माँ की भूमिका

‘माँ’ शब्द की कोई परिभाषा नहीं होती है यह शब्द अपने आप में परिपूर्ण है। असहनीय शारीरिक पीड़ा के पश्चात् बच्चे को जन्म देने वाली माँ को भागवान का दर्जा दिया जाता है, क्योंकि ‘माँ’ जननी है। भागवान ने माँ के द्वारा ही सम्पूर्ण सृष्टि की रचना की है।   माता-पिता बनना मनुष्य के जीवन का सबसे परिपूर्ण, आनंदित और पुरस्कृत करने वाला अनुभव होता है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं की यह आसान है। बच्चों की उम्र चाहे कितनी भी हो जाए, हमारा दायित्व कभी भी ख़त्म नहीं होता है। ‘माँ’ एक ऐसा शब्द है, जिसमें नारी की पूर्णता का बोध होता है। यह कहना उचित होगा कि महान आत्माओं का विकास माता के गर्भ और गोद में ही होता है। जब कोई बच्चा या व्यक्ति किसी तरह की गलती करता है तो हम जल्दी से कह देते हैं कि पता नहीं इसके माँ-बाप ने इसे क्या सिखाया है? यहाँ पहला शब्द ‘माँ’ निकलता है। इसके विपरीत जब बच्चा कुछ अच्छा काम करता है, या ऊँचे पद को प्राप्त करता है, तो हम सभी यही कहते हैं कि इसके माँ-बाप ने बहुत अच्छे कर्म किये होंगे। तात्पर्य यह है कि परिस्थितियाँ चाहे जो भी हो ‘माँ’ का नाम पहले आता ही है। नारी के अनेक रूपों में ‘माँ’ का ही रूप पूजनीय है। माँ अपने बच्चों की पहली ‘शिक्षिका’ और ‘परिवार’ बच्चों की पहली ‘पाठशाला’ होती है। दुनिया में हर व्यक्ति के अनेकों रिश्ते होते हैं और हर रिश्ते को हमसे कुछ पाने की आस होती है लेकिन ‘माँ’ का ही एक ऐसा रिश्ता है जो जीवनपर्यन्त सिर्फ देना जानती है, लेना नहीं। माँ हर वक्त अपने संतान के कल्याण, भलाई और सुख की चिंता में रहती है। उसकी आतंरिक इक्षा होती है कि उसकी  संतान आगे बढ़े और अपने परिवार, समाज तथा देश का नाम ऊँचा करे। आज के इस भाग दौड़ के समय में नारी यह भूलती जा रही है कि उसका प्रथम कर्तव्य क्या है? आज की नारी अपने ‘कैरियर’ को बनाने में यह भूलती जा रही है कि उनके साथ कई संबंध जुड़े हुए है। माँ की सफलता उसी में है जब उसके परिवार के साथ-साथ उसके बच्चे भी सफल हों।

माँ की ममता व स्नेह तथा पिता का अनुशासन किसी भी मनुष्य के व्यक्तित्व के निर्माण में सबसे प्रमुख भूमिका निभाता है। बच्चे को उसके जन्म से लेकर उसके पैरों पर खड़ा होने तक माँ और पिता दोनों को अनेक कठिनाइयों से गुजरना पड़ता है। इसका अनुमान बच्चों को तब होता है जब वे खुद माता-पिता बन जाते हैं। संसार में यदि किसी भी व्यक्ति की पहचान या अस्तित्व है तो वह उसके माता-पिता के कारण है। हर माँ अपने बच्चे को इतना मजबूत बना दे कि उसका बच्चा कभी भी सही रास्ते से नहीं भटके। बल्कि वह हर तरह की कठिनाइयों का सामना करने के लिये तत्पर रहे। ऐसी माताओं की हमारे देश के इतिहास में कमी नहीं है जिन्होंने अपने बच्चों को उचाईयों तक पहुचायाँ है।

       माता ‘सुनीति’, माता ‘सुमित्रा’ और माता ‘मंदालता’ ये तीनों माताएँ भारतीय इतिहास की अनोखी माताएँ हैं। माता ‘सुनीति’ ने अपने नन्हें से बालक ध्रुव को समझाया था कि तुम सांसारिक पिता नहीं विश्व पिता की चाहत रखो और उनकी गोद में बैठने की कोशिश करो। पांच साल के ध्रुव ने माँ के उपदेश को महान संकल्प में बदल दिया। उसने कठोर तपस्या की और आज आकाश में माता सुनीति के उसी अमर बालक को पूरी दुनिया ‘ध्रुवतारे’ के रूप में देखती है जो सबसे ‘प्रकाशमान’ है।

