संजय की दिव्यदृष्टि

महाभारत एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें भारत का ही नहीं, विश्व इतिहास का भी रहस्य छुपा हुआ है। संजय महाभारत का महत्वपूर्ण पात्र और अंधे कौरव राजा धृतराष्ट्र के सारथी थे। संजय महर्षि व्यास के शिष्य और धृतराष्ट्र की राज्यसभा के सम्मानित सदस्य थे। संजय विद्वान गावाल्गण नामक सूत के पुत्र थे। वे विनम्र और धार्मिक स्वभाव के थे।

संजय स्पष्टवादिता के लिए प्रसिद्ध थे। वे धृतराष्ट्र के सारथी तथा श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। वे धर्म के पक्षपाती थे। इसी कारण से धृतराष्ट्र के आश्रित होने पर भी पाण्डवों के प्रति सहानुभुति रखते थे। वे धृतराष्ट्र और उनके पुत्रों को अधर्म से रोकने के लिये कड़े से कड़े बचन कहने में भी नहीं हिचकिचाते थे। वे राजा को समय-समय पर सलाह भी दिया करते थे। वे दुर्योधन द्वारा पाण्डवों के साथ किये जाने वाले असहिष्णु व्यवहार के प्रति हमेशा चेताते रहते थे। जब दूसरी बार द्यूत क्रीड़ा (जुआ) में हारने के बाद पांडव वन चले गए, तब संजय ने धृतराष्ट्र को चेतावनी दी थी कि ‘हे राजन! कुरु वंश का नाश तो अवश्यंभावी है, लेकिन दु:ख इस बात का है कि निरीह प्रजा व्यर्थ में मारी जाएगी।विदुर, भीष्म पितामह और गुरु द्रोणाचार्य आदि के द्वारा रोके जाने पर भी आपके पुत्रों ने द्रौपदी  का अपमान किया। इस तरह उन्होंने पाण्डवों के कोप (क्रोध) को स्वत: निमन्त्रण दे दिया। केवल दुर्योधन ही इस तरह का व्यवहार कर सकता था।’

युद्ध की संभावना होने पर धृतराष्ट्र ने संजय को पांडवों के पास यह संदेश देकर भेजा था कि भले ही कौरवों ने उनका राज्य ले लिया है, किंतु कुरुवंशी क्षत्रियों के पक्ष में यही है कि पांडव कौरवों से युद्ध न करें। प्रत्युत्तर में पांडवों ने अपना अधिकार मांगा तथा कहा कि युद्ध की चुनौती कौरवों की ओर से है। पांडव तो मात्र धर्म की रक्षा के निमित्त युद्ध के लिए तैयार हैं।

महाभारत युद्ध के शुरुआत में ही महर्षि वेदव्यास की कृपा से संजय को ‘दिव्यदृष्टि’ प्राप्त हुई थी, सिर्फ इसलिए कि वह हस्तिनापुर स्थित महल में बैठकर कुरुक्षेत्र के युद्ध भूमि का आँखों देखा हाल, अंधे धृतराष्ट्र को सुना सके। ‘गीता’ की शुरुआत संजय और धृतराष्ट्र के संवाद से ही होती है। हस्तीनापुर और कुरुक्षेत्र की दूरी लगभग 145 किलोमीटर का होगा। अठारह दिनों तक चलने वाले इस युद्ध की हर घटना का वर्णन संजय धृतराष्ट्र से करते थे। श्रीमद् भागवत् गीता  का उपदेश जो कृष्ण  ने अर्जुन  को दिया, वह भी संजय द्वारा ही सुनाया गया। श्री कृष्ण का विराट स्वरूप, जो कि केवल अर्जुन को ही दिखाई दे रहा था, संजय ने अपने दिव्य दृष्टि से देखा था। संजय को दिव्य दृष्टि मिलने का कारण, संजय का ईश्वर में नि:स्वार्थ विश्वास था। भागवत् गीता का उपदेश भी जिस प्रकार श्रीकृष्ण ने अर्जुन  को दिया, वह सब इन्होंने भी अपने कानों से सुना। इतना ही नहीं, देवताओं के लिये दुर्लभ विश्वरूप तथा चतुर्भुज रूप का दर्शन भी इन्होंने किया। महाभारत में युद्ध विजय की घोषणा भी पहले ही कर दी गई थी।

संजय का सिद्धान्त- यतः   सत्यं  यतो   धर्मो  यतो   ह्रीरार्जवं  यतः।

                            ततो भवति गोविन्दो यतः कृष्ण्स्ततो जयःमहाभारत।।

(महाभारत, उद्योगपर्व, अध्याय ६७, ९. “जहाँ सत्य है, जहाँ धर्म है, जहाँ लज्जा है और जहाँ सरलता है, वहीं गोविन्द हैं; और जहाँ कृष्ण हैं, वहीं जय है।)

पांचालों (द्रौपदी के पुत्र) के वध के उपरांत व्यास की दी हुई ‘संजय की दिव्य दृष्टि’ भी नष्ट हो गई थी। युद्ध के पश्चात् अनेक वर्षों तक संजय युधिष्ठर के राज्य में रहे। इसके पश्चात् धृतराष्ट्र, गांधारी  और कुन्ती  के साथ सन्यास ले लिए। धृतराष्ट्र की मृत्यु के बाद संजय भी हिमालय चले गए।

2 thoughts on “संजय की दिव्यदृष्टि”

    1. नमस्कार मैम 🙏🙏
      बहुत-बहुत धन्यवाद
      आपके प्रतिक्रिया के लिए।
      आप सबके प्रेरणा से लिखती ‌ हूं।

      Like

Leave a Reply to Anupama Shukla Cancel reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.