छायावाद में मुकुटधर पाण्डेय की भूमिका (आलेख)

हिन्दी साहित्य को पढ़ना और पढ़ाना जितना आसान समझा जाता है, असल में यह उतना आसन है नहीं। हिन्दी साहित्य में अनेक विधाएं हैं। उन सभी विधाओं में काव्य और काव्य की विधा में ‘छायावाद’ का तो कुछ कहना ही नहीं। छायावाद हिन्दी साहित्य की अत्यंत समृद्ध, सौन्दर्यशालिनी, सशक्त एवं कलात्मक काव्यधारा रही है। हिन्दी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल का इसे तृतीय उत्थान माना जाता है। सन् 1918 ई० के आसपास प्रथम विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद जो राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक परस्थितियाँ थी, उनसे प्रेरणा लेकर एक नवीन कल्पना, प्रवीण कवियों का काव्य प्रस्फुटित हुआ। वह काव्य था छायावाद। छायावाद ने भावों को नया परिवेश और नई अभिव्यक्ति दिया। प्राचीन संस्कृति, साहित्य और मध्यकालीन हिन्दी साहित्य से छायावाद ने सांस्कृतिक और भावात्मक संबंध को जोड़ दिया।     

छायावाद आधुनिक हिन्दी साहित्य का एक महत्वपूर्ण पड़ाव है। यह भक्ति साहित्य आन्दोलन के बाद का सबसे महत्वपूर्ण काव्यान्दोलन है। जहाँ काव्य, दर्शन, कला और कल्पना का मिलन होता है। यहाँ जीवन का जगत से और मानव का प्रकृति से समन्वय है। यद्यपि छायावाद के भाग्य का उदय द्विवेदी युग के उतरार्ध में ही हो गया था, किन्तु इसका नामकरण सन् 1920 ई० में श्री मुकुटधर पाण्डेय जी के द्वारा किया गया। वे प्रगतिवाद के रचनाकार थे। उन्होंने अपने काव्य में उन आत्मगत भावनाओं को स्थान दिया जो द्विवेदी युग के काव्य प्रवृति से भिन्न थे। नवीन कोटि की अभिव्यंजना प्रणाली के साथ-साथ भावात्मक तथा परोक्ष सत्ता के प्रति समर्पण भाव उनकी काव्य की विशेषता थी। उनकी आध्यात्मिक भावना ठाकुर रविन्द्रनाथ की आध्यात्मिकता एवं मानवतावादी विचारधारा से प्रभावित थी।