माता ‘सुमित्रा’ ने अपने बेटों को बड़ी ही निष्ठा से पाला-पोषा और समझाया कि वे अपनी ‘मैं’ को कभी भी आगे नहीं आने दें। राम के वन जाते समय लक्ष्मण सुमित्रा माता के पास जाकर पूछे – माँ मैं भी भैया के साथ वन जाना चाहता हूँ? मैं राम भैया की सेवा करूँगा। जब लक्ष्मण ने माँ से अनुमति माँगी, तब माता सुमित्रा ने उपदेश दिया था कि वन में रहते हुए तुममे कुछ न कुछ मोह जरुर जागेगा, उससे तुम भटकना नहीं। तुम्हारे सामने एक ही लक्ष्य होना चाहिये, ‘भाई की सेवा’ अगर तुम्हें अपने माता-पिता या अयोध्या की याद आए तो तुम उस समय राम में अपने पिता, सीता में माँ और वन के सुन्दरता को मान लेना कि वही तुम्हारी प्राणप्रिय अयोध्या है। कभी भी अपने ‘कर्तव्य’ और ‘सेवा’ से विमुख नहीं होना और यह कहकर माँ ने अपने प्रिय पुत्र को वन जाने की अनुमति दे दी थी।

माता ‘मंदालता’ ने अपने एक बेटे को योगी बना दिया और एक बेटे को राजा।

‘थामस अलवा एडिसन’ को कौन नहीं जनता? एक दिन एडिसन जब स्कूल से घर आए और उनके शिक्षक द्वारा दिए गए पत्र को माँ को देते हुए बोले माँ! मुझे यह पत्र शिक्षक ने दिए है और कहा कि इसे केवल अपनी माँ को ही देना।

बताओं माँ! इसमें क्या लिखा है?

तब पत्र को पढ़ते हुए माँ की आँखे रुक गई और तेज आवाज में पत्र पढ़ते हुए बोली “आपका बेटा बहुत प्रभावशाली है। यह विद्यालय उसके आगे बहुत छोटा है उसे बेहतर शिक्षा देने के लिए हमारे पास इतने काबिल शिक्षक भी नहीं है, इसलिए आप अपने बच्चे को खुद पढ़ायें या किसी अच्छे स्कूल में भेजें।”

आगे चलकर माँ की शिक्षा और आशीर्वाद से एडिसन एक महान वैज्ञानिक बन गया। माँ की मृत्यु के कई वर्ष बाद एक दिन एडिसन अपने कमरे की सफाई कर रहे थे तभी आलमारी में रखा हुआ वह पत्र मिला जिसे वह पढ़ने लगे।

उसमे लिखा था। “आपका बेटा मानसिक रूप से बीमार है, जिससे उसकी आगे की पढ़ाई इस स्कूल में नहीं हो सकती है। इसलिए उसे स्कूल से निकला जा रहा है।”

पत्र को पढ़ते ही एडिसन भावुक हो गए। एडिसन ने डायरी में लिखा “थामस एडिसन तो बीमार था लेकिन उसकी माँ ने अपने बेटे को सदी का सबसे प्रतिभाशाली व्यक्ति बना दिया।”

आज के समय की माताओं को देख कर दिल में दुःख होता है वे अपने दिल के टुकड़े को क्रैच में छोड़ कर आफिस चली जाती है। क्या क्रैच बच्चे को माँ का प्यार दे सकता है? मेरे हिसाब से कभी नहीं। ये तो पैसा कमाने का साधन है जिसे अमीरों ने बना रखा है। संयुक्त परिवार के टूटने का असर बच्चों के परवरिश पर भी पड़ा है। पहले की माँ अपने चार-चार, पांच-पांच बच्चों को सम्भाल लेती थी, जबकि उस समय साधन की भी कमी थी। आज एक बच्चे को सम्भालना मुश्किल हो रहा है? जबकि हर साधन भरपूर है? आज हम सब अपनी-अपनी आवश्यकताओं के पीछे क्यों भाग रहें हैं? समझ से बाहर है। हम अपने बच्चों को इतनी ज्यादा सुख-सुविधाएँ दिए जा रहे हैं जितना की उनको आवश्यकता नहीं होती हैΙ जैसे- आज माएँ बच्चों को खेलने के लिए मोबाईल, लैपटॉप, आदि दे देती हैं जिससे बच्चे को उसका नशा हो जा रहा है। कई बच्चे तो बीमार हो जा रहे हैं। कईयों ने तो मोबाईल के लिए अपनी माँ बहन का खून कर दिया, कई घर छोड़ कर भाग गए। आखिर इन सभी घटनाओं के लिए जिम्मेदार कौन है?

