विवाह के पश्चात् हर बेटी या लड़की को उसके पिता का गोत्र छोड़कर पति का गोत्र अपनाना होता है। यह एक परम्परा है। इस परम्परा के पीछे कुछ कारण अवश्य होंगे। उसे जानने और समझने का प्रयास करते हैं। पहले इसका वैज्ञानिक कारण जानने का प्रयास करते हैं। हम सभी जानते हैं कि स्त्री में xx और पुरुष में xy गुण सूत्र होते हैं। यदि पुत्र हुआ तो (xy गुणसूत्र) अथार्त इसमें y गुणसूत्र पिता से प्राप्त हुआ है, क्योंकि यह तो निश्चित ही है कि माता में y गुणसूत्र नहीं होता है। यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र) यानी यह गुणसूत्र पुत्री में माता-पिता दोनों से आया हैं।
1. गुणसूत्र xx अथार्त पुत्री। जब xx गुणसूत्र के जोड़े में एक पिता से और दूसरा माता से आता हैं, तब इन दोनों का संयोग एक गाँठ जैसी रचना बना लेता है, जिसे Crossover कहा जाता है।
2. गुणसूत्र xy अथार्त पुत्र। पुत्र में y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है, क्योंकि माता में y गुणसूत्र है ही नहीं। ये दोनों गुण एक सामान नहीं होने के कारण पूर्ण Crossover नहीं होता केवल 5 प्रतिशत ही होता है। 15 प्रतिशत y गुणसूत्र ज्यों का त्यों (Intact) ही रहता है। यहाँ y गुणसूत्र महत्वपूर्ण है क्योंकि y गुणसूत्र के विषय में निश्चित है कि यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है।
3. y गुणसूत्र का पता लगाना ही गोत्र प्रणाली का एक मात्र उदेश्य है। जो हजारों लाखों वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों ने ज्ञात कर लिया था।
वैदिक गोत्र प्रणाली और y गुणसूत्र :
अब तक हम यह जान चुके है कि वैदिक गोत्र प्रणाली y गुणसूत्र पर आधारित है अथवा y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है। उदाहरण स्वरुप- यदि किसी व्यक्ति का ‘काश्यप’ गोत्र है, तो उस व्यक्ति में विद्यमान y गुण ‘काश्यप’ होगा जो ‘काश्यप ऋषि’ से आया है। काश्यप ऋषि उस y गुणसूत्र का मूल हैं। चुकी y गुणसूत्र स्त्रियों में नहीं होता। यही कारण है, कि विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है। वैदिक, हिन्दू संस्कृति के अनुसार एक ही गोत्र में विवाह करना वर्जित है। इसका मुख्य कारण यही है। एक ही गोत्र होने से वे दोनों भाई-बहन कहलायेंगे, क्योंकि उसके पहले के पूर्वज एक ही थे। विभन्न समुदायों में गोत्र की संख्या अलग-अलग हैं। प्रायः तीन गोत्र (तीन पीढ़ी के गोत्र) को छोड़कर विवाह किया जाता है। पहला ‘स्वयं का गोत्र’, दूसरा ‘माँ का गोत्र’ अथार्त माँ जिस गोत्र की है और तीसरा दादी या नानी का गोत्र (कहीं पर दादी तो कहीं पर नानी) देखा जाता है। ओशो ने भी कहा है कि स्त्री-परुष जीतनी अधिक दूरी पर विवाह करते हैं, उनकी संतान उतनी अधिक प्रतिभाशाली और गुणी होती है। उनमे अनुवांशिक रोग होने की संभावनाए कम होती है। उनके गुणसूत्र बहुत मजबूत होते है। वे जीवन-संधर्ष करने में परिस्थितियों का दृढ़ता के साथ मुकाबला करते हैं। इस संबंध में सबके अपने-अपने विचार हो सकते है?
