आज के युग को यदि अनुवाद का युग कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति होने से आज विश्व सिमट कर छोटा होता जा रहा है। यातायात और संचार के साधनों में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है जिसके फलस्वरूप हम भौगोलिक सीमाओं को पार कर बड़े-बड़े और दूर-दूर के देशों से संबंध जोड़ रहें हैं। इसके फलस्वरूप हमारे ज्ञान का विस्तार बढ़ता जा रहा है। कई भाषा-भाषी के लोगों और समुदायों के साथ हम जुड़ते जा रहे हैं। जिससे हमें ‘विश्वबंधुत्व’ की भावना को विकसित करने में सहायता प्राप्त हो रहा है। प्राचीन भारत में गुरु की बातों को सुनकर शिष्य उसे दोहराता था। यही अनुवाद की प्रारंभिक परंम्परा थी।
भाषा और साहित्य के विकास में अनुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका होती है और भाषा तथा साहित्य संस्कृति की अभिव्यक्ति के प्रमुख माध्यम होते हैं। अतः हम कह सकते है कि भाषा संस्कृति के विकास का एक बड़ा माध्यम है। साहित्य की यात्रा का यह चक्र निरंतर चलता रहता है जिससे संस्कृति और सभ्यता के विकास में गति मिलता रहता है।
अनुवाद का अर्थ और परिभाषा:
अनुवाद का शाब्दिक अर्थ होता है- ‘पुनःकथन’ अथवा ‘पुनरुक्ति’। इसमें एक ही भाषा में व्यक्त अर्थ की पुनरुक्ति दूसरी भाषा में होती है। अनुवाद की प्रक्रिया में दो भाषाएँ आती हैं। पहली ‘मूल भाषा’ जिस सामग्री का अनुवाद किया जाता है, इसे ‘स्त्रोत भाषा’ कहा जाता है। दूसरा जिस भाषा में सामग्री अनुदित की जाती, उसे ‘लक्ष्य भाषा’ कहा जाता है। भारत में अनुवाद की परम्परा प्राचीन काल से ही चली आ रही है। कहते हैं कि अनुवाद उतना ही प्राचीन है जितनी प्राचीन भाषा है। आज अनुवाद हमारे लिए कोई नया शब्द नहीं है। विभिन्न भाषाई मंच पर, साहित्यिक पत्रिकाओं में, अखबारों तथा रोजमर्रा के जीवन में हमें अक्सर अनुवाद शब्द का प्रयोग सुनने के लिए मिलता है। ‘अनुवाद’ शब्द संस्कृत के ‘वद्’ धातु से आया है, जिसका अर्थ होता है ‘बोलना’ या ‘कहना’। ‘वद्’ धातु में ‘धञ्’ प्रत्यय लगाने से ‘वाद’ शब्द बनता है, जिसका अर्थ होता है ‘कहने की क्रिया’ या ‘कही हुई बात’। ‘अनुवाद’ शब्द ‘वद’ धातु में ‘अनु’ उपसर्ग और ‘धञ्’ प्रत्यय के योग से बना है। (‘अनु’+‘वद’+‘धञ्’=‘अनुवाद’) इसमें (‘अनु’ का अर्थ है ‘पिछे’ और ‘वद’ धातु का अर्थ है बोलना या कहना। इसप्रकार पूर्व कथित का अनुसरण करके अभिव्यक्त किये गये कथन को अनुवाद कहते हैं।
चिंतामणि कोश में अनुवाद का अर्थ ‘प्राप्तस्य पुनः कथनें’ या ‘ज्ञातार्थस्य प्रति पादने’ अथार्त ‘पहले कहे गए अर्थ को फिर से कहना’ दिया गया है। भारतीय दर्शन ग्रंथों में भी अनुवाद शब्द का प्रयोग मिलता है। ‘न्याय’ और ‘मीमांसा’ दर्शन में- “पहले से कही गई किसी बात के समर्थन में कहे गए दूसरे वचन अथवा एक ही बात को अधिक स्पष्ट रूप से पुनः व्याख्या करने को अनुवाद कहा जाता था।”1 ‘अनुवाद’ शब्द के लिए विद्वान मोनियर विलियम्स ने सर्वप्रथम अंग्रेजी में ‘Translation’ शब्द का प्रयोग किया था। यह लैटिन के दो शब्दों से मिलकर बना है ‘trans’ और ‘lation’ जिसका अर्थ होता है ‘पार ले जाना’ यानि एक ‘स्थान बिंदु’ से दूसरे ‘स्थान बिंदु’ तक ले जाना। यहाँ एक स्थान बिंदु ‘स्त्रोत भाषा’ (Source Language) है, तो दूसरा स्थान बिंदु ‘लक्ष्य भाषा’ (Target Language) है, और ले जाने वाली वस्तु ‘मूल या स्त्रोत’ भाषा में निहित अर्थ होता है।
