द फिलास्फी ऑफ बम

Let the Legacy of Bhagat Singh's 'Wife' Durga Bhabhi Never Fade
दुर्गा भाभी
07 अक्तूबर 1902 – 14 अक्तूबर 1999

दुर्गा भाभी एक ऐसी महान क्रांतिकारी महिला थीं, जिसने भारत की आजादी के लिए अपने पति तक को न्योछावर कर दिया। मुझे कवि श्यामपाल सिंह की वे पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो उन्होंने ‘चंद्रशेखर आजाद’ के बारे में लिखा था-

‘स्वतंत्रता  रण के रणनायक  अमर  रहेगा तेरा नाम,

नहीं  जरुरत  स्मारक  की  स्मारक  खुद तेरा नाम।

स्वतंत्र  भारत  नाम के आगे जुड़ा  रहेगा  तेरा नाम,

भारत का जन-गण-मन ही अब बना रहेगा तेरा नाम।

सचमुच महान व्यक्ति जिस शान से जीते हैं, मरते भी उसी शान से हैं। उनका जिन्दा रहना जितना महत्वपूर्ण होता है, देश के लिए मर-मिटने पर उनका महत्व और भी अधिक बढ़ा जाता है। 200 सौ वर्षों तक गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ भारत सन् 1947 ई. में आजाद हुआ। यह आजादी हम भारतवासियों को किसी ने तोहफ़ा में नहीं दिया है और ना ही गीतकार प्रदीप के उस गाने के अनुसार हमें आजादी मिली है। उनका यह गीत “दे दी हमें आजादी बिना खड्क बिना ढाल” महात्मा गाँधी के सम्मान में लिखी उनकी उदात्त भावनाओं को व्यक्त करने में भले ही समर्थ रहा हो पर हकीकत के धरातल पर अन्य स्वतन्त्रता सेनानियों की कुर्वानियों और त्याग के सामने बिलकुल ही अर्थहीन है। इस गाने में कोई भी सच्चाई नहीं है। मेरे ख्याल से इस गाने को खत्म ही करवा देना चाहिए। आजादी को पाने के लिए हमारे देश के लाखों लोगों ने अपना तन, मन, धन और अपनों तक को त्याग दिया था। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में जिस प्रकार पुरुषों ने हिस्सा लिया, उसीप्रकार महिलाओं ने भी इस पर्व में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। इस संग्राम में कई महिला स्वतंत्रता सेनानियों ने अपना पूरा-पूरा योगदान दिया था। आजादी की इस लड़ाई में अविश्वसनीय योगदान सन् 1817 से शुरू हुआ। जब भीमा बाई होलकर ने ब्रिटिश कर्नल मलकम को बहादुरी से हराया था। इसके बाद और भी अनेक बहादुर स्वतंत्रता सेनानी महिलाओं ने अंग्रेजों को नाकों चने चबाने के लिए मजबूर कर दिया था। जिनमे झाँसी की रानी, सुचेता कृपलानी, सावित्रीबाई फुले, दुर्गावती आदि थीं।

आज मैं उस क्रन्तिकारी महिला की बात करने जा रही हूँ, जिन्हें कई नामों से संबोधित किया जाता है- ‘द फिलास्फी ऑफ बम’ ‘त्रिदेवों की भाभी’ और ‘दुर्गा भाभी’ एक ही नाम है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में दुर्गा भाभी क्रांतिकारियों की प्रमुख सहयोगिनी थीं। दुर्गा भाभी का जन्म सात अक्टूबर सन् 1902 ई. को शहजादपुर ग्राम के कौशाम्बी जिला में पंडित बांके बिहारी के आँगन में हुआ था। इनके पिता इलाहाबाद कलेक्ट्रेट में नाजिर थे और इनके बाबा महेश प्रसाद भट्ट जालौन जिला में थानेदार के पद पर थे। इनके दादा जी पं० शिवशंकर शहजादपुर में जमींदार थे। दुर्गा भाभी के दादाजी बचपन से ही उन्हें बहुत प्यार करते थे और उनकी सभी आवश्यकताओं को पूरा करते रहते थे। दस वर्ष की अल्प आयु में ही इनका विवाह लाहौर के भगवती चरण बोहरा के साथ हो गया था। इनके ससुर शिवचरण जी रेलवे में ऊंचे पद पर थे। अंग्रेज सरकार ने उन्हें ‘राय साहब’ का खिताब दिया था। भगवती चरण बोहरा राय साहब का पुत्र होने के बावजूद भी अंग्रेजों की दासता से देश को मुक्त कराना चाहते थे। वे क्रांतिकारी संगठन के प्रचार सचिव थे। वर्ष 1920 में पिता की मृत्यु के पश्चात भगवती चरण वोहरा खुलकर क्रांति में आ गए और उनकी पत्‍‌नी दुर्गा भाभी ने भी पूर्ण रूप से उनका सहयोग किया। सन् 1923 में भगवती चरण वोहरा नेशनल कॉलेज से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण किए और दुर्गा भाभी ने ‘प्रभाकर’ की डिग्री हासिल की। दुर्गा भाभी का मायका व ससुराल दोनों पक्ष संपन्न था। ससुर शिवचरण जी ने दुर्गा भाभी को चालीस हजार व पिता बांके बिहारी ने पांच हजार रुपये संकट के दिनों में काम आने के लिए दिए थे लेकिन इस दंपती ने इन पैसों का उपयोग क्रांतिकारियों के साथ मिलकर देश को आजाद कराने में किया। मार्च 1926 में भगवती चरण वोहरा व भगत सिंह ने संयुक्त रूप से ‘नौजवान भारत सभा’ का प्रारूप तैयार किया और रामचंद्र कपूर के साथ मिलकर इसकी स्थापना की। सैकड़ों नौजवानों ने देश को आजाद कराने के लिए अपने प्राणों के बलिदान की शपथ ले ली। भगत सिंह व भगवती चरण वोहरा सहित कई सदस्यों ने अपने रक्त से प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किए। 28 मई 1930 को रावी नदी के तट पर साथियों के साथ बम बनाने के बाद परीक्षण करते समय वोहरा जी शहीद हो गए। उनके शहीद होने के बावजूद भी दुर्गा भाभी अपनी साथी क्रांतिकारियों के साथ सक्रिय रहीं।