‘छायावादी’ विद्वानों का मानना था कि सन् 1918 ई० में प्रकाशित हुई जयशंकर प्रसाद की पहली कविता संग्रह ‘झरना’ छायावाद की प्रथम कविता संग्रह था। इसके प्रकाशित होते ही हिन्दी साहित्य जगत में द्विवेदी युग की धारा पर हिन्दी पद शैली में बदलाव दिखने लगा था। देखते ही देखते इस शैली की अविरल धारा साहित्य प्रेमियों के हृदय में अपना जगह बना ली। इस नई शैली के चार आधार स्तम्भ थे। जयशंकर प्रसाद, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, सुमित्रानंदन पन्त और महादेवी वर्मा। कहा जाता है कि इस नई शैली को साहित्य जगत में पारिभाषित एवं नामकरण करने का श्रेय पं० मुकुटधर पाण्डेय को जाता है। सन् 1918 ई० से लोकप्रिय हो चुकी इस शैली के संबंध में सन् 1920 ई० में जबलपुर से प्रकाशित पत्रिका ‘श्री शारदा’ में जब मुकुटधर पाण्डेय जी का ‘लेखमाला’ का प्रकाशन हुआ, तब इस विषय पर राष्ट्रव्यापी विमर्श हुआ और ‘छायावाद’ ने अपना सम्मान स्थापित किया। छायावाद पर प्रकाशित ‘लेखमाला’ और ‘छायावाद’ के संबंध में मुकुटधर पाण्डेय जी स्वयं कहते हैं- “सन् 1920 ई० में छायावाद का नामकरण हुआ और जबलपुर की ‘श्री शारदा’ पत्रिका में हिन्दी में छायावाद शीर्षक नाम से मेरी लेखमाला निकली। इसके पहले सन् 1918 ई० में जयशंकर प्रसाद का ‘झरना’ निकल चूका था। यह छायावादी कविताओं का प्रथम संग्रह था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने Romanticism के पर्याय के रूप में जिसे स्वच्छंदतावाद कहा था। वह छायावाद का अग्रगामी था। Romanticism जिसे हारफोर्ड ने hightening of sensibility, भावोत्कर्ष कहा था, वही हिन्दी में छायावाद के रूप में परिणत हुआ था।” छायावाद की मुख्य विशेषताएँ है- मानवतावाद, सौंदर्यवाद, रहस्यवाद, रोमांटिक तथा निराशावाद। छायावाद की कुछ कविताओं में ऐसी मर्मभेदी करुण ध्वनि होती है, जो करुण होने के बावजूद भी अत्यंत मधुर होता है। छायावाद के ‘सौंदर्य बोध’ और ‘कल्पना’ के पूर्ववर्ती कविताओं में बड़ा अंतर था। छायावादी काव्य एवं ‘छायावाद’ शब्द के प्रयोग पर उस समय साहित्य जगत में हो रही चर्चाओं में थोड़ा बहुत विरोध के स्वर भी सुनाई देने लगे थे। जिसका कारण निराला एवं उनके अनुयायियों द्वारा छंदों का अंग-भंग करना था, किन्तु यह सृजन के पहले का हो हल्ला था। आगे उसी लेख में पं० मुकुटधर पाण्डेय कहते हैं- “द्विवेदी जी ने सुकवि किंकर के ‘छद्मनाम’ से सरस्वती पत्रिका में छायावाद की कठोर आलोचना किया। उनकी व्यंगपूर्ण कटाक्ष था कि जिस कविता पर किसी अन्य कविता की छाया पड़ती हो, उसे छायावाद कहा जाता है। तब मेरा माथा (मुकुटधर) ठनका। लोग ‘छाया’ शब्द का लाभ उठाकर छायावाद का छीछालेदर कर रहे थे। उस समय छायावादी कवियों की बाढ़ सी आ गई थी। मैंने ‘माधुरी’ पत्रिका में लेख लिखकर इस नई शैली के लिए ‘छायावाद’ शब्द का प्रयोग नहीं करने का आग्रह किया। पर उस बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया, ‘जो शब्द चल पड़ा सो चल पड़ा।’ छायावाद शब्द अब हिन्दी साहित्य में स्थापित हो गया था। अब इसे सिद्ध करने में पं० मुकुटधर पाण्डेय के ‘श्री शारदा’ में प्रकाशित ‘लेखमाला’ की अहम् भूमिका रह गई थी।” उनके इस लेखमाला के संबंध में प्रो० इश्वरी शरण पाण्डेय जी कहते हैं- “श्री मुकुटधर पाण्डेय जी की इस लेखमाला के प्रत्येक निबन्ध छायावाद पर लिखे गए। यह लेखमाला हिंदी साहित्य कि ‘दीप्त-धरोहर’ थी। पं० मुकुटधर पाण्डेय जी की ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित कविता ‘कुकरी के प्रति’ को छायावादी कविता माना गया और समस्त हिंदी साहित्य जगत ने इसे स्वीकार भी किया। ‘कुकरी के प्रति’  पं० मुकुटधर पाण्डेय की ऐसी कविता थी जिसमे छायावाद के सभी तत्व समाहित थे।” इस कविता के संबंध में डॉ० शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ ने रायगढ़ में कहा था- ‘कुकरी के प्रति’ कविता में तो भारत वर्ष की सारी संवेदना की परंपरा समाहित है….. ।पं० मुकुटधर पाण्डेय जी ने स्वयं कहा था- छायावाद लिखा नहीं जाता, लिख जाता है।  

बता मुझे ऐ विहग विदेशी अपने जी कि बात

पिछड़ा था तू कहाँ, आ रहा जो कर इतनी रात

निंद्रा में जा पड़े कभी के ग्राम-मनुज स्वछंद

अन्य विहग भी निज नीड़ों में सोते हैं सानंद

इस नीरव घटिका में इतना उड़ता है तू चिंतित गात

पिछड़ा था तू कहाँ, हुई क्यों तुझको इतनी रात?  