अलग-अलग विद्वानों ने अपने मत के अनुसार ‘अनुवाद’ की अलग-अलग परिभाषाएँ दी है-
प्रसिद्ध अमेरिकी विद्वान यूजेन नाइडा के शब्दों में- “Translation consists in the receptor language the closet natural equivalent to the message of the source language”. अथार्त- अनुवाद स्त्रोतपाठ का सन्देश पहले अर्थ और फिर शैली के धरातल पर लक्ष्य भाषा में निकटतम स्वभाविक तथा तुलनात्मक अर्थ प्रकट करता है।”2
जे० सी० कैटफोड के शब्दो में- “एक ही भाषा के पाठ्य सामग्री को दूसरी भाषा की समानार्थक पाठ्य सामग्री में प्रतिस्थापना करना ही अनुवाद है।”3
सैमुएल जॉनसन के शब्दों में– “मूल भाषा की सामग्री को भावों की रक्षा करते हुए उसे दूसरी भाषा में बदल देना ही अनुवाद है।”
न्युमार्क के शब्दों में- “अनुवाद एक शिल्प है, जिसमे एक भाषा में व्यक्त सन्देश के स्थान पर दूसरी भाषा में उसी सन्देश को प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाता है।”
भोलानाथ तिवारी के शब्दों में- “किसी भाषा में प्राप्त सामग्री को दूसरी भाषा में भाषांतरण करना अनुवाद है। दूसरे शब्दों में एक भाषा में व्यक्त विचारों को यथासंभव और सहज अभिव्यक्ति द्वारा दूसरी भाषा में व्यक्त करने का प्रयास करना अनुवाद है।”4
पट्टनायक के शब्दों में- “अनुवाद वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा सार्थक अनुभव एक भाषा- समुदाय से दूसरे भाषा-समुदाय को संप्रेषित किया जाता है।”
डॉ० अश्वघोष के शब्दों में- “किसी रचना के विषय-वस्तु को अपने ढ़ंग से, थोडा बहुत परिवर्तन अथवा परिवर्धन के साथ, प्रस्तुत करना अनुवाद कहलाता है।”
डॉ० जी० गोपीनाथन के शब्दों में- “अनुवाद वह द्वंदात्मक प्रक्रिया है, जिसमें स्त्रोत पाठ का अर्थ संरचना (आत्मा) का लक्ष्यपाठ की शैलीगत संरचना (शरीर) द्वारा प्रस्थापित है।”
इस प्रकार उपर्युक्त परिभाषाओं से यह स्पस्ट होता है कि अनुवाद की प्रक्रिया में दो भाषाओं की अनिवार्यता है। दूसरा भावों और विचारों में समानता हो और यह समानता स्त्रोत भाषा के समतुल्य लक्ष्य भाषा में उपलब्ध होने पर ही हो सकती है। मनुष्य एक बुद्धिजीवी प्राणी है। वह अपने परिवेश के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ जानने की कोशिश करता है। इसलिए वह अपने परिचित समाज से निकलकर अपरिचित समाज में जाकर वहाँ के भाषा-बोली, रहन-सहन, आचार-विचार, रीती-रिवाज, खान-पान आदि कई चीजों को जानना, समझना और सीखना चाहता है। यही प्रयास उसकी जिज्ञासा शक्ति को प्रेरित करती है और इसका शुभारंभ भाषा, बोली से ही होता है। यह सत्य कहा गया है कि– “चार कोस में पानी बदले आठ कोष पर वाणी।” इसके आधार पर हम कह सकते हैं कि दूसरे की भाषा और बोली को जानने के लिए हमें अनुवाद का सहारा लेना ही पड़ता है। अनुवाद के द्वारा हम विश्व के सभी भाषाओँ को जान सकते है। अनुवाद आज विश्व में अनिवार्य अंग बन चूका है। बुद्धि और ज्ञान बढ़ाने के लिए भावानुभूतियों के आदान-प्रदान की अवश्यकता होती है। विश्व के किसी भी देश की भाषा में उपलब्ध ज्ञान, विज्ञान, साहित्य, शास्त्र, संगीत, कला आदि को दूसरे देश की भाषा में अनुदित करके ही प्राप्त किया जा सकता है।
