हुई भोर जाड़े की,
ओढ़ कोहरे की चादर।
रवि ने खोली देर से आंखें,
सोई चिरैया देख रवि को,
करली अपनी आंखें बंद।
ऊषा ने जब ली अंगड़ाई,
तब रवि की लाली आई।
मंद-मंद सुमन मुस्काई,
नभ में खग ने दौड़ लगाई।
धरा प्रसन्न होकर नहाई,
गीत सभी ने मिलकर गाई।
मेरी रचनाएँ
हुई भोर जाड़े की,
ओढ़ कोहरे की चादर।
रवि ने खोली देर से आंखें,
सोई चिरैया देख रवि को,
करली अपनी आंखें बंद।
ऊषा ने जब ली अंगड़ाई,
तब रवि की लाली आई।
मंद-मंद सुमन मुस्काई,
नभ में खग ने दौड़ लगाई।
धरा प्रसन्न होकर नहाई,
गीत सभी ने मिलकर गाई।