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द्विवेदी युग की काव्य छंद बद्धता की परिपाटी को तोड़ते हुए वे कहते हैं –

“काव्य नहीं केवल छंद प्रबंध, वाणी और हृदय का वह अनुबंध”।  

कवि ने अपनी कलम से जहाँ एक तरफ परिताप से युक्त ‘कुकरी के प्रति’ कविता लिखी तो वहीं उन्होंने दूसरी ओर श्रम साधना तथा शोषण का विरोध करने वाली कवितायें भी लिखी हैं जैसे- किसान, खलिहान, बाल परिचायक आदि। पाण्डेय जी की भाषा अवधी से मिलती जुलती खड़ी बोली थी। वे गद्य और पद्य दोनों लिखते थे। उन्होंने गीत शैली को भी जन्म दिया। हिन्दी को राष्ट्रभाषा की सेवा और देश सेवा के समकक्ष मानने के कारण तथा खड़ी बोली में गद्य के विकास की संभावनाओं को दृष्टिगत रखते हुए पाण्डेय जी ने खड़ी बोली को ही अपनी काव्य का भाषा बनाया। अतः सौंदर्य और आध्यात्मिक भावनाओं से युक्त पाण्डेय जी के काव्य संसार में वास्तविक संसार का भी स्थान है। नैसर्गिक सौंदर्य बोध के साथ उन्होंने अपने शब्दों के आडंबर और वाग्जाल को हमेशा अपने से दूर रखा। एक सहज अनुभूति के साथ छायावाद काव्य जगत में भावुकतापूर्ण आध्यात्मिकता की प्रतिष्ठा करता है-

“भूत, भविष्यत् वर्तमान पर होती है जिसकी सम दृष्टि

प्रतिभा जिसकी मर्त्यधाम में करती सदा सुधा कि वृष्टि

जो करुणा श्रृंगार, हास्य वीरादि नवो रस का आधार

जिसको ईश्वरीय तत्वों का अनुभव युत है ज्ञान-अपार।”                    

मुकुटधर पाण्डेय का जन्म 30 सितंबर सन् 1895 ई० को छत्तीसगढ़ में बिलासपुर के नजदीक एक छोटे से गाँव बालपुर में हुआ था। ये अपने सभी भाइयों में सबसे छोटे थे। उनके सभी भाई काव्य कला में निपुण थे। इनके पिता चिंतामणि पाण्डेय संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे। भाईयों में पं० लोचनप्रसाद पाण्डेय हिन्दी के ख्यात साहित्यकार थे। लोचनप्रसाद जी द्विवेदी-मंडल के प्रमुख रचनाकार थे। वे भारतेन्दुकालीन प्रसिद्ध रचनाकार ठाकुर जगमोहन सिंह के नजदीकी थे। लोचनप्रसाद जी मुकुटधर पाण्डेय जी के बड़े भाई और उनके साहित्यिक गुरु भी थे। दोनों भाइयों में अगाध प्रेम था। पिता चिंतामणि और पितामह सालिगराम पाण्डेय साहित्य में अभिरुचि वाले व्यक्ति थे। माता देवहुति देवी धर्म और ममता की प्रतिमूर्ति थीं। धार्मिक अनुष्ठान उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग था। बारह वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। उस समय किसे पता था कि यही नन्हा मुकुटधर छायावाद का ‘ताज’ बनेगा। कम उम्र में ही पिता के मृत्यु हो जाने के पश्चात बालक मुकुटधर के मन में गहरा प्रभाव पड़ा, किन्तु वे अपने कार्य से विमुख नहीं हुए। सन् 1909 ई० में जब वे चौदह वर्ष के हुए, तब उनकी पहली कविता आगरा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘स्वदेश बांधव’ में प्रकाशित हुई और सन् 1919 ई० में उनका पहला कविता संग्रह ‘पूजा के फूल’ प्रकाशित हुआ। उसी वर्ष किशोर कवि प्रयाग विश्वविद्यालय से उतीर्ण हुए। बालपुर और रायगढ़ कुछ दिनों के लिए छूट गया तब उनका दिल अधीर हो पुकार उठा – “बालकाल तू मुझसे ऐसी आज बीड़ा क्यों लेता है, मेरे इस सुखमय जीवन को दु:खमय से भर देता है”।