आज के आनुवांशिक विज्ञान के अनुसार यदि सामान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनकी संतति आनुवांशिक विकारों के साथ उत्पन्न होगी। ऐसे दम्पतियों की संतान एक ही विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होगा। ऐसे बच्चों में रचात्मकता का अभाव होता है। विज्ञान के द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है। सगोत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपति के संतानों में अनुवांशिक दोष अथार्त मानसिक विकलांगता, अपंगता गंभीर रोग आदि जन्म जात ही पाए जाते है। शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगोत्र विवाह पर प्रतिबन्ध लगाया गया था या है।
इस गोत्र का संवहन यानी उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित नहीं कर सके, इसलिए विवाह के पहले कन्यादान करवाया जाता है। गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गोत्र में उसे स्थान देता है। इसी कारण उस समय विधवा विवाह को स्वीकार नहीं किया जाता था। क्योंकि कुल गोत्र प्रदान करने वाला पति स्वर्ग वासी हो गया। इसिलए कुंडली मिलाने के समय इन बातों पर विशेष ध्यान दिया जाता हैं। लड़की मांगलिक हो तो अधिक सावधानी बरतनी पड़ती है। यहाँ पर ‘आत्मज या अत्मजा’ का संधि विच्छेद कर देखते हैं। आत्मजा= आत्म+ज अथवा आत्म+जा। आत्म= मैं, ज या जा = जन्मा या जन्मी, मैं ही जन्मा या जन्मी हूँ। यदि पुत्र हुआ तो 95% पिता और 5% माता का सम्मिलित है यदि पुत्री हुई तो 50% पिता और 50% माता का सम्मिलित है। फिर पुत्री की पुत्री हुई तो वह डीएनए 50% का 50% रह जाएगा, इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री के जन्म में यहं घटकर 1% रह जाएगा। अथार्त एक पति पत्नी का एक ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुनः-पुनः जन्म लेता रहता है, इसे ही सात जन्मों का साथ कहा जाता है। लेकिन जब पुत्र होता है तो पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95% गुणों का अनुवांशिकी में ग्रहण करता है। और माता का 5% (जो कि किन्हीं परिस्थितियों में 1% से भी कम हो सकता है) डीएनए ग्रहण करता है। यही क्रम अनवरत चलता रहता है। जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेता रहता है। अथार्त यही जन्म-जन्मांतर का साथ हो जाता है।
इसीलिए अपने ही अंश को पित्तर जन्म-जन्मांतर तक आशीर्वाद देते रहते हैं। और हम सब भी अमूर्त रूप से उनके प्रति श्रध्येय भाव से उनका आशीर्वाद ग्रहण करते रहते हैं। कन्यादान का विधान इस नियम से निमित किया गया है कि दूसरे के कुल की कुलवधू बनने के लिए और उस कुल की कुल्धात्री बनने के लिए गोत्र मुक्त होना आवश्यक होता है। डीएनए मुक्त तो कभी नहीं हो सकते क्योंकि भौतिक शरीर में वे डीएनए तो रहेंगे ही। इसलिए माँ का यानि मायका का रिश्ता हमेशा बना रहता है। इसलिए कन्या के पिता के गोत्र का त्याग किया जाता है। वह भावी वर को वचन देता है कि उसके कुल की मर्यादा का पालन करेगी यानी उसके गोत्र और डीएनए को दूषित नहीं करेगी, वर्णसंकर नहीं करेगी, क्योंकि कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिए ‘रज’ का दान कर मातृत्व को प्राप्त करती है। यही कारण है कि प्रत्येक विवाहित स्त्री माता बनकर पूजनीय हो जाती है। इस रजदान को कन्यादान की तरह ही कोटि-कोटि यज्ञों के सामान माना गया है जो पत्नी के द्वारा पति को दान किया जाता है। भारतीय संस्कृति और सभ्यता के अलावा यह संस्कार शुचिता किसी अन्य सभ्यता में नहीं है।
कंप्यूटर प्रोग्रामिंग में जानकारी रखनेवाले गोत्र को आधुनिक साफ्टवेयर निर्माण की भाषा ऑब्जेक्ट ओरिएंटेड प्रोग्रामिंग (Object Oriented Peogramming: oop) के माध्यम से समझ सकते है।
गोत्र संवहन की प्रक्रिया गूढ़ है, पर है वैज्ञानिक। विस्तृत रोचक आलेख के लिए धन्यवाद आपको।
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