हिन्दी में अनुवाद का प्रारंभ संस्कृत के प्राचीन साहित्य से होता है। इसके बाद बौद्ध, जैन और इस्लामी ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद हुआ, लेकिन श्रीमद्भागवत को मुंशी सदासुख लाल कृत ‘सुखसागर’ खूब लोकप्रिय अनुवाद माना जाता है। उसी प्रकार लल्लूजीलाल का ‘प्रेमसागर’ खड़ी बोली में प्रचलित अनुवाद है। अंग्रेजी शासन काल में पश्चिमी साहित्य का हिन्दी अनुवाद भी काफी लोगों को पसंद आया। इसके अलावा अनेक संस्कृत काव्य नाटक हिन्दी में अनुदित हुए। आजादी के बाद हर क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने, अपना स्थान सुरक्षित करने और राष्ट्र विस्तार के लिए हिन्दी अनुवादों का सहारा लिया गया। पहले ये हिन्दी को अधार भाषा बनाने लगे। उससे लेकर भारत की अन्य सभी भाषाओं में अनुवाद होने लगा। पहले अंग्रेजी का सहारा लिया जाता था। पर देखा गया कि भारतीय भाषाओं में हिन्दी ही सहज भाषा है। आगे चलकर अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद होने लगा। आज हिन्दी अनुवाद की गौरवशाली स्थिति बन गई है। अथार्त अनुवाद ने हिन्दी साहित्य को समृद्ध बनाया है और भारतीय साहित्य की समृधि का मार्ग प्रशस्त हुआ है।
अनुवाद के भेद और प्रकार:
अनुवाद के कई भेद और प्रकार हैं। विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार से अनुवादों के प्रकारों पर प्रकाश डाला है। डॉ० भोलानाथ तिवारी ने अनुवाद के चार भेद दिए हैं- गद्यत्व-पदत्व, साहित्यिक विधा, विषय तथा अनुवाद के अधार पर। डॉ० एन०ई० विश्वनाथ अय्यर ने अनुवाद का‘माध्यम प्रक्रिया’ और ‘पाठ के आधार’ पर भेद दिया है। डॉ० जी० गोपीनाथ जी ने ‘विषय वस्तु’ एवं ‘प्रकृति की दृष्टि’ के आधार पर अनुवाद का वर्गीकरण किया है।
विषय वस्तु के आधार पर अनुवाद के दो भेद हैं –
(क) साहित्यिक अनुवाद- इसके अंतर्गत काव्यानुवाद, कथा साहित्य का अनुवाद, नाटकीय अनुवाद, तथा गद्य में- जीवनी, आत्मकथा, निबंध आदि आते है।
(ख) साहित्येतर अनुवाद- इसके अंतर्गत विज्ञान-तकनिकी अनुवाद, समाजशास्त्रीय अनुवाद, संचार, प्रशासनिक आदि अनुवाद आते है।
प्रकृति के दृष्टि से अनुवाद के प्रकार-
शब्दानुवाद– शब्दानुवाद में मूल पाठ के हर शब्द के स्थान पर लक्ष्य भाषा के पर्यायों को रखा जाता है। ज्योतिष, विज्ञान, इतिहास, विधि, समाजशास्त्र आदि के लिए शब्दानुवाद अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है। अतः शब्दानुवाद को अधिक प्रमाणिक अनुवाद माना जाता है।
भावानुवाद- भावानुवाद में मूल पाठ के कथ्य और शैली दोनों को लक्ष्य भाषा में संयोजित किया जाता है। जब पाठ में अभिधा से अर्थ लेना संभव नहीं होता है और लक्षणा तथा व्यंजन से या फिर सांस्कृतिक आदि संदर्भो से अर्थ ग्रहण करना पड़ता है तब भावानुवाद का सहारा लिया जाता है। बिहारी के एक दोहे का अनुवाद करते समय अनुवादक ने केवल दोहा छन्द को अंग्रेजी में रखा है। अंत्यानुप्रास में सम और विषम चरणों का भी निर्वाह किया है।
जैसे-
बिहारी: अति अगाध अति अथरौ, नदी, कूप, सर बाय।
सो ताको सागर जहाँ जाकी प्यास बुझाय।।
अनुवाद: Deep or shallow, let it be, River, streamlet, lake or pool;
That to him is still a sea, Who there his parching thirst can cool.