 इतनी कम उम्र में अपनी प्रतिभा और काव्यकौशल को प्रस्तुत करने वाले पं० मुकुटधर पाण्डेय अपने अध्ययन के संबंध में स्वयं कहते हैं- “सन् 1915 ई० में प्रयाग विश्वविद्यालय की प्रवेशिका परीक्षा में उतीर्ण होकर मैं महाविद्यालय में भर्ती हुआ, किन्तु मेरी पढ़ाई आगे नहीं बढ़ पाई। मैंने हिन्दी, अरबी, बंगला और उड़िया साहित्य का अध्ययन किसी विद्यालय या महाविद्यालय में नहीं किया है।” मुकुटधर पाण्डेय जी को अपने गाँव से बहुत लगाव था। उन्होंने अपनी कविता ‘ग्राम्य जीवन’ में गाँव का बड़ा ही मनोहारी चित्रण किया है। वे कहते हैं-  

छोटे-छोटे भवन स्वच्छ अति दृष्टि मनोहर आते हैं

रत्न जटित प्रसादों से भी बढ़कर शोभा पाते हैं ।

बट-पीपल कि शीतल छाया फैली कैसी है चहुँ ओर

द्विजगण सुन्दर गान सुनाते नृत्य कहीं दिखलाते मोर।    

महानदी की प्राकृतिक सुन्दरता और सहज ग्राम्य जीवन का आनन्द लेते हुए कवि ने अपनी लेखनी से महानदी के मनोहारी लहरों और उसकी छटा का वर्णन करते हुए लिखा है –

कितना सुन्दर और मनोहर, महानदी यह तेरा रूप।

कलकलमय निर्मल जलधारा, लहरों की है छटा अनूप।

तुझे देखकर शैशव की है, स्मृतियाँ उर में उठती जाग।

लेता है किशोर काल का,  अँगड़ाई अल्हड अनुराग।

छायावाद के संबंध में प्रायः जिन परिस्थितियों और प्रवृतियों की चर्चा होती है, उनमे देश की राजनितिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिस्थितियों के साथ-साथ साहित्यिक परिस्थितियाँ भी महत्वपूर्ण थी। ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो छायावाद दो विश्वयुद्धों के बीच का समय था, किन्तु छायावाद की पृष्ठभूमि तो पहले से ही बन रही थी। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रथम विश्वयुद्ध के पहले से ही साहित्य में अनेक नए मान्यताओं और विचार धाराओं का प्रादुर्भाव हो रहा था। उस समय भारतीय संस्कृति पाश्चात्य विचारधाराओं से प्रभावित हो रही थी। उस समय में साम्राज्यवाद और सामंतवाद के विरुद्ध विद्रोह भी दिखाई दे रहा था। देश की बिगड़ती हुई आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों के साथ-साथ साहित्य, धर्म और राजनीति सब कुछ प्रभावित हो रहे थे। इन्हीं कठिन परिस्थितियों के बीच साहित्य में छायावाद काव्य का जन्म हुआ था।