19 दिसंबर, 1928 को भगतसिंह और सुखदेव सांडर्स को गोली मारने के दो दिन बाद सीधे दुर्गा भाभी के घर पहुंचे। उस दिन भगत सिंह नये रूप में थे। भाभी भगत सिंह के इस नये रूप को नहीं पहचान पाई थी। भगत सिंह अपना बाल कटवा लिए थे। हालांकि दुर्गा भाभी इस बात से खुश नहीं थी, क्योंकि स्कॉट बच गया था। इसके पहले वाली मीटिंग के दिन खुद दुर्गा भाभी ने स्कॉट को मारने का काम अपने हाथ में लेने की गुजारिश की थी लेकिन अन्य क्रांतिकारियों ने उन्हें रोक दिया था। लाला लाजपत राय पर हुए लाठी चार्ज और उसके चलते उनकी मौत के कारण उनके दिल में बहुत गुस्सा था। इधर लाहौर में कदम-कदम पर पुलिश तैनात थी। दुर्गा भाभी ने उन्हें कोलकाता से निकलने की सलाह दी। उस समय कांग्रेस का अधिवेशन कोलकाता में चल रहा था। भगवतीचरण बोहरा भी उसमे भाग लेने गए थे।

09 अक्टूबर 1930 को दुर्गा भाभी ने गवर्नर हैली पर गोली चलाई थी जिसमें गवर्नर हैली तो बच गया लेकिन सैनिक अधिकारी टेलर घायल हो गया। मुंबई के पुलिस कमिश्नर को भी दुर्गा भाभी ने गोली मारी थी जिसके परिणाम स्वरूप अंग्रेज पुलिस इनके पीछे पड़ गई थी। मुंबई के एक फ्लैट से दुर्गा भाभी और उनके साथी यशपाल को गिरफ्तार कर लिया गया। दुर्गा भाभी का काम साथी क्रांतिकारियों के लिए राजस्थान से पिस्तौल लाना और ले जाना था। चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजों से लड़ते वक्त जिस पिस्तौल से खुद को गोली मारी थी उसे दुर्गा भाभी ने ही लाकर उनको दिया था। उस समय भी दुर्गा भाभी उनके साथ ही थीं। उन्होंने पिस्तौल चलाने की ट्रेनिंग लाहौर व कानपुर में लिया था।

भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त जब केंद्रीय असेंबली में बम फेंकने जाने लगे तो दुर्गा भाभी और सुशीला मोहन ने अपनी हाथ काट कर अपने रक्त से दोनों लोगों को तिलक लगाकर विदा किया था। असेंबली में बम फेंकने के बाद इन लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया तथा फांसी दे दी गई। सभी साथी क्रांतिकारियों के शहीद हो जाने के बाद दुर्गा भाभी एकदम अकेली पड़ गई। वह अपने पांच वर्षीय पुत्र शचींद्र को शिक्षा दिलाने के उद्देश्य से साहस कर दिल्ली चली गई। जहां पुलिस उन्हें बराबर परेशान किया करती थी। दुर्गा भाभी उसके बाद दिल्ली से लाहौर चली गई, वहीं पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया और तीन वर्ष तक नजरबंद रखा। फरारी, गिरफ्तारी और रिहाई का यह सिलसिला सन् 1931 से सन् 1935 तक चलता रहा। अंत में लाहौर से जिलाबदर किए जाने के बाद 1935 में गाजियाबाद में प्यारेलाल कन्या विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी करने लगी। कुछ समय बाद पुन: वे दिल्ली चली गईं और कांग्रेस में काम करने लगीं। कांग्रेस का जीवन रास न आने के कारण उन्होंने 1937 में पार्टी छोड़ दिया। सन् 1939 में इन्होंने मद्रास जाकर मारिया मांटेसरी से मांटेसरी पद्धति का प्रशिक्षण लिया। सन् 1940 में लखनऊ के कैंट रोड में (नजीराबाद) एक निजी मकान में सिर्फ पांच बच्चों के साथ मांटेसरी विद्यालय खोला। आज भी यह विद्यालय लखनऊ में मांटेसरी इंटर कालेज के नाम से जाना जाता है। 14 अक्टूबर 1999 को गाजियाबाद में उन्होंने सबसे नाता तोड़ते हुए इस दुनिया को अलविदा कह दिया। आज उनके जन्मदिन के अवसर पर मैं उनको शत्-शत् प्रणाम करती हूँ।

8 thoughts on “द फिलास्फी ऑफ बम”

  1. एक बड़े और प्रेरक इतिहास से मैं अवगत नहीं था…धन्यवाद आपका इस लेख के लिये…🙏

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  2. दुर्गा भाभी के बारे में विस्तारपूर्वक रोचक ढंग से बताने के लिए धन्यवाद 🙏

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