छायानुवाद– मूल रचना के छाया को ग्रहण करके जब अनुवाद किया जाता है तब उसे छायानुवाद कहते हैं। इस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक मूल कृति के पात्र, स्थान और परिवेश आदि को मूल कृति के संस्कृति से लक्ष्य भाषा की संस्कृति के अनुसार बदल देता है जैसे- ‘Jackson’ को ‘जयकिशन’ में अनुवाद। छायानुवाद का पाठक मूल कृति के सांस्कृतिक परिवेश से दूर रहता है। इस प्रकार के अनुवाद में अनुवादक का उद्देश्य मूल प्रभाव मात्र ग्रहण करके कोई नई कृति का रचना करना भी होता है।
सारानुवाद- स्त्रोत भाषा में व्यक्त मुख्य कथन का संक्षिप्तता के साथ लक्ष्य भाषा में संप्रेषण करना सारानुवाद कहलाता है। सारानुवाद में मूल पाठ का अति संक्षिप्त रूप, लक्ष्य भाषा में प्रस्तुत किया जाता है। यह संक्षिप्त होने के कारण सरल, स्पष्ट तथा लक्ष्य भाषा के स्वाभाविक प्रवाह के कारण कार्यालयी-व्यवहारिक कार्यों के लिए अधिक प्रयोग किया जाता है।
व्याख्यानुवाद- इस अनुवाद में अनुवादक मूल पाठ को समझाने के लिए अपना दृष्टिकोण और उदाहरण आदि का प्रयोग करते हए व्याखात्मक टिप्पणियाँ भी देता है। इससे व्याख्या अनुवाद मूल पाठ की अपेक्षा अधिक विस्तृत हो जाता है।
रूपांतरण- रूपांतरण का शाब्दिक अर्थ होता है रूप बदल देना। इसमें स्त्रोत भाषा की सामग्री को लक्ष्य भाषा में इस तरह प्रस्तुत किया जाता है कि वह बिल्कुल स्थानीय प्रतीत हो। नाटकों के लिए प्रायः रूपांतरण अनुवाद प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता है। इसमें पात्रों के नाम, स्थान के नाम, देशकाल, परिवेश आदि लक्ष्य भाषा के अनुरूप परिवर्तित किए जाते हैं। भारतेंदु हरिश्चंद द्वरा अनुवाद किया गया शेक्सपियर का नाटक ‘मर्चेंट ऑफ वेनिस’ ‘दुर्लभ बंधु’ ‘वंशपुर का महाजन’ इसका उत्तम उदाहरण है। हिन्दी की साहित्यिक दुनिया को आकाशवाणी द्वारा प्रायः रेडियो रूपांतरण करके प्रस्तुत किया जाता है।
आशुनुवाद– दो भिन्न-भिन्न भाषा-भासी आपस में बातें करते हैं। उनके बीच अनुवाद के लिए दो भाषियों की आवश्यकता होती है। द्विभाषी द्वारा किया जाने वाला अनुवाद को आशुनुवाद कहते हैं। इस तरह के अनुवाद में समय नहीं होता है कि वह कोष या ग्रन्थ देख सके। यह अनुवाद व्यावहारिक, दोनों भाषाओं को समझनेवाला अच्छा जानकार होना चाहिए। इसके तीन रूप हैं- अंतः भाषिक अनुवाद, अन्दर भाषिक अनुवाद और अंतर प्रतीकात्मक अनुवाद।
भाषा, साहित्य और संस्कृति के विकास में अनुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। भाषा, साहित्य तथा संस्कृति अभिव्यक्ति के प्रमुख माध्यम हैं। भाषा संस्कृति के विकास का एक बड़ा माध्यम है। साहित्य की यात्रा का यह चक्र निरंतर चलता रहता है तथा संस्कृति और सभ्यता के विकास में गति प्रदान करता है। साहित्य के द्वारा सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यताओं की अभिव्यक्ति होती है और सामाजिक तथा सांस्कृतिक मानको की स्थापना भी होती है। भाषा ही मानव चेतना की अभिव्यक्ति का माध्यम है। संस्कृति के साथ भाषा का संश्लिष्ट संबंध है, क्योंकि भाषा मनोभावों की अभिव्यक्ति होने के कारण संस्कृति का अंग होती है और उसे वह निरुपित भी करती है। अतः भाषा और साहित्य के विकास से ही संस्कृति का विकास होता है। भाषा दोनों संस्कृतियों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में सहायता प्रदान करती है। दो विभन्न समाजों के द्वारा बोली जाने वाली भाषाएँ एक दूसरे को इस प्रकार प्रभावित करती हैं कि दोनों का रूप ही बदल जाता है।