‘आरुषी’ हत्या कांड क्यों हुआ? ऐसी घटनाएँ आज रोज हो रही हैं। कुछ माँओं को जब कोई बोलता है कि छोटे बच्चे को मोबाईल मत दीजिये तो उन्हें अच्छा नहीं लगता है और वे कहतीं हैं कि बड़ा होकर ठीक हो जाएगा। यह जानबूझ कर ‘जिद्दी बच्चे के हाथ में बेवकूफ़ माँ का चाकू’ देने के समान है। क्या अगर हम पौधे लगा कर छोड़ दें तो वह पौधा पौष्टिक फल-फूल दे सकता है? नहीं! कभी नहीं।

छत्रपति शिवाजी ने अच्छे राज्य की स्थापना किया। उत्तम राष्ट्र का निर्माण हो, इसकी शिक्षा जीजा माता ने शिवाजी को बाल्यावस्था में ही दी थी। तात्पर्य यह है कि हमें अपने बच्चों को देश, परिवार, समाज के प्रति प्रेम की शिक्षा देना अति आवश्यक है तभी तो हमारे परिवार, समाज, और देश का विकास होगा। ये बच्चे ही हमारे देश का भविष्य हैं।    पहले के कई बच्चे महान व्यक्ति बने हैं जिनको आज हम पढ़ते है जैसे – विवेकानंद, सर्वपल्ली राधाकृष्ण, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, सुभाषचंद्र बोस, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम आदि। ये सभी अपने माता-पिता के सातवीं या आठवीं संताने थी और आज के बच्चों की तरह उन्हें सुख-सुविधाएँ भी प्राप्त नहीं हुई होगी फिर भी वे महान व्यक्ति बने। हाँ! एक चीज तो उन्हें भरपूर मिला होगा वो था माँ के साथ पूरे परिवार का प्यार जो आज के समय में बच्चों को नहीं मिल पा रहा है। हमारे भारतवर्ष में महापुरुषों की कमी नहीं है अगर सबके नाम लिखना शुरू करें तो शायद कागज काम पर पड़ जायेगा। हम सभी अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, पायलट बनाना चाहते हैं लेकिन विवेकानंद, अब्दुल कलाम, रवीन्द्रनाथ टैगोर, डा. राजेन्द्र प्रसाद आदि क्यों नहीं? शायद इन सभी महापुरुषों को वो सारी चीजें नहीं मिली होगी जो आज के बच्चों को आसानी से मिल जाती है, तो आखिर आज के माँ-बाप कहाँ कमज़ोर पड़ रहे हैं? ये बहुत ही चिंता का विषय हो गया है। आज हम सभी औरतों को ही सोचना होगा कि क्या हम अपने बच्चों को वो सब कुछ दे पा रहे हैं जिसके वो हक़दार हैं। पैसा ही सब कुछ नहीं होता है। कबीर दास जी ने ठीक ही कहाँ है- पूत ‘कपूत’ तो क्यों धन संचय? पूत ‘सपूत’ तो क्यों धन संचय? अथार्त पूत अगर कपूत होगा तो वह संचय किया हुआ धन भी नष्ट कर देगा और अगर सपूत हुआ तो वह धन खुद कमा लेगा।

आज हम सब 21वीं शदी में हैं। परिवर्तन प्रकृति का शास्वत नियम है और हमें भी नये युग के अनुसार ही चलना होगा अन्यथा हम दुनिया से पीछे हो जाएगें। हमें अपने संस्कार को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। संस्कार ही व्यक्ति का सही मूल्यांकन करवाता है। संस्कार जीवन की नींव है, जीने की संस्कृति है। यही व्यक्ति की मर्यादा और उसकी गरिमा है। संस्कारों ने व्यक्ति को सदा सुखी ही किया है और जो व्यक्ति संस्कार को महत्व नहीं देता है उसे अंत में पछताना पड़ता है।

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