों के छिड़काव के कारण गौरया चिड़िया की प्रजातियाँ लुप्त होती जा रही है। गौरया चिड़ियाँ को अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग नामों से बुलाया जाता है- कहीं चिड़ि, कहीं गौरैया और हमारे यहाँ तो इसे खुद्बुदी चिरैया कहते हैं। मुझे याद आता है कि जब हम गाँव में रहते थे, उस समय दादी अपने नाती-पोते को लेकर आँगन में खाना खिलाती और गौरया के लिए भी दाना डाल देती थी। अपने नाती-पोता को खिलाते हुए गाना गाकर गौरया को बुलाती “आव रे खुद्बुदी चिरैया खुदिया चुन, चुन खो—-? इतने में बहुत सारी गौरया आँगन में आ जाती थी। बच्चा उन गौरइयों को देखकर खुश हो जाता और खेल-खेल में खुश होकर खाना खा लेता था। आज सबकुछ बदल गया है। अब तो दादी-नानी कि जगह दाई, नौकरानी और क्रेच पाठशाला ने लिया है। मुझे चिडियों के लिए दाना डालना अच्छा लगता है। हम अपने नया घर (अपार्टमेट) में सिफ्ट किए तब यहाँ आने के बाद मुझे लगा कि अब मैं चिड़ियों को दाना कैसे और कहाँ डालूँगी? क्योंकि मेरा घर आठवे तल्ले पर था। हमारे घर बहुत ऊँचे-ऊँचे हो गए हैं और मन छोटे जिसमे हम अब नन्ही सी गौरया को नहीं रख पाते हैं। घर-घर में घूम-घूम कर चहलकदमी करने वाली ये नन्ही चिरैया अब पता नहीं कहाँ विलुप्त हो रही हैं। पिछले कुछ वर्षो से इनकी संख्या बहुत ही कम होती जा रही है। यह बहुत हीं चिंता का विषय है।

कुछ दिनों के बाद हमने देखा कि हमारे घर के छत पर कुछ चिरैया आती है, और चीं चीं चीं चीं करती है। जब भी देखने जाती हूँ तब वे फुर्र से उड़ जाती थी। एक दिन सबेरा होने से पहले ही दाना डालकर आ गई। दूसरे दिन से मैं दाना और पानी दोनों रखने लगी। शाम को जाकर देखती तो वे सब दाना खा गए होते थे। और पानी पी जाते थे। मैं मन ही मन खुश हुई। खुशी इस बात की थी कि चिड़ियों को दाना देने की आदत थी। दुःख इस बात की थी कि पेड़ों  पर रहने वाले पक्षियों को उनका बसेरा हम काटते जा रहे है। शायद मानव सबसे स्वार्थी प्राणी हैं। जिसके फलस्वरूप उन्हें छतों और छज्जों पर रहना पड़ रहा है। रोज अब मैं अपने छत पर ही चिडियों को दाना डालने लगी। कुछ दिनों के बाद धीरे-धीरे मैं उनके सामने आने लगी थी। अब वे सब मुझे देखकर भागते नहीं थे। जब कभी गलती से किसी दिन दाना डालने में देर हो जाती या भूल जाती थी, तब वे सब हमारे झरोखें पर आकर चीं-चीं चीं-चीं करके मुझे बुलाने लगते थे। अचानक मुझे याद आ जाता कि अरे! आज तो मैंने चिडियों को कुछ दिया ही नहीं। मैं जल्दी से जाकर दाना-पानी रख देती थी। दाना डालते ही वे सब दाना खाने लगते और पानी पीने लगते थे। कभी-कभी तो वे सब पानी में स्नान भी करने लगते थे। अब नदियाँ भी सुख गई हैं। जब तक सूर्य की रौशनी नहीं निकलती तब तक तो वे सब छत पर ही बैठते-खेलते रहते, लेकिन जैसे ही सूर्य की रौशनी छत पर आ जाती, वे सब सामने वाले छत पर चले जाते थे। मुझसे उनका इस तरह से कभी इधर कभी उधर आना-जाना बहुत ही दुखदायी लगता था। मन में दुःख होता था कि पेड़ पर और लोगों के साथ रहने वाले इन पक्षियों को हम मनुष्यों ने कितना दुःख दिया है। हमने इनके घरौंदे को काट कर अपना घरौंदा बना लिया है।

एक दिन दोपहर में भोजन के बाद हम सब आराम कर रहे थे। उसी वक्त वे सभी छत पर आकर चीं-चीं चीं-चीं करने लगी। कभी-कभी मैं भी उनके इस चीं-चीं, चीं-चीं से परेशान हो जाया करती हूँ। लेकिन क्या करूँ? फिर कुछ सोचकर चुप रह जाती हूँ। आखिर ये भी कहाँ जाएँ, गलती हमारी है, हमने ही तो इनके घरों को काट कर अपना घर बनाया है। दूसरे दिन सुबह  चीं-चीं चीं-चीं की आवाज नहीं आ रही थी। मुझे लगा क्या बात है? आज अभी तक कोई चिड़ियाँ नहीं आई है? क्या हो गया? सब मेरे से नाराज हैं क्या? यह सोचकर मैं छत पर देखने गई। देखी कि वे सब चुप-चाप बैठी एक दूसरे को देख रही हैं। मैं दाना डालती हुई पूछ बैठी, क्यों रे! आज तुम सबको क्या हो गया है? बड़े चुप-चाप से बैठे हो? तभी उनमे से एक सबसे छोटी चिड़िया बोली! तुमने कल हमें बहुत डाटा था। इसलिए आज हम सब चुप हैं। मुझे लगा शायद वे सब एक साथ बोल रहीं हो तुम मनुष्यों ने ही तो हमें हमारे घर से बेघर कर दिया है। मैं पूछी वो कैसे? उनलोगों ने कहा तुम मनुष्यों ने अपने सुख के लिए पेड़ों को काट-काट कर सुन्दर-सुन्दर महले-दो-महले बनवा कर सुख की नींद सो रहे हो? क्या कभी हम पक्षियों के विषय में सोचा, कि हम कहाँ रहेंगे। उसकी बातें सुनकर हमें बहुत दुःख हो रहा था। उसमे से एक चिड़ा बोला, हमारे पूर्वज कहते थे कि पहले मनुष्य बाग-बगीचे, फूल-फुलवाड़ी लगवाया करते थे। जिससे उन्हें खाने और रहने के लिए अपना घर नहीं छोड़ना पड़ता था। उनकी बातें सुनकर हमें खुशी होती है। मनुष्य कितने अच्छे होते हैं। आज हमारे समय में तो ऐसा नहीं है। आज तो मनुष्य स्वार्थी हो गया है। अपने सुख के लिए वह सभी जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, नदी-तालाबों आदि को तबाह कर अपने जीवन को भी तबाह कर रहा है। तुम सब लोग तो पढ़े-लिखें और ज्ञानी होकर पर्यावरण का विनाश कर रहे हो। हमारी तो मज़बूरी है, आखिर हम जाएँ तो कहाँ जाए और खाएँ तो खाएँ क्या? उन चिडियों की बात सुनकर मैं निःशब्द हो गई और आँखें भर आई।

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