भारत में इस्लाम धर्म के आने के बाद मुसलमान भारत में ही बस गए। जिसके फलस्वरूप दोनों की संस्कृतियाँ एक दूसरे के निकट आ गई। भारत में अरबी फारसी लिखी और बोली जाने लगी। इस प्रकार भारत में लिखी और बोली जाने वाली भाषाओं में अरबी फ़ारसी के शब्दों का प्रवेश हुआ। उस समय से फ़ारसी से हिन्दी एवं संस्कृत में तथा हिन्दी और संस्कृत से फ़ारसी में अनुवाद होने लगे। जो आगे चलकर उर्दू के नाम से प्रसिद्ध हो गया। एक दूसरे की भाषा समझना आसन हो गया। आरंभिक उर्दू और हिन्दी भाषा में इतना ही अंतर था कि उर्दू में फ़ारसी शब्दों का प्रयोग और हिन्दी में तत्सम शब्दों का बाहुल्य था। बाद में दोनों भाषाएँ अलग-अलग विकसित हों गई और अपनी-अपनी साहित्यिक महत्ता को स्थापित कर लिया। इसके बाद सोलहवीं शताब्दी में अनेक यूरोपीय देशों ने भारत के साथ व्यापार शुरू किया। भारत में उन्होंने उपनिवेश किया। जिसके फलस्वरूप हिन्दी भाषा, अंग्रेजी, फ्रांसीसी, पुर्तगाली आदि कई भाषाओँ से प्रभावित हुई। हिन्दी और संस्कृत ग्रंथों का यूरोपीय और यूरोपीय भाषाओं का अंग्रेजी, फ्रांसीसी अदि कई भाषाओँ के ग्रंथों का हिन्दी में अनुवाद हुआ। इससे भारतीय संस्कृति और हिन्दी दोनों का विकास दो चरणों में समानांतर रूप से हुआ।
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में राजा लक्ष्मण सिंह ने जब संस्कृत के ‘शकुन्तला’ नाटक का अनुवाद किया था वह समय मुग़लकाल का था। प्रचलित राजकीय भाषा फ़ारसी का भारतीय रूप रेख्ता या उर्दू था। उस समय तक खड़ी बोली को लोक भाषा या साहित्यिक भाषा का रूप प्राप्त नहीं था। ऐसी स्थिति में राजा लक्ष्मण सिंह ने ब्रजभाषा को अनुवाद का माध्यम बनाया। भाषा के बदलते रूप में आज खड़ी बोली साहित्य की भाषा है। आज किसी साहित्य का अनुवाद ब्रजभाषा या मागधी में किया जाए तो कई पाठकों को कठिनाइयाँ हो सकती है। इसलिए अनुवाद के लिए आधुनिक भाषा की आवश्यकता है, जिसे पाठक आसानी से समझ सके।
भाषा और साहित्य के विकास में अनुवाद की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। विश्व के इतिहास को हम देखे तो यह पता चलता है कि सभी संस्कृतियों में मौखिक और लिखित साहित्य का अनुवाद निरंतर चलने वाली प्रक्रिया रही है। एक भाषा का साहित्य दूसरी भाषा में, दूसरी से तीसरी भाषा में इस प्रकार वह अनेक भाषाओं में अपना जगह बना लेती है। साहित्य की यह यात्रा निरंतर चलती रहती है। इसी तरह संस्कृति और सभ्यता के विकास को और आगे बढ़ने की गति मिलती रहती है।
मौखिक साहित्य का अनुवाद– संस्कृति के विकास में मौखिक साहित्य के अनुवाद की विशेष भूमिका थी और है। लिखित साहित्य की तरह मौखिक साहित्य को एक भाषा से दूसरी भाषा, एक समाज से दूसरे समाज में पहुँचाने के लिए अनुवाद की आवश्यकता नहीं होती है। इसे तो सामाजिक आदान-प्रदान, मिलने-जुलने के दौरान ही लोग एक दूसरे की भाषा को समझने लगते हैं। इस तरह मौखिक भाषा के द्वारा संस्कृति का प्रचार-प्रसार बढ़ जाता है। जैसे- कहावतें, चुट्कुले, बुझौअल, लोककथाएँ, गीत, लोरियाँ आदि का विकास अनेक भाषाओं में मौखिक भाषा के द्वारा प्रचलित हुई है। इस तरह के साहित्य छोटे-छोटे कस्बों, गाँवों, कुनबों आदि में रहने वाले लोगों के द्वारा विकसित