छायावाद एक ऐसा युगांतकारी शब्द है जिसने पं० मुकुटधर पाण्डेय जी को हिंदी कविता के इतिहास में अमर कर दिया। छायावाद के प्रवर्तक के रूप में पं० मुकुटधर पाण्डेय जी को स्वयं प्रसाद जी ने मान्यता दी थी। स्वयं पाण्डेय जी के शब्दों में “सन् 1936 में प्रसाद जी जब बीमार थे तब उन्होंने मुझसे कहा था, आप छायावाद के प्रथम कवि है मैंने उनसे कहा था, मैंने आप का अनुशरण किया था।” इस घटना का जिक्र पाण्डेय जी ने अपने संस्मरणात्मक लेख में विस्तार पूर्वक किया है। पाण्डेय जी ने छायावाद कविता को समुचित स्थान दिलाने के लिए परंपरा के पुनर्वास की कोशिश किया। इस कोशिश में वे किसी आलोचक की परवाह किए बिना अपनी नई पद्धति पर लिखते रहे। छायावाद के उद्भव के रहस्य के विषय में पाण्डेय जी का कहना था कि बहुत दिनों के बाद जब कुछ लोग मेरी रचना छायावाद के अंतर्गत पढ़ने लगे और ‘कुकरी के प्रति’ को गिनाने लगे तब मुझे आश्चर्य हुआ। तब मैंने अनुभव किया कि, ‘छायावाद लिखा नहीं जाता, लिख जाता है’।

छायावाद अपने युग कि अनिवार्य क्रांति थी नब्बे वर्ष कि उम्र तक हिंदी के क्षेत्र में छायावाद को स्थापित करने वाले युवा का निधन 6 नवंबर सन् 1995 ई० को रायपुर में लम्बी बिमारी के बाद हो गया उन्होंने अपनी कविता में महानदी से अनुरोध करते हुए कहा था – “हे महानदी तू अपनी ममतामयी गोद में मुझे अंतिम विश्राम देना तब मैं मृत्यु- पर्व का भरपुर सुख लूटूँगा।”

“चित्रोत्पले बता तू मुझको वह दिन सचमुच कितना दूर,

प्राण प्रतीक्षारत लूटेंगें, मृत्यु-पर्व का सुख भरपूर”।

अंत में मैं कुछ पंक्तियों के साथ इसे समाप्त करती हूँ-

विहग विदेशी कुररी जब भी, नीड़ अपने लौटेगा

कहीं दूर से अमराई में, कोयल सुर में आएगी महानदी हो जब उफान पर, नाव लगी हो चलाने को

ऐसे ही परिवेश में आकर उस पीपल की छाँव में

कविवर तुम बैठे मिल जाओ कोई कविता लिखने को।

‘छायावादी’ काव्य युग अपने युग की अनिवार्य क्रांति थी। देश की आवश्यकताओं के अनुरूप छायावाद हिंदी कविता की चरम उपलब्धि थी। छंद, भाषाशिल्प, नाद सौंदर्य, रागात्मक भाव बोध, माधुर्य, कल्पना आदि छायावाद के समस्त प्रवृतियों के साथ छायावादी कवियों ने एक प्रतिमान उपस्थित किया तथा अत्यंत सूक्ष्म परिष्कृति सौंदर्य दृष्टि का उन्मेष का हिंदी काव्य चेतना को अभूतपूर्व समृधि प्रदान की। गोचर से अगोचर की ओर, प्रत्यक्ष से परोक्ष की ओर, चेतन से अचेतन की ओर, छायावादी कवियों ने इस युग की परिधि का विस्तार मुखरता के साथ किया। छायावादी काव्यचेतना कि पृष्ठभूमि में जो समसामयिक परिस्थितियां सक्रिय थीं उसमे नवोन्मेष तथा नवजागरण का भाव साम्य था। भारतीय जनमानस अपने ऊपर लादी गई इतिवृत्तात्मक की परत को कुरेद कर अतीत के गौरव का स्पंदन करना चाहती थी। बुद्धिवाद और पूंजीवाद के विरुद्ध सहज परिणति के रूप में छायावाद का जन्म अन्तस की गहराई से हुआ था। छायावादी कवियों ने स्वयं की वेदना को युग की वेदना से एकाकार करके मधुर भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति की थी। यह एक विस्तृत तथा व्यापक जीवन की दृष्टि थी, जिसकी अभिव्यक्ति सामान्य रूप से कविता, कहानी, उपन्यास नाटक आलोचना आदि सभी माध्यमों से हुई। वस्तुतः छायावाद युगीन प्रवाह की चरम उपलब्धि है।

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