हो जाता है। धीरे-धीरे यह मौखिक साहित्य अंतर्राष्ट्रीय भी हो जाता है। जैसे- टेलर द्वारा संगृहीत इंग्लिश Riddles अंग्रेजी भाषा में संग्रहीत है, किन्तु ये पहेलियाँ शताब्दियों से अनेक भाषाओं में प्रचलित हैं। इनके विषय में यह कहना कठिन होगा कि कौन पहेली किस भाषा से आई? इस तरह अनेक प्रकार का लिखित साहित्य एक भाषा से दूसरी भाषा में मौखिक माध्यम से पहुँचता है और वह उस भाषा में पहूँचकर लिखित रूप ले लेता है। आगे तीसरी भाषा में फिर मौखिक बन जाता है। जातक कथाएँ, पंचतंत्र की कहानियों के बारे में यही कहा जा सकता है। लोक साहित्यों का इसी तरह से परिवर्तन होता रहता है। उदाहरण के लिए मैसूर के गायकों के द्वारा ‘रामायण’ की गाथा में सीता माता की व्यथा-गाथा बचपन से लेकर धरती में समां जाने तक की कहानी है। इसी प्रकार लोक कथाओं में लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवियों का जो चरित्र-चित्रण मिलता है। वह लिखित में अलग है। अतः हम कह सकते हैं कि यह अनुवाद उतनी ही पुरानी हैं जितनी पुराणी हमारी मानवा सभ्यता।
लिखित अनुवाद- भारतीय ग्रंथों के अनुवाद द्वारा अनेक देशों में बौध धर्म, और भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार हुआ। संस्कृत और पाली भाषा से चीनी भाषा में अनुवाद का कार्य पहली शताब्दी से ही शरू हो गया था। चीनी त्रिपिटक के ताकशों संस्करण में 3360 से अधिक भारतीय ग्रंथों का चीनी में अनुवाद है। अनेक एशियाई देशों में बौध धर्म और भारतीय संस्कृति का प्रचार हुआ, जिससे चीनी भाषा में बौद्ध ग्रन्थ चीन में आदरणीय बन गया। चीनी जनता उसे पूजने लगी। इस अनुवाद के माध्यम से बड़ी तादाद में संस्कृत और पाली भाषाओं की शब्दावली एशिया के विभिन्न देशों में पहुँच गई। इस भाषाई प्रभाव ने वहाँ के लोगों के रहन-सहन और आचार-विचार को भी प्रभावित किया।
भारत की अध्ययन विधा और दर्शन के उत्तम ग्रंथों का तिब्बती भाषा में भी अनुवाद किया गया। नौवी शताब्दी से तेरहवीं के बीच कुल मिलाकर 4000 से अधिक भारतीय कृतियों का तिब्बती भाषा में अनुवाद हुआ। धीरे-धीरे वहाँ एक समृद्ध साहित्य का जन्म हो गया। इस साहित्यिक अनुवाद के आन्दोलन ने तिब्बत में बौद्धिक चेतना को जन्म दिया। चौदहवीं शताब्दी में मंगोल भाषा में भी बौद्ध सूत्रों का अनुवाद शुरू किया गया। तंजूर में 108 खण्डों के अतिरिक्त मंगोल भाषा में भारतीय कृतियों के अनुवाद मिलते हैं। इन कृतियों में व्याकरण, छन्दशास्त्र और आत्मज्ञान आदि विषयों की कृतियाँ शामिल हैं। मंगोल विश्वकोश में भारतीय आयुर्वेद और रसायन शास्त्र के अनेक ग्रंथों के भी अनुवाद मिलते हैं। इंडोनेशिया, श्रीलंका, म्यांमार (वर्मा) लाओस, थाईलैंड और कम्पूचिया में भी आनेक संस्कृत तथा पाली ग्रंथों का अनुवाद किया गया। इन अनुवादों के फलस्वरूप उन सभी देशों का साहित्य समृद्ध हुआ और वहाँ पर हमारे भारतीय संस्कृति, धर्म, चिंतन आदि का प्रसार हुआ। जिस प्रकार सुदूर के पूर्व और दक्षिण-पूर्व में अनुवाद के माध्यम से भारतीय संस्कृति, धर्म, दर्शन का प्रसार हुआ। वहीं अनुवाद पश्चिम एशियई देशों में साहित्य ज्ञान के प्रसार का माध्यम भी बना। अरब में खिलाफत अब्बासी वंश ने भारत और अरब के बीच सांस्कृतिक आदान-प्रदान का युग शरू किया। अब्बासियों ने संस्कृत के पुस्तकों का अनुवाद अरबी में कराने का विस्तार पूर्वक कार्यक्रम शरू किया। अंकगणित, खगोलशास्त्र, चिकित्साशास्त्र, ज्योतिष, नैतिक कहानियाँ, राजनीतिशास्त्र, कूटनीति और घर के भीतर खेले जाने वाले खेलों आदि के लिखित संस्कृत पुस्तकों का अरबी भाषा में अनुवाद किया गया। वहाँ से उसका प्रसार यूरोप तथा अफ्रीका में भी हुआ।
पश्चिमी देशों में साम्राज्यवादी प्रसार ने भारतीय संस्कृति, साहित्य को बहुत प्रभावित किया। साम्राज्य वाद के प्रसार के साथ ही विश्वव्यापीकरण का युग शुरू हो गया। उन्नीसवीं शताब्दी में संस्कृति के इस विश्वव्यापीकरण में और भी तेजी आ गई जिससे अनुवाद का महत्व बहुत बढ़ गया। यह उल्लेखनीय है कि अनेक संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद पहले अंग्रेजी में उसके बाद हिन्दी में हुआ। इस तरह अनेक भारतीयों को अपनी विस्मृत संस्कृति का पुनः परिचय संस्कृत ग्रंथों का अंग्रेजी अनुवाद के बाद प्राप्त हुआ।
इक्कीसवीं शताब्दी में विश्व में संचार का विकास इतना अधिक बढ़ गया है कि देशों के बीच में दूरियाँ समाप्त हो गई है। आज सभी देशों के बीच प्राचीन और आधुनिक ज्ञान का आदान-प्रदान तेजी से बढ़ गया है। उदाहरण के लिए देखे तो जहाँ एक तरफ विश्वभर में लोग भारत के प्राचीन दर्शन, आध्यात्म, संस्कृति और परंपराओं को आत्मसात करने में लगे हैं, वही दूसरी ओर भारत में पश्चिमी संस्कृति का प्रसार हो रहा है। पॉप संगीत हॉलीवुड के अंग्रेजी फिल्मों और अन्य कार्यक्रमों को हिन्दी में अनुवाद के साथ टेलीविजन के चैनलों पर प्रसारित किया जा रह है। इन अनुवादों में हिन्दी एक नए रूप में सामने आ रही है। अनुवाद के माध्यम से भाषा के स्वरुप में यह परिवर्तन की घटना हमारी आँखों के सामने हो रही है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य के अग्रदूत भारतेंदु हरिश्चंद्र ने संस्कृत के ‘मुद्राराक्षस’ और ‘रत्नावली’ का बंगाली भाषा में अनुवाद किया और अंग्रेजी के ‘द मर्चेंट ऑफ वेनिस’ का ‘दुर्लभ बंधु’ नाम से अनुवाद किया। इन तीनों नाटकों का हिन्दी में अनुवाद करके हिन्दी नाट्य अनुवाद परंपरा का श्री गणेश किया। भारतेंदु विविध भाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य से चुनी हुई रचनाओं के छोटे-बड़े विषयों को हिन्दी में लेकर आये। भारतेंदु जी अर्थ का अनर्थ करने वाले श्ब्दानुगामी अनुवाद से बचने की बात करते हुए कहते कहते हैं कि “मूल कवि से हृदय मिलाएँ बिना अनुवाद करना झक मारना ही नहीं, कवि की लोकांतर-स्थित आत्मा को नरक-कष्ट देना भी है।”5 वे अनुवाद में अर्थानुगामिता के पक्षधर थे। मूल कृति का अनुवाद इस प्रकार किया जाना चाहिए कि लक्ष्य भाषा का पाठक पढ़कर मौलिक रचना का ही आनंद प्राप्त करे। शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटकों का गोपीनाथ, मथुरादास चौधरी और लाला सीता राम ने अनुवाद किया। जगन्नाथ रत्नाकर ने पॉप के ‘एसे ऑफ क्रिटिसिज्म’ का ‘समलोचनादर्श’ नाम से अनुवाद किया। उसी समय के प्रमुख रचनाकार महावीरप्रसाद द्विवेदी जी ने ‘बेकन विचार-रत्नावली’ में बेकन के अनुदित निबंधों को स्थान दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने आर्नोल्ड के ‘लाईट ऑफ एशिया’ का अनुवाद ‘बुद्धचरित’ नाम से किया। प्रसिद्ध कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने टैगोर, गाल्सवर्दी, इलियट और लियो टॉल्सटॉय की रचनाओं का हिन्दी में अनुवाद किया। हरिवंशराय ‘बच्चन’ ने ‘खैयाम की रुबाइयों’ को अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया हिन्दी में अनेक साहित्यकारों द्वारा इस प्रकार के अनुवाद समय-समय पर होते रहें हैं।
अनुवाद की दोनों भाषाओं के सामाजिक संस्कृतिक का आधार जितने दूर होंगे अनुवाद की सीमाएँ उतनी ही बढ़ती जायेगी। भरतीय भाषाओं के आपसी अनुवाद में सांस्कृतिक निकटता रहने के कारण अनुवाद करना सहज होता है। अनुवाद का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है। आज के समय में यह और भी विस्तृत होता जा रहा है। विश्व के सभी भाषाओं की यही स्थिति है। इस प्रकार साहित्य देश की सीमा को लांघकर वैश्विक होता जा रहा है। वेद, उपनिषद्, ब्रह्मण आदि ग्रंथों को आज हम अनुवाद के माध्यम से ही समझ सकते हैं, अन्यथा ‘वैदिक व्याकरण’ तो दूर ‘पाणिनी’ को भी समझना इतना आसन नहीं था। बार-बार गीता, महाभारत, रामायण ग्रंथों का अनुवाद होने लगा। इससे हमारी परंपरा और संस्कृति का ज्ञान प्राप्त होता रहता है।
सारांश- स्वतंत्रता के पहले भारत में नवजागरण की जो चेतना प्रस्फुटित हुई, उसमें अनुवाद के युगांतकारी महत्व को भुलाया नहीं जा सकता है। फ्रांस की क्रांति, यूरोपीय पूँजीवाद, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद की शक्तियों और उनके खतरों से हम अनुवाद के माध्यम से ही परिचित हुए। पश्चिम के डार्विन, रूसों और लियो टॉल्सटॉय के विचारों के साथ यूरोप में नवचिंतन का शुभारंभ हुआ था। उसे भारत तक पहुँचाने में अनुवाद का ही योगदान रहा है। भारत बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक राष्ट्र है। यह बहुभाषिकता शक्ति के रूप में भारत की अपनी पहचान है। अतः अनुवाद की सर्जनात्मक भूमिका का महत्व तो है ही, साथ ही इसकी प्रासंगिकता को भी नकारा नहीं जा सकता है। पहले अनुवाद एक सीमित दायरे तक ही व्याप्त था। यह केवल पौराणिक, धार्मिक और साहित्यिक क्षेत्र तक ही सीमित था किन्तु आधुनिक युग में इसका क्षेत्र अत्यंत व्यापक हो गया है। भूमंडलीकरण और उदारीकरण से इसने अपनी सीमाओं को पार कर विभिन्न कार्य क्षेत्र में अपना महत्व बना लिया है। इसी कारण उसकी प्रासंगिकता और बढ़ गई है। चिकित्सा, वाणिज्य- व्यापार, विज्ञान, प्रौधोगिकी आदि कई क्षेत्रों और विषयों पर जो अनुसंधान और शोध के कार्य हो रहें हैं, उनमे अनुवाद भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय साहित्य और भाषाओं में परस्पर अनुवाद से भारत की सही तस्वीर मिल जाती है। जनसंचार के क्षेत्र रेडियो, दूरदर्शन आदि में हम जो कुछ भी देखते या सुनते हैं उसमे अनुवाद की विशेष भूमिका है। बीते हुए दो तीन दशकों में भारत में जो एक प्रौधोगीकरण तथा सांस्कृतिक क्रांति आई है वह सब अनुवाद से ही संभव हुआ है। इस दृष्टि से देखे तो अनुवाद अब दूसरे दर्जे का विषय नहीं रहा। यह कहा जा सकता है कि जिस विषय का कार्य क्षेत्र विश्व की एकता का विकास हो, जिसमे राष्ट्र को एक सूत्र में बाँधने की शक्ति हो और जिसमे विभिन्न समुदायों के लोगों को समझने तथा उनमे सद्भावना लाने का सामर्थ्य हो उस विषय को दूसरे नंबर के विषय का दर्जा देना उचित नहीं होगा। ‘गीतांजलि’ रविन्द्र नाथ ठाकुर की कविताओं का संग्रह था। उन्हें सन् 1913 में गीतांजलि के लिए ‘नॉबल पुरस्कार’ मिला था। यह एक पतली किताब थी। जिसमे डब्ल्यू बी यीट्स ने बहुत ही उत्साह से प्राक्कथन लिखा था। इसे ‘अनुवाद’ का ही कमाल कहेंगे।